जिन लोगों को मिलती भी है वह बहुत जल्द उससे पीछा छुड़ा लेना चाहते हैं क्योंकि प्रभाष जी का रास्ता बहुत ही कांटो भरा था और जिस पर चल पाना सबके लिए संभव नहीं हो पाता। अपनी भरी जवानी में वे सर्वोदयी हो गए थे और उस उम्र में जब लोग डिप्टी कलेक्टर होने या कोई और बड़ी सरकारी नौकरी की आस लिए मेहनत कर रहे थे। वे मालवा के गांव देहातों और जंगलों में भटक रहे थे। नियति ने उन्हें पत्रकारिता में धकेल दिया और इस काम को भी उन्होंने बखूबी अंजाम दिया। इसी दौरान सन 65 में वे इग्लैंड गए और वहां के दो अंग्रेजी अखबारों में काम किया। विलायत जाने का अवसर मिलने और अंग्रेजी अखबारों में काम करने के बाद आमतौर पर तीसरी दुनिया के देशों के पत्रकारों के पांव जमीन पर नहीं टिकते लेकिन प्रभाष जोशी ने वापस आकर जिस गरिमा और मर्यादा के साथ साप्ताहिक ‘सर्वोदय’ निकाला और जयप्रकाश जी के निर्देश पर ‘एवरीमेंस’ ‘प्रजानीति’ और ‘आसपास’ के लिए काम किया उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती।
आपातकाल के दौरान कुलदीप नैय्यर को छोड़कर किसी दूसरे पत्रकार ने जेल जाने का साहस नहीं दिखाया। ऐसे समय में जब बड़े-बड़े तुर्रम खां पत्रकारों ने श्रीमती गांधी की इमरजेंसी के सामने ना सिर्फ घुटने टेके बल्कि रेंगने का काम किया, प्रभाष जोशी उस समय पत्रकारिता के धर्म को निभाते रहे और भले ही जेल ना गए हो पर कई तरह की दुश्वारियां झेलीं। मार्च 1977 में जब जनसत्ता सरकार के बनने का समय आया प्रभाष जोशी जयप्रकाश जी के कहने पर वह पर्चियां बनाकर बैठे थे जिनके आधार पर प्रधानमंत्री का चुनाव होना था लेकिन बकौल प्रभाष जोशी उसकी नौबत ही नहीं आयी और हम पर्चियां लेकर बैठे रह गए। मगर इस बात से यह साबित होता है कि वह जेपी और उस समय के सत्ता के गलियारों में कितनी नजदीकी रखते थे और चाहते तो राज्यसभा के सदस्य या अन्य किसी बड़े सरकारी पद पर बैठ सकते थे या कम से कम सरकार के सूचना सलाहकार तो हो ही सकते थे लेकिन उन्होंने अपना बोरिया बिस्तर बांधा और दिल्ली सहित अहमदाबाद और चंडीगढ़ जाकर इंडियन एक्सप्रेस की ‘रेजीडेंट एडीटरी’ की और लगभग साढ़े छह साल बाद दिल्ली से जनसत्ता निकालकर ऐसा प्रयोग किया जो हिंदी पत्रकारिता के इतिहास मे अपनी अलग पहचान भाषा और कवरेज के लिए याद किया जायेगा।
किसी अंग्रेजी पत्रकार का हिंदी या किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा के अखबार के साथ जुड़ना और फिर जीवनपर्यंत उसी से जुड़कर रह जाने की भी ये अनोखी और अदभुत मिसाल है जिसका कोई दूसरा उदाहरण याद नहीं पड़ता। यह सही है कि 1987 में दिवराला में रूपकंवर के सती होने की घटना और मेरठ मलियाना और हाशिमपुरा में हुए दंगों के बाद जनसत्ता द्वारा जो स्टैंड लिया गया था उसे लेकर प्रभाष जोशी की तीखी आलोचना हुई थी और उस प्रकरण को लेकर अभी भी सवालिया निशान बना हुआ है। लेकिन जब उन्होंने 1992 में बाबरी मस्जिद ढाए जाने की घटना से पहले जनसत्ता में एंकर लिखा “क्या झूठ और छल के बल पर अयोध्या में मर्यादा पुरूषोतम राम का मंदिर बनेगा?” तो उन्होंने अपने उन आलोचकों के मुंह बंद कर दिए जो उन पर सांप्रदायिक और हिंदू पुरातनपंथी होने का आरोप लगा रहे थे। अपने इस लेख के बाद हिंदुत्व, हिंदुत्वादियों और उनकी सांप्रदायिक और घृणा फैलाने वाली राजनीति के खिलाफ प्रभाष जोशी ने जितना लिखा उतना शायद किसी और पत्रकार ने नहीं लिखा। मजेदार बात यह है कि यह सब उन्होंने अपने सनातनी हिंदू होने पर गर्व करते हुए लिखा और हिंदुत्वादियों को चुनौती देते हुए बल्कि ललकारते हुए कहा कि अगर उनमें साहस हो तो वे उनके साथ हिंदू धर्म पर शास्त्रार्थ कर लें, अयोध्या में जब 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद ढा दी गई तो इसे उन्होंने राष्ट्रीय शर्म कहा और अपने लेखों में लिखा कि ऐसा धतकरम करने वालों को ईश्वर कभी माफ नहीं करेगा। वह मृत्युपर्यन्त 6 दिसंबर की घटना का धतकरम ही लिखते रहे।
प्रभाष जी की एक बड़ी खूबी यह थी कि शायद 90 के बाद जबसे उन्होंने कोट पतलून और पेंट शर्ट पहनना छोड़ा तो हमेशा सिर्फ धोती कुर्ते में नजर आए और भाषा पर किसी तरह का मुल्म्मा चढ़ने नहीं दिया। उन्हें अगर लगा कि अपनी मालवी शैली में उन्हें बात कहनी है तो बेखौफ होकर लिखा बिना इस बात की परवाह किए कि इस पर पाठक किस तरह रिएक्ट करेंगे या उन्हें अपनी भाषा या शब्द समझ में आएंगे या नहीं। इस तरह की शैली को गंवई कह देने का फैशन सा हो गया है यानी यह कोई तुच्छ चीज हो जिसे सिर्फ गांव के लोग इस्तेमाल करते हैं और शहर के तथाकथित पढ़े लिखे भद्रलोक के लिए इस भाषा का इस्तेमाल करना मानो पाप हो। इस देश की एकता और अखंडता का सवाल हो संप्रभुता का सवाल हो राजनैतिक और आर्थिक दोनों रूप से। सांप्रदायिक सौहार्द का सवाल हो या सांप्रदायिकता से लड़ने का राष्ट्रीय आंदोलन में मूल्यों को याद करने का उन्हें बचाए रखने का, बिनोवा भावे और जेपी को याद करने का और सबसे बड़ा ये कि इस देश के गरीब दलित शोषित और पिछड़े वर्गों के लिए अनवरत उठाते रहना। प्रभाष जी ऐसे मौके पे हमेशा आगे रहते थे उनकी याद बहुत सताएगी। चाहे पिछड़े वर्गों के लोगों को विशेष अवसर दिए जाने की बात हो चाहे नर्मदा पर बांध बनाने और उसका विरोध करने वाला मोर्चा हो या सांप्रदायिकता की आग में जलते गुजरात का मामला हो या फिर झारखंड के आदिवासियों के हकों का मामला हो या दिल्ली में झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के विस्थापन का मामला। प्रभाष जी हमेशा एक एक्टिविस्ट की तरह सड़क पर खड़े और मोर्चा संभाले नजर आए।
गुजर तो जाएगी तेरे बगैर भी ऐ दोस्त,
बड़ी उदास बड़ी बेकरार गुजरेगी, बड़ी उदास बड़ी बेकरार गुजरेगी।
लेखक कुरबान अली देश के जाने-माने पत्रकार हैं.