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राजनीति-सरकार

कांशीराम से नहीं, माया की सोच से बढ़ी बसपा की ताकत

अजय कुमार, लखनऊ

बसपा में अब मायावती का ही सिक्का चलता है। वह जैसे चाहती हैं सियासी गणित बैठाती हैं। दलित वोटर अब माया की अकेली चिंता नहीं रह गये हैं। सिर्फ दलित वोटरों के सहारे जब तक मायावती अपनी सियासत चमकाती रहीं तक तक सत्ता उनके लिये दूर की कौड़ी रही।मान्यवर कंाशीराम सामाजिक समरसता के नाम पर दलित वोट बैंक की सियासत करते थे तो मायावती ने इसमें समय-समय पर ब्राहमण,अगड़ों-पिछड़ों, मुसलमानों आदि वोट बैंक का भी तड़का लगाती रहीं। इसे मायावती की मजबूरी भी कहा जा सकता है और सियासी पैतरेबाजी भी।हॉ यह जरूर रहा इससे मायावती को फायदा खूब हुआ 2007 में तो वह सर्वजन हिताय के नारे के सहारे बहुमत वाली सरकार तक बनाने में कामयाब रही थीं।इसी लिये माया को कांशीराम की विचारधारा से अलग होने में गुरेज भी नहीं रहा।यह और बात है कि कांशीराम की विचारधारा के लोंगो को यह सब रास नहीं आया और उन्हें बाहर का रास्ता देखना पड़ गया।

अजय कुमार, लखनऊ

बसपा में अब मायावती का ही सिक्का चलता है। वह जैसे चाहती हैं सियासी गणित बैठाती हैं। दलित वोटर अब माया की अकेली चिंता नहीं रह गये हैं। सिर्फ दलित वोटरों के सहारे जब तक मायावती अपनी सियासत चमकाती रहीं तक तक सत्ता उनके लिये दूर की कौड़ी रही।मान्यवर कंाशीराम सामाजिक समरसता के नाम पर दलित वोट बैंक की सियासत करते थे तो मायावती ने इसमें समय-समय पर ब्राहमण,अगड़ों-पिछड़ों, मुसलमानों आदि वोट बैंक का भी तड़का लगाती रहीं। इसे मायावती की मजबूरी भी कहा जा सकता है और सियासी पैतरेबाजी भी।हॉ यह जरूर रहा इससे मायावती को फायदा खूब हुआ 2007 में तो वह सर्वजन हिताय के नारे के सहारे बहुमत वाली सरकार तक बनाने में कामयाब रही थीं।इसी लिये माया को कांशीराम की विचारधारा से अलग होने में गुरेज भी नहीं रहा।यह और बात है कि कांशीराम की विचारधारा के लोंगो को यह सब रास नहीं आया और उन्हें बाहर का रास्ता देखना पड़ गया।

 

पिछले दो दशक में कई ऐसे लोग बसपा को अलविदा कह चुके हैं जो कभी कांशीराम के साथ साइकिलों से गांव-गांव घूमकर दलितों में सामाजिक और राजनीतिक चेतना फैलाने का काम किया करते थे, लेकिन मान्यवर कांशीराम के बाद जिस तेजी से बसपा में मायावती का वर्चस्व बढ़ा, उसी तेजी से कांशीराम के पुराने साथी और पार्टी के संस्थापक संगठन से बाहर होते गए। मौर्या को क्या मुकाम हासिल होगा, यह तो समय ही बतायेगा,लेकिन अतीत तो यही कहता है कि हाथी से उतरने वालों के लिए सियासी अनुभव कड़वे ही रहा हैं। जो हाथी से उतरा उसे अमूमन सियासत में पैदल ही रहना पड़ा। बीएसपी के संस्थापक सदस्यों राज बहादुर, दीनानाथ भास्कर, आरके चौधरी, डॉक्टर मसूद, शाकिर अली, राशिद अल्वी, जंग बहादुर पटेल, बरखू राम वर्मा, सोने लाल पटेल, राम लखन वर्मा, भगवत पाल, राजाराम पाल, राम खेलावन पासी, कालीचरण सोनकर जैसे कई नाम हैं जो पार्टी से अंदर-बाहर हुए लेकिन अपना रुतबा हासिल नहीं कर सके। सोने लाल पटेल ने जरूर अपनी पार्टी बनाकर थोड़ा बहुत मुकाम हासिल किया। हालांकि बाकी दूसरे दलों में फिलर की ही भूमिका में रहे। ऐसे में मौर्य के सामने इन नजीरों को बदलने की भी चुनौती होगी।

बसपा छोड़ने वाले स्वामी प्रसाद मौर्या हों या फिर अन्य नेता सब एक ही सुर में बोलते हुए कहते रहे है कि बसपा सुप्रीमो मायावती की पैसों की  हवस बढ़ गई है। इसी लिये दलितों मे मसीहा डा0 साहब भीमराव अंबेडकर और दलित चिंतक मान्यवर कांशीराम के सिद्धांतों को उन्होंने हासिये पर डाल दिया है। दलितों व पिछड़ों को इंसाफ दिलाने की बजाये वह दौलतमंदों को फायदा पहुंचाने में जुट गई है। इसी के चलते दलितों वोटों का सौदा तक करने से मायावती को परहेज नहीं रह गया हैं। मायावती पर आरोप यह भी हैं कि जहां कांशीराम ने समानुपातिक भागीदारी को ध्यान में रखकर नारा दिया थ,‘ जिसकी जितनी सख्ंया भारी, उसकी उतनी भागीदारी।’ मायावती ने इस नारे को उलट दिया, और वह कहने लगीं, ‘जिसकी जितनी तैयारी, उसकी उतनी भागीदारी।‘ पुराने बसपाई कहते हैं माया ने दलित वोटों का सौदा करने के लिए ही नये नारे को साकार किया था। यह सर्वसंपन्न लोगों को लाभाविन्त करने कि नीति थी। मायावती कों बसपा के संस्थापक कांशीराम का ‘एक वोट-एक नोट‘ का नारा भी याद नहीं रहा। इसकी बजाये एक अघोषित नारे ने जन्म ले लिया, ‘जितनी थैली भारी-उसकी उतनी भागीदारी।’

खैर, किसी भी नेता पर आरोप तो लगते ही रहते हैं, बात मौर्या से पहले बसपा छोड़ने वाले नेताओं की कि जाये तो कांशीराम के पुराने साथी दद्दू प्रसाद भी स्थापना के समय से बसपा में थे। लगभग ढाई साल पहले वे भी पार्टी छोड़ गए थे। वर्तमान में वह बहुजन मुक्ति पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। दद्दू कहते हैं, डा0 अंबेडकर और कांशीराम ने धन आधारित लोकतंत्र में बदलने का काम किया था। इससे दलितों व पिछड़ों को सम्मान दिलाने वाला एक खूबसूरत बगीच तैयार हुआ था। मायावती अब उस बगीचे को व्यापारियों को बेचकर दलित, पिछड़ों व शोषितों के वोट ही बेच रही, बल्कि इस समाज की बहू-बेटियों की इज्जत बेच रही है। मायावती से दलितों के उद्धार की उम्मीद करना ही बेकार है।

ठीक इसी प्रकार से कभी अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल हर मंच पर कांशीराम के बगलगीर हुआ करते थे, पर मायावती के उभार के बाद बदले हालात में उन्हें भी बसपा को अलविदा कहना पड़ गया। बाद में उन्होंने अपना दल का गठन कर लिया था। इसी तरह जंग बहादुर पटेल भी कांशीराम के करीबियों में हुआ करते थे, लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव पर उन्हें भी बसपा छोड़नी पड़ गई। बरखूराम वर्मा का भी नाम इसी लिस्ट के नेताओं में था। मायावती ने उन्हें पार्टी से बर्खास्त कर दिया था।बात अन्य नामों की कि जाये तो बसपा के संस्थापक सदस्यों में से एक आरके चौधरी बसपा के गठन के बाद पार्टी के अग्रणी नेताओं में शामिल रहे। प्रदेश में बहनजी की सरकार बनी तो वह परिवहन मंत्री बने, लेकिन 2001 में मायावती से अनबन के चलते पार्टी से बाहर हो गए। 2004 में राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी का गठन किया। 2012 में खुद विधानसभा चुनाव नहीं जीत सके। फिलहाल बीएसपी में लौट आए हैं।

बसपा के प्रारम्भिक दिनों का हिस्सा रहे दिनानाथ भास्कर सपा-बीएसपी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे थे। माया के खिलाफ बगावत कर 1996 में बीएसपी छोड़कर सपा का दामन थाम लिया था। उस समय भास्कर ने मायावती पर कई आरोप लगाए थे, लेकिन 2009 में वह फिर बीएसपी में शामिल हो गए थे। इस समय बीजेपी में हैं। उनकी माने तो मायावती को यह आशंका सताती रहती है कि कहीं पुराने लोग मिलकर उन्हें कमजोर न कर दे। इसलिए वे किसी को स्थापित नहीं होने देती है। जैसे ही कोई मजबूत होता दिखता हैै।वह उसे पार्टी से निकाल देती है। भास्कर के अनुसार सिर्फ वह ही नहीं, कई ऐसे लोग है, जिन्होंने बसपा के जरिये सामाजिक परिवर्तन का सपना देखा था, पर साहब (कांशीराम) की मृत्यु के बाद मायावती ने मिशन को मनी में तब्दील कर दिया। मिशन वाले अब बसपा में नहीं रहे सकते। अभी और कोई लोग पार्टी छोड़ेंगे। मायावती के पास बस रेट बचा है, वोट नहीं। राम लखन वर्मा, भगवत पाल, दयाराम पाल को भी बसपा से बाहर जाना पड़ा।

टांडा के डा0 मसूद अहमद भी कांशीराम के ही साथी थे। 1985 से 1993 तक बीएसपी के पूर्वी यूपी के प्रभारी रहे व सपा-बीएसपी की साझा सरकार में शिक्षा मंत्री रहे। इसी दौरान बीएसपी से उनका मतभेद हुआ और उन्हें बाहर कर दिया गया। मसूद ने कुछ दिनों तक अपनी पार्टी चलाई। फिर सपा व कांग्रेस में गए लेकिन उसके बाद से कोई चुनाव नहीं जीते। इस समय मसूद राष्ट्रीय लोकदल में हैं।

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वर्ष 1973 में वामसेफ के माध्यम से राज बहादुर, मान्यवर कांशीराम के साथ जुड़े थे। 1993 में सपा-बसपा सरकार में समाज कल्याण मंत्री बने। बाद में राज बहादुर बागी हो गए और उन्होंने बीएसपी (रा) के नाम से पार्टी बना ली। कुछ समय बाद वह सपा और फिर कांग्रेस में चले गए। इस समय वह कांग्रेस में हैं पर बीएसपी छोड़ने के बाद वह कोई चुनाव नहीं जीत पाए। बसपा की निवर्तमान सरकार में माया के सबसे खास सिपहसालारों में बाबू सिंह कुशवाह हुआ करते थे। एनआरएचम घोटाले में जेल जाने के बाद मायावती ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया। इसके बाद कुशवाह ने जन अधिकार मंच बनाया। पत्नी सपा से लोकसभा चुनाव लड़ी, लेकिन जीत नहीं सकी। कुशवाहा इस समय जमानत पर बाहर हैं, लेकिन राजनीतिक पूछ पहले सी नहीं बन सकी है और अपना ही मंच बनाकर सियासत कर रहे हैं।

कांग्रेस सरकार में केंद्रीय राज्य मंत्री रहे अखिलेश दास पार्टी छोड़ने के बाद बसपा में शामिल हुए थे। बीएसपी ने उन्हें राज्यसभा सदस्य बनाया था। राज्यसभा का कार्यकाल खत्म होने के बाद बसपा ने दुबारा उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा तो अखिलेश दास पार्टी से बाहर हो गए। तमाम कोशिशों के बाद भी राज्यसभा की अगली पारी उन्हें नहीं मिल सकी है। बसपा के महासचिव रहे जुगुल किशोर को बीएसपी ने राज्यसभा भी भेजा था। पिछले चुनावों तक टिकट वितरण से लेकर कई संगठनात्मक निर्णयों में अहम भागीदारी रही। बगावत कर बीजेपी में शामिल हो गए हैं। मायावती पर टिकट बेचने सहित कई आरोप लगाए। हालांकि रुतबा व ओहदा दोनों ही अब तक हासिल नहीं हो सका हैं।

बसपा के संस्थापक सदस्यों को ही नहीं कांशीराम के परिवार के लोगों को बसपा से बाहर होना पड़ा। कांशीराम की बीमारी के समय मायावती की उनके परिवार वालों से ठन गई थी। मामला न्यायालय तक गया। कांशीराम के छोटे भाई दरबारा सिंह मायावती पर कांशीराम के मिशन से भटकने का आरोप लगाते हुए बसपा के पुराने लोगों को जोड़ने का अभियान चला रहे है।गत दिनों वहलखनऊ आए थे। उन्होंने यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव में सक्रियता से काम करने का फैसला किया है।वे कहते है, मायावती का मिशन दलितों व शोषितों को सम्मान और अधिकार दिलाना नहीं, बल्कि इनकी ताकत का दुरूपयोग करके सत्ता की सौदेबाजी करना रह गया है।

बसपा को छोड़कर किसने क्या पाया इस पर तो चर्चा होती ही रहती है,लेकिन अतीत से हटकर वर्तमान पर नजर दौड़ाई जाये तो  राजनीतिक पंडितों का यही  कहना है कि जिन दिग्गजों ने बसपा छोड़ थी वह 1990 से 2000 के दशक के नेता थे। यही वह दौर था जब बसपा शिखर की ओर अग्रसर थी। इसलिए चाहे किसी भी नेता का जितना भी दलित राजनीतिक आधार रहा हो, वह माया के औरा के आगे नहीं टिक सका,लेकिन अब सूरत-ए-हाल बदल चुका है।अगर ऐसा न होता तो बसपा सुप्रीमों मायावती को मौर्या के लिये दो-दो बार प्रेस कंाफ्र्रेस नहीं करनी पड़ती। पिछले चार वर्षो में बीएसपी के लिए हालात बहुत कुछ बदले हैं। विधानसभा से लोकसभा तक की हार ने माया के जिताऊ ही नहीं दलित वोट बैंक की मजबूती पर सवाल खड़े कर दिये हैं हैं। ऐसे में मौर्य के जाने से वोटों की जातीय गणित भले कम प्रभावित हो, लेकिन सियासी हौसले पर तो गहरा असर पड़ेगा ही।

लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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