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नक्सलवाद से कौन डरता है?

सलीम अख्तर सिद्दीक़ीआजकल नक्सलवाद की बहुत चर्चा है। सरकार नक्सलवाद से आर-पार की लड़ाई के मूड में नजर आ रही है। नक्सलवाद एक विचार है, शोषण और असामनता के खिलाफ। लेकिन क्या इस देश में केवल विचार से ही इंकलाब आ सकता है ? इस बात को बहुत बार दोहराया जा चुका है कि इस देश की बड़ी जनसंख्या मात्र पन्द्रह से बीस रुपए रोज की कमाई से अपना पेट भरने के लिए मजबूर है। अब कोई भी इस बात को आसानी से समझ सकता है कि कितनी बड़ी विषमता इस देश में आजादी के साठ साल भी मौजूद है। शोषण, अत्याचार और असमानता में जकड़े हुए लोग केवल विचार के बल पर अपना हक हासिल करें? कैसे इंकलाब लाएं? कभी दौर रहा होगा, जब केवल विचार से इंकलाब हो जाया करते होंगे। अब जब तक बमों के धमाके न किए जाएं तब तक सरकार तो क्या एक जिले का डीएम भी नहीं जागता। यहां हिंसा का समर्थन करना नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि देश की सत्तर फीसदी से भी ज्यादा जनता करे तो क्या करे? याद करिए वो पुराना जमाना, जब कोई नौजवान गांव के जमींदार के जुल्मों से तंग आकर बागी बनकर बीहड़ों में उतर जाया करता था।

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी

सलीम अख्तर सिद्दीक़ीआजकल नक्सलवाद की बहुत चर्चा है। सरकार नक्सलवाद से आर-पार की लड़ाई के मूड में नजर आ रही है। नक्सलवाद एक विचार है, शोषण और असामनता के खिलाफ। लेकिन क्या इस देश में केवल विचार से ही इंकलाब आ सकता है ? इस बात को बहुत बार दोहराया जा चुका है कि इस देश की बड़ी जनसंख्या मात्र पन्द्रह से बीस रुपए रोज की कमाई से अपना पेट भरने के लिए मजबूर है। अब कोई भी इस बात को आसानी से समझ सकता है कि कितनी बड़ी विषमता इस देश में आजादी के साठ साल भी मौजूद है। शोषण, अत्याचार और असमानता में जकड़े हुए लोग केवल विचार के बल पर अपना हक हासिल करें? कैसे इंकलाब लाएं? कभी दौर रहा होगा, जब केवल विचार से इंकलाब हो जाया करते होंगे। अब जब तक बमों के धमाके न किए जाएं तब तक सरकार तो क्या एक जिले का डीएम भी नहीं जागता। यहां हिंसा का समर्थन करना नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि देश की सत्तर फीसदी से भी ज्यादा जनता करे तो क्या करे? याद करिए वो पुराना जमाना, जब कोई नौजवान गांव के जमींदार के जुल्मों से तंग आकर बागी बनकर बीहड़ों में उतर जाया करता था।

उस बागी को उन सभी लोगों का समर्थन हासिल होता था, जो खुद शोषित तो होते थे, लेकिन उनमें बागी बनने की हिम्मत नहीं होती थी। इसी समर्थन के कारण बागी जल्दी से पुलिस की पकड़ में नहीं आता था। याद करिए सत्तर और अस्सी के दशक की फिल्मों का नायक, जो शोषण के खिलाफ विद्रोह करता था। अमिताभ बच्चन ने उसी दौर में लगभग एक नक्सली की बहुत से भूमिकाओं को अदा करके बुलंदियों को छुआ था। लेंकिन आज क्या है। आज अमिताभ बच्चन खुद एक दब्बू और डरपोक आदमी नजर आता है, जो राज ठाकरे और बाल ठाकरे की ड्योढी पर जाकर सिर नवाता है और माफी मांगता है। दरअसल, नक्सलवाद से अब अमिताभ बव्वन जैसों को ही डर लगता है।

नक्सलवाद तो बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के पिछड़े और आदिवासी इलाकों में है, लेकिन क्या हालात ऐसे नहीं बनते जा रहे हैं कि अब नक्सलवाद का विचार उन राज्यों और शहरों के लोगों को भी अच्छा लगने लगा है, जो साधन सम्पन्न कहलाते हैं। मैं वेस्ट यूपी के मेरठ से ताल्लुक रखता हूं। वेस्ट यूपी साधन सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है। शोषण, अत्याचार और असमानता देखने के लिए नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में जाने की जरुरत नहीं है। मेरठ में ही बहुत से इलाके हैं, जहां सरकार, नेता और पुलिस अपनी मनमानी करती है। उदहारण के लिए सस्ते गल्ले की दुकानों का सारा राशन ब्लैक में बिक जाता है, उस राशन को लेने का हकदार बस देखता रहता है। यदि किसी ने हिम्मत करके दुकानदार की शिकायत अधिकारियों से कर दी तो राशन की दुकान वाले का तो कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन शिकायतकर्ता की मुसीबत आ जाती है। उससे साफ कहा जाता है, हमसे पंगा लेना मंहगा पड़ेगा। प्राइवेट नर्सिंग होम लूट के अड्डों में तो सरकारी अस्पताल बूचड़खानों में तब्दील हो गए हैं। आजकल मेरठ में डेंगू, मलेरिया और वायरल का इतना जबरदस्त प्रकोप है कि कोई कालोनी कोई घर ऐसा नहीं है, जिसमें इन रोगों से ग्रस्त रोगी न हो। लोग चिल्ला रहे हैं। बुखार से रोज दो-तीन मौतें हो रही हैं। मीडिया भी लोगों की आवाज को सरकार तक पहुंचा रहा है। लेकिन मेरठ प्रशासन कानों में तेल डाले पड़ा है। अब ऐसे में जनता के सब्र का बांध टूट जाए तो क्या हो ? वेस्ट यूपी में ही  आए दिन आर्थिक तंगी, कर्ज और बीमार होने पर इलाज न होने पर आत्महत्या करने की खबरें छपती हैं। इन आत्महत्या करने वालों में कितने ही लोग ऐसे होंगे, जो मौजूदा सिस्टम से नाखुश होते होंगे। लेकिन उनमे इतनी ताकत नहीं होती कि वे कुछ कर सकें। इसलिए उन्हें मौत ही एकमात्र आसान रास्ता लगता है। लेकिन भविष्य में कुछ लोग ऐसे भी तो सामने आ सकते हैं, जो सिस्टम के खिलाफ उठ खड़े होने का हौसला रख सकते हैं। बस उनके बीच कोई कोबाड़ गांधी होना शर्त है।

नक्सलवाद को बलपूर्वक कुचलने की बात करने वाले यह क्यों नहीं सोच रहे कि नक्सलवाद को पनपाने में सरकार की भ्रष्ट नौकरशाही भी बराबर की जिम्मेदार है। जब झारखंड जैसे प्रदेश का मुख्यमंत्री केवल दो साल में चार हजार करोड़ रुपए की काली कमाई करेगा तो नक्सलवाद नहीं तो क्या रामराज्य पनपेगा ? सरकार की बंदूकें भ्रष्ट नौकरशाहों और नेताओं की तरफ क्यों नहीं उठतीं ? क्यों उनके गुनाहों को जांच दर जांच में उलझाकर भूला दिया जाता है ? दो जून की रोटी की मांग करने वालों के सीने में गोलियां उतारने की बात क्यों की जाती है ? ठीक है हिंसा नहीं होनी चाहिए। लेकिन सवाल फिर वही है कि इस देश में केवल आराम से मांगने वालों को क्या कभी कुछ मिला है ? याद रखिए अंग्रेजों ने भी इस देश को ऐसे ही अलविदा नहीं कह दिया था। नक्सलवाद से डरने वालों को पहले भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण और आर्थिक विषमता के खिलाफ भी तो मुहिम चलानी चाहिए।


लेखक सलीम अख्तर सिद्दीक़ी 170, मलियाना, मेरठ के रहने वाले हैं। उनसे संपर्क 09837279840 पर फोन करके या फिर उनकी मेल आईडी [email protected] पर मेल करके किया जा सकता है।

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