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महामानव नहीं हैं ओबामा

[caption id="attachment_2109" align="alignleft"]सलीम सिद्दीकीसलीम सिद्दीकी[/caption]जब जार्ज डब्ल्यू बुश अपने दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे थे, उस वक्त दुनिया भर के मुसलमानों और युद्व विरोधी संगठनों में उनके लिए भारी गुस्सा और नफरत थी। मुसलमानों ने अल्लाह से बुश को हराने की दुआएं मांगी थीं। लेकिन बुश जीते। तब कुछ लोगों ने व्यंग्य किया था कि अल्लाह बुश के साथ था, मुसलमानों के नहीं। लेकिन सच यह था कि अल्लाह मुसलमानों और मानवतावादी लोगों के साथ था। दरअसल, बुश को अल्लाह इस हालत में पुहंचाना चाहता था कि उनसे दुनिया के ही नहीं अमेरिका के लोग भी नफरत करने लगे। ऐसा हुआ भी।

सलीम सिद्दीकी

सलीम सिद्दीकीजब जार्ज डब्ल्यू बुश अपने दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे थे, उस वक्त दुनिया भर के मुसलमानों और युद्व विरोधी संगठनों में उनके लिए भारी गुस्सा और नफरत थी। मुसलमानों ने अल्लाह से बुश को हराने की दुआएं मांगी थीं। लेकिन बुश जीते। तब कुछ लोगों ने व्यंग्य किया था कि अल्लाह बुश के साथ था, मुसलमानों के नहीं। लेकिन सच यह था कि अल्लाह मुसलमानों और मानवतावादी लोगों के साथ था। दरअसल, बुश को अल्लाह इस हालत में पुहंचाना चाहता था कि उनसे दुनिया के ही नहीं अमेरिका के लोग भी नफरत करने लगे। ऐसा हुआ भी।

एक ताजा सर्वे के अनुसार 75 फीसदी अमेरिकियों ने जार्ज बुश की विदाई पर खुशी का इजहार किया है। जिस जिल्लत के साथ बुश की विदाई हुई है शायद किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की हुई हो। शायद हिटलर और इदी अमीन जैसे तानाशाह के बाद जार्ज बुश ऐसे लोकतांत्रिक राष्ट्रपति हुऐ हैं, जिनसे इतनी ज्यादा नफरत की गयी है।

यहां तक की उन्हें आखिरी लम्हों में इराक के एक पत्रकार के हाथों जूते भी खाने पड़ गए। जार्ज बुश का हश्र यही होना था। उन्होंने झूठ और फरेब के बल पर इराक को तबाह किया। वैसे भी दूसरे विश्व युद्व के बाद अमेरिका की भूमिका दमन की ही रही है। क्यूबा, कंबोडिया, वियतनाम, निकारगुआ, सूडान, सोमालिया, अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका ने किसी न किसी बहाने खून की होली खेली है। अमेरिका ने अब तक 40 देशों की सरकारों का तख्ता पलट किया है। 20 देशों पर हमला किया है। 30 लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुचलने में अहम भूमिका निभायी है।  25 देशों पर बम बरसाए है। दुनिया के लिए नफरत के प्रतीक बने अमेरिका के नए राष्ट्रपति के रुप में ओबामा हुसैन बराक के शपथ लेने पर पूरीओबामा दुनिया खुश है। मुसलमान इस बात को लेकर ही मगन हैं कि उनके नाम के बीच में ‘हुसैन’ आता है। हिन्दू इसलिए खुश हैं कि वे अपनी जेब में बजरंग बली की मूर्ति रखते हैं। दुनिया भर के अश्वेत लोगों को तो लगता है कि अब दुनिया से गोरों का वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। अमेरिकी इसलिए खुशी से नाच रहे हैं कि बुश ने अमेरिका को जिस आर्थिक मंदी की अंधी सुरंग में धकेल दिया है, उससे ओबामा निकाल लेंगे। उनके चुनाव अभियान से लेकर शपथ लेने तक उनके विचारों से तो लगता है उन्हें अमेरिका के साथ ही दुनिया की समस्याओं की सही समझ है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ओबामा लोगों की कसौटी पर खरा उतर सकेंगे ? यह भी हो सकता है कि ओबामा से अधिक अपेक्षाएं ही कहीं उनके राह का रोड़ा न बन जाएं।

ओबामा महामानव नहीं हैं, एक आम इंसान हैं। जार्ज बुश विरासत में इतनी समस्याएं छोड़ गए हैं कि उन्हें सही करने में समय लगेगा। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अमेरिका को आर्थिक मंदी की दलदल से बाहर निकालने की है। कोई कुछ भी कहे अमेरिका के आर्थिक बदहाली के पीछे इराक युद्व एक बड़ा कारण रहा है, जिसमें अब तक तीन करोड़ खरब डालर खर्च हो चुके हैं। ऐसे में ओबामा को इराक में फंसी अमेरिकी टांग को निकालने को प्राथमिकता देना जरुरी है। उन्होंने विभिन्न चरणों में इराक से अमेरिकी फौजों की वापसी की बात कही है, जो यह उम्मीद देती है कि इराक से अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद इराक में शांति स्थापित हो जाएगी। अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा का फिर से बढ़ता प्रभाव ओबामा के लिए सिरदर्दी है इसलिए फिलहाल ओबामा भी आतंक के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान को ही अपना स्वाभाविक मित्र बनाए रखेंगे।

उन्होंने इसराइल और फलस्तीन समस्या को जल्द ही निबटाने की बात कही है। लेकिन उनके शपथ लेने से दो दिन पहले तक इसराइल 1300 फलस्तीनियों की जान ले चुका था, जिनमें 40 प्रतिशत बच्चे और औरतें थीं। जब इसराइल ने गाजा पर बमबारी की थी तो इन्हीं ओबामा ने इसराइली कार्यवाई को यह कहकर जायज ठहराया था कि हर किसी को अपनी आत्मरक्षा का अधिकार है। ऐसे में यही लगता है कि इसराइल और फलस्तीन पर ओबामा की पॉलिसी भी वही रहने वाली है, जो जार्ज बुश समेत सभी अमेरिकी राष्ट्रपतियों की रही है। वैसे भी भयानक आर्थिक मंदी से जूझ रहे अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए उन अमेरिकी यहूदियों को नजरअंदाज करना मुश्किल होगा, जिनका अमेरिकी अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान है। सवाल यही है कि ऐसे में ओबामा कैसे इसराइल और फलस्तीन की समस्या को खत्म करेंगे ? जो लोग ओबामा के आने से फूले नहीं समा रहे हैं, वे इस मुगालते में न रहें कि अब शेर और मेमना एक घाट पर पानी पी सकेंगे। यह बात हमेशा याद रखी जानी चाहिए कि अमेरिका का राष्ट्रपति कोई भी हो, उसकी नीतियों में बहुत अधिक बदलाव कभी नहीं आता।


लेखक सलीम अख्तर सिद्दीक़ी 170, मलियाना, मेरठ के रहने वाले हैं। उनसे संपर्क 09837279840 पर फोन करके या फिर उनकी मेल आईडी [email protected] पर मेल करके किया जा सकता है।

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