प्रभाषजी के प्रयाण से लेकर 21 नवम्बर तक जितनी भी संगोष्ठियां, परिचर्चाएं और श्रद्धांजलि सभाएं हुईं, उनमें लगभग सभी ने यह स्वीकार कर लिया कि स्वतंत्रता के बाद की भारतीय पत्रकारिता में प्रभाषजी माउंट एवरेस्ट हैं. सभी ने एक-एक दिशा से एवरेस्ट की चढ़ाई की, विशालता और भव्यता का वर्णन किया. मैं उन समस्त वर्णनों का सम्मान करता हूं. लेकिन मेरा प्रयास है कि प्रभाषजी के एवरेस्ट शिखर की ओर उस दिशा से चढ़ने की पहल करूं जिस ओर किसी ने भी कोशिश नहीं की. प्रभाषजी के समग्र कृतित्व को यदि हम देखें तो सभी ने उनमें एक ज्ञान-वृद्ध स्वरूप को ही ढूंढा जबकि प्रभाषजी में हमेशा ही एक किशोर जीवित रहा जिसमें शैशव की मधुरता की झलक मिली तो चरम यौवन की संभावनाएं भी मिलीं. उन्हीं प्रभाषजी का जीवन मंत्र था– ‘चलते रहो’. उस यात्रा में प्रेरक शब्द थे– तेजयान, बलियान, महियान. वो प्रभाषजी खिलाड़ी थे जिनमें तेज, बल और महानता की असीम संभावनाएं थीं और जिसे उन्होंने कभी भी नष्ट नहीं होने दिया. उनके संस्मरणों के बिखरे मोतियों को एकत्र करने पर एक सात लड़ी का हार बन सकता है चाहे वो 1961 का ऐतिहासिक टाई टेस्ट रहा हो या सर डोनाल्ड ब्राडमेन से उनकी यादगार मुलाकात.
शोध परियोजना के अंतर्गत हिंदी पत्रकारिता के समुद्र मंथन का अदम्य साहस दिखाने वाले अच्युताजी (माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलाधिपति) ने इस हिमालय सरीखी कठिन परियोजना की संकल्पित यात्रा में निष्पक्ष होकर न केवल सहयात्री नियुक्त किया वरन मुझे हिंदी खेल पत्रकारिता के क्रमिक इतिहास को लिपिबद्ध करने का अवसर भी प्रदान किया. मेरे क्रीड़ावेद के मंत्रों का व्याख्याता प्रभाषजी के अलावा कोई और हो ही नहीं सकता था. दो समुद्रों के अधिकारी- सामान्य पत्रकारिता व खेल पत्रकारिता.
बात जुलाई 2005 की है. मैंने डरते-डरते प्रभाषजी को जब अपने इस कार्य के बारे में बताया और उनसे मार्गदर्शन का आग्रह किया तो उन्होंने न केवल स्वीकारोक्ति में मेरे सिर पर हाथ फेरा बल्कि झट से पुस्तक के लिए आमुख भी लिखवा दिया. हैरत में था मैं कि बिना किसी तैयारी के वो किसी रिकॉर्ड की तरह सुर में बजते ही चले गए. आमुख लिखवाने के बाद उन्होंने मुझे अंग्रेज कवि राबर्ट ब्राउनिंग की पंक्तियां सुनायीं और सदैव स्मरण रखने का आदेश भी दिया– ‘चलने के क्रम में अनेक बाधाएं आ सकती हैं, हताशा के क्षण भी आ सकते हैं, नैराश्य का प्रभाव हो सकता है पर वर्चस्वी उसमें भी जीवन को गतिशील पाता है, निराशा स्थाई नहीं है, मनुष्य उससे अपार बल समेट कर अन्धकार से जूझने के लिए खड़ा होता है’.
प्रभाषजी का ये गुरुमंत्र मेरे लिए प्रेरकशक्ति बन गया. उन्होंने पूरी प्लानिंग की और फिर उसी के मुताबिक मैं काम करता रहा और उन्हें दिखाता रहा. मैं अक्सर दिन में जाता था और जब भी कोई क्रिकेट मैच होता तो प्रभाषजी को मैंने टीवी के सामने उसी में डूबा पाया. साथ में होता था उनका नन्हा पोता माधव. फिर शुरू होता विश्लेषण, जिसको माधव भी पूरी तन्मयता से सुनता. प्रभाषजी ने ही बताया कि किस कदर पहला टेस्ट मैच कवर करने की ललक उनमें थी. प्रभाषजी आमुख में कहते हैं-
…..मैं पत्रकारिता में इसलिए नहीं आया कि खेल के जुनून में था और खेल पर इसलिए नहीं लिखता कि पत्रकारिता में हूं। यह दुर्घटना है कि मैं पुराना टेस्ट खिलाड़ी होने की बजाय रिटायर्ड संपादक हूं। पत्रकारिता में नहीं भी होता तो भी खेलों में मेरी रुचि इसी तरह आग-सी जलती रहती। जब मैं संपादक हो गया और 1976 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में एक टेस्ट हुआ, उसके पहले दिन की शुरुआत देखने के लिए मैं अपने दफ्तर से पास के ही कोटला ग्राउंड तक उत्तेजना में लगभग भागता हुआ गया। कार से जा सकता था, सीधे अपनी जगह पर जाकर बैठ सकता था लेकिन मैं दस बरस के उस उत्तेजित लड़के की तरह कूदता-फांदता गया, ठीक वैसे ही, जैसे लगभग चाली-पैंतालीस साल पहले अपने घर से यशवंत क्लब (इंदौर) गया था। शाम को लौटकर आया और अपने कमरे में कुरसी पर बैठा तो मुझे अचानक लगा कि अगर क्रिकेट का यह जुनून नहीं होता तो पचास पार मुझ जैसे संभ्रांत प्रतिष्ठित संपादक के दिल में दस बरस के उस बच्चे का दिल धड़कता न होता। अचानक मेरा मन क्रिकेट के प्रति कृतज्ञता से भर गया। यह खेल मुझे बूढ़ा नहीं होने देगा। किसी ने कहा है कि खेल चरित्र बनाने से ज्यादा चरित्र प्रकट करता है। मैं ईमानदारी से कह सकता हूं कि मुझे सदा जीवंत रहने वाला मनुष्य खेल ने ही बनाया और वही मेरे चरित्र के सत्व को प्रकट करता है….
…..सब कुछ खेल लेने और लीजेंड हो जाने के बाद बोरिस बेकर अपनी पत्नी को विंबलडन के सेंटर कोर्ट पर ले गए और वहां की घास दिखाकर कहा, ‘यह वह जगह है, जहां मैं जनमा हूं।’ बोरिस बेकर को आप-हम सब जानते हैं- जर्मनी के एक छोटे से गांव में जनमे हैं, अगर वह विंबलडन के सेंटर कोर्ट को अपना जन्म-स्थान बताते हैं तो वे वहां द्विज हुए थे- कुछ वैसे ही जैसे पोरबंदर में जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी पीटर्स मेरिसबर्ग के रेलवे प्लेटफार्म पर द्विज हुए थे। जब आप अपने को उत्पन्न करके अपना साक्षात्कार करते हैं, तब आपका असली जन्म होता है। पॉवर और पैसे के खेल में जन्मे और पनपे बोरिस बेकर को यह आत्म-साक्षात्कार विंबलडन में हुआ। कोई आश्चर्य नहीं कि जब एक अदभुत फाइनल में वे पीटर सैंप्रस से हारे तो मैच के बाद उन्होंने पीटर के कान में कहा, ‘मैं टेनिस से रिटायर हो रहा हूं’….
अपने जीवन की पहली क्रिकेट कवरेज की चर्चा करते-करते प्रभाषजी भावुक हो उठे थे…. 1961-62 की वो ऐतिहासिक सिरीज का टाई टेस्ट था. उन दिनों टीवी कौन कहे रेडियो भी हम जैसों के लिए सपना हुआ करता था. पड़ोस में सेना के एक अधिकारी रहते थे. उनके रेडियो के 14 मीटर बैंड पैर कमेंट्री आ रही थी. मैंने घर की दीवार पैर बैठ कर कमेंट्री सुनी और विवरण कागज पर नोट करता रहा. शाम को उसी आधार पर खबर बना दी….
ये थी एक खेल प्रेमी के भीतर की आग जो मृत्यु के समय किस कदर धधकी होगी जब सचिन के 175 की पारी खेलने के बावजूद भारत हार गया था. सचमुच, वीरगति को प्राप्त हुए प्रभाषजी. प्रभाषजी का खेल लेखन इसीलिए सर्वग्राही था. वो दिल से लिखते थे. वो पाठक के मन को पढ़ते थे और वैसे ही उसे कलम से उकेर देते थे. क्रिकेट या टेनिस, किसी पर भी उनका लेखन पाठक को गुदगुदाता था तो रुलाता भी था. वो आगे कहते हैं-
….मुझे खेल जो आनंद देता है, वह और किसी गतिविधि में नहीं मिलता. जिस इंदौर शहर में मैं पला-पनपा, वह होल्करों का शहर था, लेकिन इसके राजा यशवंतराव होल्कर नहीं, कोट्टरी कनकइया नायडू थे. वहां के लड़कों को जो प्रेरणा और इंदौर के होने का गर्व नायडू से मिलता था, वह और किसी से नहीं. मुझे बार-बार एडिलेड की वह सुबह याद आती है, जब क्रिकेट प्रशंसकों के निरुत्साहित किए जाने के बावजूद हम डॉन ब्रैडमन के घर गए. ब्रैडमन को मैंने कहा, ‘यदि आप तत्काल दरवाजा नहीं खोलते तो भी मैं उसके बाहर खड़ा रहता। बचपन के कितने दिन सीके नायडू की एक झलक देखने के लिए मैंने उनके बंगले के बाहर गुजारे। मैं जिस देश से आया हूं, वहां दर्शन करने वाले पट खुलने का इंतजार करते रहते हैं। जब पट खुलते हैं, तब दर्शन करके, जय बोलकर खुशी-खुशी अपने घर जाते हैं। मैं आपके दर्शन के लिए यह करता।’ डॉन ब्रैडमन को यह बात इस कदर छू गई कि वह सिनीसिज्म या सनकीपन, जिसके खिलाफ हमें लोगों ने आगाह किया था, कहीं दिखा नहीं। उन्होंने ललक कर मुझसे सचिन, गावस्कर और विजय मर्चेंट के बारे में पूछा। खुद दस्तखत करके दिए। बाहर निकले तो कहा, ‘कोई फोटो-वोटो नहीं खींचोगे?’ मेरे साथ अशोक कुमुट था। उसने फोटो खींचे और फिर अशोक कुमुट के मैंने। मुझे गर्व है कि खेल के प्रति दीवानगी थोड़ी-बहुत मेरे अंदर भी है। इस दीवानगी और खेल के इस आनंद और गौरव को व्यक्त करने के लिए मैं क्रिकेट, टेनिस और दूसरे खेलों पर लिखता हूं। यह अपने को बूढ़ा न होने देने और जवान बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका है। एक पैसे की दवा नहीं और रंग भी चोखा है….
हिंदी के खेल पत्रकारों को उनका समुचित स्थान न मिलने से प्रभाषजी काम व्यथित नहीं थे. वे कहते हैं- ….यह मेरे जीवन के प्रोफेशनल दुखों में सबसे बड़ा दुख है कि मेरी भाषा और मेरे क्षेत्र के लोग अपनी दीवानगी व्यक्त करने के लिए अखबारों और टीवी चैनलों पर वह जगह नहीं पाते, जो मुझ जैसे खेल का आदमी न होते हुए भी अपनी इतर पत्रकारीय हैसियत के कारण सहज पा गया। जब मैं पहली बार ऑस्ट्रेलिया में विश्व कप कवर करने गया तो जो सुख-सुविधाएं मुझे प्राप्त थीं, वे खेल के किसी भी तीसमार खां को प्राप्त नहीं थीं और उसमें सिर्फ हिंदी के पत्रकार नहीं, भारत के सभी खेल पत्रकारों की यही दुर्गति थी। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से लौटकर आया तो मुझे जगह-जगह लोगों ने कहा कि जो लोग अंग्रेजी में ही क्रिकेट की रपट पढ़ते थे, वे भी पहले हिंदी में लिखी मेरी रपट पढ़ते थे। मुझे इस पर फूलकर कुप्प हो जाना चाहिए था, मैं नहीं हुआ। क्योंकि मै जानता हूं कि अपनी भाषा में जितना असरकारक मैं और मेरे जैसा कोई भी हिंदी वाला लिख सकता है, सीखी हुई अंग्रेजी में नहीं लिख सकता। यह आपका- मेरा दुर्भाग्य है कि हमें उस दरबार में नीचे बैठाया जाता है, जहां का सिंहासन ‘अपना’ है। मेरी अंतिम इच्छाओं में से एक यह होगी कि मेरी भाषा का कोई पत्रकार एक दिन फिर उस सिंहासन को अपना बनाए और उस पर बैठकर लिखे। हुक्म की तरह नहीं, आनंद की, गौरव की और अपने को बर्फ की तरह गला देने की इच्छा से लिखे….
रविवार की शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुई श्रद्धांजलि सभा में प्रत्येक वर्ग का प्रतिनिधित्व था. सामान्य शोक सभा में शब्द मुखर होते हैं, पर इस शोक सभा में शब्द कुंठित थे. वाक-शक्ति विहीन, यानी कोई मूक जिस प्रकार सुस्वादु मिष्ठान्न को ग्रहण करने के पश्चात अभिव्यक्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार प्रभाषजी के रसवादी हतप्रभ थे. क्योंकि बोलना तब आसान हो जाता है जब ये पता हो कि कहां से शुरू करना है और कहां समाप्त करना है. इस मामले में प्रभाषजी निःसंदेह सुगम परिकल्पना के एक दुर्गम रहस्य हैं जीवितावस्था में जिन पर शोध होता रहा है, उनकी अनुपस्थिति में उनके बारे में विवेचन दो ही प्रकार के हो सकते हैं- पहला समकालिक और दूसरा चिरकालिक.
लेखक पदमपति शर्मा देश के जाने-माने खेल पत्रकार हैं.