भारतीय कानून के अनुसार जिन्हें ‘जंगल’ कहते हैं, सही मायनों में इनका यथार्थ के वन क्षेत्र से कोई मतलब नहीं है। कई क्षेत्र को वन क्षेत्र घोषित करते समय यह नहीं देखा गया कि इन क्षेत्रों में कौन रहता है, कितनी जमीन का वे उपयोग कर रहे हैं व वन भूमि का क्या उपयोग किया जा रहा है आदि। आज भी म.प्र. का लगभग 80 प्रतिशत वन क्षेत्र और देश के ज्यादातर राष्ट्रीय उद्यानों का सर्वेक्षण अपूर्ण है। भारत सरकार की टायगर टास्क फोर्स ने भी वन संरक्षण के नाम पर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया पर सवाल उठाये हैं। पिछली बार सन 2002 से वन भूमि को अतिक्रमण (जैसा सरकार कहती है) से मुक्त कराने की राष्ट्रीय मुहिम ने लगभग तीन लाख वनवासी परिवारों को (जो अपने जीवन यापन के लिए जंगल पर आश्रित हैं) बलपूर्वक बेदखल कर दिया और आज यह सब भुखमरी और अभावों के बीच अपना जीवन यापन कर रहे हैं। वनभूमि मुक्त कराने के नाम पर यह सब अपने घर में ही पराये हो गये। प्रताड़ना, बंधुआ मजदूरी, यौन उत्पीड़न आदि इनकी नियति है। स्थिति विकट है। अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयुक्त ने अपनी 29वीं रिपोर्ट में कहा है कि वनभूमि में निवास करने वाली जनजातियों का अपराधीकरण की ओर बढ़ाना, भारत की साक्षरता और मौलिक अधिकार बचाने जैसे मुहिम पर बदनुमा धब्बा है।
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है क्यों उन लोगों के अधिकार संरक्षित नहीं रखे गये जो पीढ़ियों से वनों में निवास करते हैं र्षोर्षो इस सब की जड़ में भारतीय वन अधिनियम 1927 है, जो अंग्रेजों ने अपने वन उपयोग एवं लकड़ी की उपलब्धता के लिए बनाया था। इसका सही मायनों में वन संरक्षण या वन में निवास करने वालों के हितों से कोई लेना-देना नहीं है। इस नियम में जंगलों को सरकारी संपत्ति घोषित कर एक अधिकारी नियुक्त कर दिया गया था व उसने सिर्फ सशक्त जाति के लोगों के अधिकारों को जिंदा रखा व कमजोर जातियों को जीते जी मार दिया। लगभग ऐसा ही कुछ वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 में है।
लेकिन शायद सरकार को वनवासियों की चिंता है इसलिए नए वन कानून में मुख्यता: दो तथ्यों को ध्यान में रखा है :-
परंपरागत रूप से वन में निवास करने वाली जातियों के अधिकारों को वैधानिक मान्यता देते हुए पूर्व में हुए अधिकारों के हनन में सुधार करना।
इन वनवासियों को जंगल एवं वन्य जीव संरक्षण की योजना में बराबरी से सम्मिलित करना।
इस नए कानून में जिन्हें यह अधिकार मिलेगा उन्हें वन का मूल निवासी होना अनिवार्य है व साथ-साथ उनका जीवन यापन वन एवं वनभूमि पर यथार्थ में निर्भर होना चाहिए, जिसमें ठेकेदार, लकड़ी के व्यापारी आदि शामिल नहीं हैं। इसका अभिप्राय यह है कि आप सही मायनों में मूल रूप से वन निवासी हों।
इन नियम में मुख्यत: तीन प्रकार के अधिकार हैं –
13 दिसंबर 2005 की अवधि तक आप वनभूमि में जितनी जमीन पर खेती कर रहे हैं, उसमें से अधिकतम 4 हेक्टेयर तक भूमि का पंजीयन आपके पक्ष में हो जाएगा। उदाहरण के लिए यदि आप 1 हेक्टेयर पर खेती कर रहे थे तो 1 हेक्टेयर, 5 हेक्टेयर पर कर रहे थे तो 4 हेक्टेयर और यदि कुछ भी भूमि नहीं है तो कुछ नहीं है। इसके साथ-साथ जिनके पास पट्टा या शासन की लीज़ है व जिनकी भूमि को वन विभाग या राजस्व विभाग ने गैरकानूनी रूप से अधिग्रहित कर लिया है, वे भी अपना दावा प्रस्तुत कर सकते हैं। इसमें महत्वपूर्ण यह है कि गैर-आदिवासी समुदाय के लोग भी दावा कर सकते हैं बशर्ते वह पिछले 75 वषोंZ से इस भूमि पर कब्जा रखते हों व खेती आदि कर रहे हों व वन क्षेत्र के निवासी हों।
इसके साथ-साथ वनवासी छोटी वन उपज जैसे तेंदूपत्ता, जड़ी-बूटियां, औषधीय वनस्पतियां आदि ले जा सकते हैं, जो कि वह परंपरागत रूप से एकत्रित करते आ रहे हैं।
पहली बार इस अधिनियम में वन में निवासरत् जनजातियों को वन संरक्षण एवं प्रबंधन का अधिकार प्राप्त हुआ है। इसके प्रावधानों के अनुरूप इन जनजातियों को वन संसाधनों के उपयोग एवं संरक्षण का अधिकार है।
यह उन सब लाखों परिवारों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जो अपने वन एवं वन्यजीवन को जंगल माफिया, उद्योगपति और अतिक्रमणकारियों से बचाने के लिए बिना अधिकारों के संघर्ष कर रहे थे। इस दावे की प्रक्रिया में तीन चरण हैं, पहली अनुशंसा ग्राम सभा को करनी है कि कौन खेती कर रहा है व कौन जड़ी-बूटियां व औषधी आदि एकत्रित कर रहा है। ग्राम सभा की अनुशंसा की पड़ताल तहसील व जिला स्तर की समिति करेंगी। और अंत में जिला स्तर की छह सदस्यीय समिति अंतिम निर्णय करेगी जिसमें तीन सरकारी अधिकारी एवं तीन निर्वाचित सदस्य होगे। तहसील व जिला स्तर पर ग्राम सभा के द्वारा की गयी अनुशंसा के विरोध में यदि कोई आम आदमी जिला स्तर पर अपील करता है एवं उसके द्वारा लगाये गये आरोप तथ्यों सहित सही पाए जाते हैं तो जमीन पर दावा पाने वाले का आवेदन खारिज कर दिया जावेगा।
लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या सही मायनों में आदिवासी व गैर-आदिवासी वन भूमि पर अपना स्वामित्व पा सकेंगे या भ्रष्ट अधिकारी एवं व्यापारी इस कानून में भी सेंध लगाने का रास्ता खोज लेंगे, क्योंकि इस कानून के विरोध में इस तरह की बातें कि, जंगल खत्म हो जाएंगे, जमीने हड़प ली जाएंगी, वन व वन्य जीव विशेष रूप से शेर का संरक्षण कठिन हो जाएगा आदि भ्रामक तथ्यों के रूप में प्रचारित की जा रही हैं।
लेखक पंकज चतुर्वेदी पर्यावरण एनजीओ एनडी सेंटर फार सोशल डेवलपमेंट एवं रिसर्च के अध्यक्ष हैं.