परसाई जी अपने गुरु हैं। ये बात और है कि अपन कभी भी उनके शिष्य नहीं रहे। यूँ भी आदिकाल से गुणीजनों को जबरन गुरु बना लेने की परम्परा का उल्लेख अपने यहाँ विविध शास्त्रों में मिलता है। गुणीजन भी उदारता बरतते हुए इस परम्परा में हस्तक्षेप नहीं करते थे, जब तक कि मामला दक्षिणा वसूलने तक न पहुँच जाए। गुरुकुल में प्रवेश के लिए राजाओं, मंत्रियों और सामन्तों के होनहार बालकों को कड़ी परीक्षा देनी पड़ती थी और डोनेशन वगैरह देकर ही वे शिष्य की पात्रता हासिल कर पाते थे।
शिष्य बनना बहुत कठिन है और शिष्य-धर्म का निर्वाह इससे भी ज्यादा। एक प्रचलित कथा के अनुरूप गुरूजी प्री-एडमिशन टेस्ट में शिष्य पद के प्रत्याशी को शिष्य -धर्म के निर्वाह के बारे में समझा रहे थे कि यह कितना कठिन कार्य होता है। अध्ययन करना होता है, चिंतन-मनन करना होता है, श्रम करना होता है, जीविका जुटानी होती है, परीक्षा देनी होती है, गुरु की सेवा करनी होती है-आदि। शिष्य घबरा गया। कहा, ‘ शिष्य धर्म का निर्वाह इतना कठिन है तो मुझे गुरु ही बना लें!’
कथा सुनकर परसाई जी हँस पड़े और मुझे प्रश्न पूछने की इज़ाज़त दे दी। उनसे हुई बातचीत के संपादित अंश इस प्रकार हैं:
मौजूदा सरकार के दो साल गुजर जाने को आप किस तरह देखते हैं?
एक ही बात हुई है और वही सबसे महत्वपूर्ण है। राजनैतिक शक्तियों का बँटवारा पहली बार सिद्धांतों के आधार पर हुआ है। यह पहले होना था। राजनीति सीधी दो खेमों में बँट गयी है-एक खेमा है, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का और दूसरा है, संप्रदायवाद और फासिस्टवाद का। बिल्कुल साफ़ बंटवारा है। हर सोचने-समझने वाले आदमी को अब पक्ष ले लेना होगा। तटस्थ कोई हो नहीं सकता।
खाद्यान्न की कीमतें आसमान छू रही हैं। विरोधियों का कहना है कि सरकार महंगाई पर नियंत्रण नहीं रख पा रही है। बुन्देलखण्ड में लोग भूख से मर रहे हैं।
अब इस समस्या का हल निकल आया है। गुजरात में एक जड़ी खोजी गयी है, जिसे खाने से हफ़्तों भूख नहीं लगती। पता लगाया है कि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि इसी को खाकर भूख को तुष्ट करते थे और तपस्या करते थे। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने सारे भूखों के दमन की शिक्षा दी थी। भूख का दमन करते थे, तो खाद्य-समस्या पैदा नहीं होती थी। वल्कल पहिनते थे तो कपड़े की समस्या नहीं उठती थी। यौन-भूख का दमन करते थे, तो शादी की समस्या पैदा नहीं होती थी। अब हम खाना भी चाहते हैं, कपड़े भी पहिनना चाहते हैं। इसलिए अनाज की समस्या भी पैदा होती है और कपड़े की भी।
अब सारी केंद्र और राज्य सरकारें कीमतों पर नियंत्रण करने की जिम्मेदारी से मुक्त हो सकती हैं।कोई जरूरत नहीं है कि सरकार अनाज का व्यापार अपने हाथ में ले।आगामी मुख्यमंत्री सम्मेलन में यह तय करना चाहिए कि हर राज्य की जमीन में इस भूख-हरण बूटी को खोजा जाय। तमाम जंगलों में साधु, फकीर और गुनिया को भेजकर इस बूटी का पता लगाना चाहिये। इसके लिए हर राज्य में एक अलग ‘भूख – हरण बूटी विभाग’ खोल लिया जाय और एक अलग ‘भूख -हरण मंत्री’ हो। यह विभाग अपने राज्य की सारी जड़ी-बूटी इकठ्ठी कर ले।
यौन-भूख के दमन की बात आपने कही। योगी आदित्य नाथ तो बच्चे पैदा करने के लिए पोर्न देखने की सलाह दे रहे हैं।
कांग्रेस ने कहा था-पहला बच्चा अभी नहीं, दो के बाद कभी नहीं। मगर जनसंघ का नारा है- पहला बच्चा अभी-अभी, दो के बाद कभी-कभी। पहला बच्चा अभी पैदा कर लो। देरी मत करो। फिर दो के बाद कभी-कभी पैदा करो। इस तरह 7-8 तो कर ही लो। माँ और बेटी एक साथ बच्चा दें, यह आदर्श स्थिति है।ज्यादा बच्चे पैदा करने के पीछे एक ठोस तर्क है- हम हिन्दुओं की संख्या बढ़ानी है।
ये 7-8 बच्चे जो होंगे वे क्या होंगे? भूखे मरेंगे, पूरे कपड़े नहीं होंगे। शिक्षा नहीं होगी। ये हिन्दू नहीं, नाली के बिलबिलाते कीड़े होंगे। ऐसे मनुष्यनुमा कीड़ों से ही कोई जाति ताकतवर और श्रेष्ठ होती है? इसलिए ऐसी आदर्श जाति भाई पैदा करते जाओ!
डॉ. स्वामी ने कहा है कि वे वित्त मंत्री होते तो एक दिन में काला धन ले आते।
कहा जाता है – ताल में भोपाल ताल और सब तलैया। इसी तरह स्वामियों में डॉ. स्वामी। ये जनसंघ के अर्थशास्त्री हैं। योगी, स्वामी वगैरह इस देश में बहुत हैं। इन दिनों से ये विदेशी मुद्रा कमाने के लिए अच्छी जिन्स हो गए हैं। मगर इन सबके ऊपर हैं हमारे ये बिना दाढ़ी- केश के पैदायशी स्वामी।जब बोलते हैं, अमृत झरता है।इतना प्यारा ऊल-जलूलपन, इतना खूबसूरत उचक्कापन, इतनी मोहक गैर-जिम्मेदारी कम मिलती है। बड़ा आत्मविश्वासी आदमी है यह। आत्मविश्वास कई तरह का होता है- धन का, बल का, बुद्धि का। मगर सबसे ऊँचा आत्मविश्वास मूर्खता का होता है।
अन्ना हजारे ने अपने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में कारपोरेट भ्रष्टाचार का सवाल नहीं उठाया था। इस आंदोलन का लाभ उठाकर सता में आयी सरकार सरमायेदारों के हाथों खेल रही है। करप्शन और कॉरपोरेट के अन्तर्सम्बन्धों को आप किस तरह देखते हैं?
जब कोई चीज खूब हो जाती है, तब सरकार का काम है उसे नियमित करना, जिससे सबको उसका लाभ मिल सके। गेंहूँ की फसल आती है तो सरकार उसके वितरण को नियमित करती है, जिससे सबको गेंहूँ मिल सके। शक्कर के वितरण की भी नियमित व्यवस्था है। इसी तरह भ्रष्टाचार भी हमारी जनता के उपयोग के लिए देश में काफी पैदा होता है, पर नियमित वितरण न होने के कारण जनता के एक बड़े भाग को उसका लाभ नहीं मिल पाता।
भ्रष्टाचार को रोकना उसी तरह है जैसे गेंहूँ की फसल को नष्ट करना।इसे रोकने का इरादा ही गलत है।वास्तव में उसे सुनियोजित कर लेना चाहिए। व्यवसायी और उद्योगपति वर्ग से इसमें काफी सहयोग मिल सकता है। सरकार के विभिन्न मंत्रालय नीलाम हो जाने चाहिए। जो सबसे बड़ी बोली लगाए, उसी का काम वह मंत्रालय करे। जब अर्थ, तेल, वाणिज्य, निर्यात, उद्योग, बिजली आदि महकमे नीलाम हो जाएंगे तो सारा काम एक सुनियोजित ढंग से चलेगा। जो उद्योगपति उद्योग विभाग खरीद लेगा, उसी के उद्योग चलेंगे। दूसरे उद्योगपतियों से वह खुद महसूल लेकर उन्हें कारखाने खोलने देगा।
डिसक्लेमर – यह बातचीत उसी तकनीक से रिकॉर्ड की गयी है, जो दिमाग में केमिकल लोचा उत्पन्न हो जाने की वजह से विकसित होती है।
लेखक Dinesh Choudhary से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.