दाल से निकली मक्खी को बाहर कर पूरा खाना खाया प्रभाष जी ने : मूर्घन्य पत्रकार प्रभाष जोशी चले गए। सुबह अखबार में एक टुकड़े में इस खबर को पढ़ा, आघात पहुंचा। मैं उनका करीबी नहीं था। कुल जमा एक मुलाकात। भोपाल में। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में 1996 में मैं लोकमत के स्पान्सर्ड कैंडिडेट के रूप में पत्रकारिता एवं जनसंचार की पढ़ाई कर रहा था। उस दिन जोशी जी कांर्फेंस रूम में दहाड़ रहे थे… गुंडागर्दी करेंगे तो आप लोग बन गए पत्रकार… मैं आपमें से किसी को नौकरी नहीं दूंगा….जनसत्ता में आप लोगों के लिए दरवाजे बंद समझो… यह दरवाजा तभी खुलेगा, जब आप लोग अपन के सामने, अभी यहीं अरविंद जी से माफी मांगे…वह गुस्से में कांप रहे थे। टीवी पर या अखबारों में उनकी तस्वीर जैसी अमूमन छपती थी, उससे सर्वथा पृथक। हम लोग सहम गए थे। कारण भी था। देश का सबसे बड़ा और ईमानदार पत्रकार हम लोगों को डांट पिला रहा था। थोड़ा फ्लैश वैक में। मध्यप्रदेश विधानसभा ने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय की शुरुआत की।
श्री अरविंद चतुर्वेदी उसके महानिदेशक (डीजी) बने। श्री चतुर्वेदी के पुराने मित्रों में प्रभाष जोशी भी थे। माखनलाल में बखेड़ा यूं शुरू हुआ कि माखनलाल चतुर्वेदी समेत मध्यप्रदेश के सीनियर जर्नलिस्टों के संबंध में जो किताबें विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में थीं, उन्हे पूर्ववर्ती छात्र लौटा नहीं रहे थे। किसी ने गुमा दिया था तो किसी ने बेच कर चाट-पकौड़ी खा ली। अब सिलेबस में उन हस्तियों के बारे में था। बिना पढ़े कोई लिखे तो कैसे और क्या लिखे? लिहाजा, हम लोगों ने डीजी से पुस्तक खरीदने की बात कही। उन्होंने बात मान ली। पैसे आ गए। पुस्तकें नहीं खरीदी गईं। उसी पर आंदोलन हुआ। कक्षाएं नहीं लगती थीं। अराजकता का माहौल हो गया था। यह बात तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह तक पहुंची।
तय किया गया कि बैठ कर मामले का निपटारा कर लिया जाए। मध्यस्थ की भूमिका के लिए प्रभाष जी को बुलाया गया। जो माखनलाल में हुआ था, उसके ठीक उलट सारी बातें उन्हें बताई गईं थीं। खैर, प्रभाष जी को जो कहना था, उन्होंने कहा। जब बात समाप्त हो गई तो हिम्मत जुटा कर मैने कहा श्रीमान, ढाई बज रहे है। भोजन का वक्त हो चला है। हम लोगों की इच्छा है कि जो भोजन कैंटीन में बहादुर बनाता है आज वही भोजन हम लड़कों के साथ प्रभाष जी करें। प्रभाष जी तैयारी हो गए। अरविंद जी उन्हें रोकते रहे पर वह छह फीट का शरीर लेकर हमारी ओर लपके। हम लोग कैंटीन में गए। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। बहादुर खाना लेकर आया। तोरी की सब्जी, सोयाबीन की सब्जी और दाल-चपाती, चावल। खाने की मेज पर ज्योंही जोशी जी ने पहला कौर (निवाला) बनाया, उसमें मरी हुई मक्खी निकली। आपे से बाहर। हमारे एक साथी ने टिप्पणी कर दी… यही भोजन हम लोग रोज करते है सर…मोटी ऐनक से हम लोगों ने कुछ बूंद बाहर निकलते देखा…प्रभाष जी की आंखे नम थीं। रूमाल से आंखें पोंछी और शेष खाना चुपचाप खा गए।
वही प्रभाष जोशी नहीं रहे। दिल द्रवित है। दिमाग सुन्न। अब कौन लिखेगा कागद कारे?
लेखक आनंद सिंह दैनिक हिंदुस्तान, वाराणसी में कार्यरत हैं