भारत हैदराबाद मैच हार चुका था। वसुंधरा फोन किया और तबीयत पूछी तो बोले- ‘मैच का क्या हुआ यार’। आवाज में उत्साह व हड़बड़ी दोनों थे। मैनें कहा, मैच तो हार गए पर आप कैसे हो। जवाब पाता, उससे पहले मम्मी बोलीं- जल्दी आ, पापा बेहोश हो गए हैं। पहुंचा तब उन्हें गाड़ी में लिटाया जा रहा था। लगा, देर हो गई। कोशिश की दिल के आसपास झटके दे कर। फिर तेज रफ्तार से नरेंद्र मोहन अस्पताल पहुंचे। पर देर सचमुच हो गई थी। डाक्टर ने पूछा, पेस मेकर निकाल लें या रहने दें। हिम्मत हारने के लिए मेरे लिए इतना काफी था।
डाक्टर दवे को फोन किया। उन्होंने अस्पताल के डाक्टर से बात करने के बाद कहा, ‘लगता है पेसमेकर जवाब दे गया, शायद एक्साइटमेंट ज्यादा होगा’। सचिन की शानदार पेस भरी पारी ने इतना उत्साहित किया कि उसने पापा का पेसमेकर फेल कर दिया। सचिन के आउट होते ही पापा मैच छोड़ कर कमरे में चले गए थे। भारत हारा या जीता, इससे उन्हें जैसे कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। वे उस रोमांचक पारी को संजोए खुद आखिरी सांसें गिन रहे थे। वे फिर नहीं बोले। और अब कभी नहीं बोलेंगे।
ऐसा पहले भी कई बार हुआ। पर या तो तब आसपास बच्चों के कारण या किसी से बात करते रहने के कारण उत्साह चरम तक नहीं गया। पांच नवंबर को गया और उनका पेसमेकर जवाब दे गया। प्रभाष जोशी को आप सब संपादक और बौद्धिक के रूप में जानते थे। पापा बहुत घरेलू और अत्यंत पारिवारिक व्यक्ति थे। हम सब को, जो करना चाहें, करने की आजादी व सहयोग देते थे। परिवार में जो होता या किया जाता था, वह उनके आगे रहने के कारण ही होता था। त्योहार मनाना हो या जन्मदिन उनको कोई तारीख नहीं भूलती थी। वे हम सब से बात करके अगले उत्सव की तैयारी करते। लगातार उत्सव मनाना उन्हें प्रिय था। वे एक उत्सव के बाद अगले उत्सव में रम जाते। पर वे थे तो हमारे उत्सव थे।
पापा की समय सारणी अक्सर लोगों को और जब-तब हमें भयभीत करती थी। तह लगाकर धोती पहनने में उन्हें जो समय लगता था, हमें हैरान करता था। लेकिन वे उस घड़ी अपनी संध्या या होमवर्क में मस्त होते थे। ‘हिंद स्वराज’ पर अगले भाषण की तैयारी हो या अगला ‘कागद कारे’ या भारत के मैच में अब क्या होगा, सब चिंतन धोती पहनते समय ही होता था। उस समय उनकी एकाग्रता गजब की होती। देखने वाला सोच सकता था कि कितना समय बरबाद करते हैं। धोती की एक एक तह बहुत सलीके और ध्यान से लगाई जाती और संध्या-मनन चलता रहता। उनके सोचने और मनन करने की यह शैली मुझे बहुत देर से समझ में आई।
दुख उनके जल्दी या अकस्मात जाने का नहीं है। जाना तो हम सबको है। और अगर पापा अकस्मात न जाते तो उन्हें कौन जाने ही देता। लेकिन दुख उनके अधूरे रह गए काम को ले कर है। उन्हें तीन किताबें लिखनी थी। ‘हिंद स्वराज की शताब्दी’ पर, पिता-पुत्र रिश्ते पर जो कुमारजी और विष्णु चिंचालकर और उनके वंश पर होती। और एक किताब रामनाथ गोयनका के जीवन पर।
उन्हें माधव के बड़ा हो कर शायद क्रिकेटर बनने की या इस तरह की अनेक चाह रही होगी। सब की चाह पूरी नहीं होती। उनके रहते उनकी भी नहीं हुई। शायद उनके चालीस साल पुराने अंग्रेज मित्र केविन रेफर्टी की भी नहीं, जो पापा के सामने करवटें ले चुके देश पर ‘प्रभाष जोशी एंड हिज इंडिया’ नाम से संस्मरणात्मक किताब लिखने की तैयारी में थे।
अब आप कागद कारे होते नहीं पढ़ पाएंगें। हम भी उनको अपने साथ नहीं पाएंगें। जो शेष रहेंगी वे यादें भर होंगीं।
आष्टा में जन्म से शुरू हुई उनकी पारी शनिवार को बड़वाह में नर्मदा के किनारे विसर्जित हो गई।
हम उनके बिना अपना संसार आपके आशीर्वाद से चलाने की कोशिश करेंगे। आप सभी का आभार।
(लेखक संदीप जोशी स्वर्गीय प्रभाष जोशी के सुपुत्र हैं)
साभार : जनसत्ता