Connect with us

Hi, what are you looking for?

मीडिया मंथन

प्रभाष जी की आत्मीयता गजब की थी

विनय बिहारी सिंहप्रभाष जोशी हमारी ताकत थे। सन १९९१ की बात है। लेकिन इस प्रसंग पर बाद में आऊंगा, पहले उनकी आत्मीयता के बारे में बताना जरूरी लगा। तब उनके हृदय की बाईपास सर्जरी हुई थी। वे मेरे प्रधान संपादक थे। मैं  किसी काम से दिल्ली गया और उनसे मिलने पहुंच गया। मेरे मित्र और तब दी टेलीग्राफ में सीनियर फोटोग्राफर जगदीश यादव ने अपनी कार से मुझे उनके घर पहुंचा दिया। आपरेशन के बाद प्रभाष जी ज्योंही घर आए, जनसत्ता में अपना स्तंभ कागद कारे लिखवाया। वे बिस्तर पर लेट हुए थे।  मैंने कहा- आपरेशन के बावजूद आपने कागद कारे लिखना बंद नहीं किया। तो वे हंस कर बोले- लिखने से आराम मिलता है। मैं लिखूं नहीं तो और क्या करूं। फिर उन्होंने अपना कुर्ता ऊपर उठाया और छाती में जहां आपरेशन का चीरा लगा था उसे दिखाते हुए बोले- यहीं चीर कर आपरेशन हुआ।  उनकी आत्मीयता में इतनी स्निग्धता थी कि मन हुआ चीरे के आसपास हल्का सा छू कर देखूं। लेकिन फिर सोचा कहीं मेरे हाथ से इंफेक्शन न हो जाए।

विनय बिहारी सिंह

विनय बिहारी सिंहप्रभाष जोशी हमारी ताकत थे। सन १९९१ की बात है। लेकिन इस प्रसंग पर बाद में आऊंगा, पहले उनकी आत्मीयता के बारे में बताना जरूरी लगा। तब उनके हृदय की बाईपास सर्जरी हुई थी। वे मेरे प्रधान संपादक थे। मैं  किसी काम से दिल्ली गया और उनसे मिलने पहुंच गया। मेरे मित्र और तब दी टेलीग्राफ में सीनियर फोटोग्राफर जगदीश यादव ने अपनी कार से मुझे उनके घर पहुंचा दिया। आपरेशन के बाद प्रभाष जी ज्योंही घर आए, जनसत्ता में अपना स्तंभ कागद कारे लिखवाया। वे बिस्तर पर लेट हुए थे।  मैंने कहा- आपरेशन के बावजूद आपने कागद कारे लिखना बंद नहीं किया। तो वे हंस कर बोले- लिखने से आराम मिलता है। मैं लिखूं नहीं तो और क्या करूं। फिर उन्होंने अपना कुर्ता ऊपर उठाया और छाती में जहां आपरेशन का चीरा लगा था उसे दिखाते हुए बोले- यहीं चीर कर आपरेशन हुआ।  उनकी आत्मीयता में इतनी स्निग्धता थी कि मन हुआ चीरे के आसपास हल्का सा छू कर देखूं। लेकिन फिर सोचा कहीं मेरे हाथ से इंफेक्शन न हो जाए।

उन्होंने कोलकाता दफ्तर के सभी साथियों का हालचाल पूछा। आत्मीयता के साथ  जलपान कराया। फिर जाने दिया। अब नियुक्ति पत्र वाली बात। इंटरव्यू में जब उन्होंने हाथ मिलाते हुए कहा कि मैं चुन लिया गया हूं तो आफर लेटर देने के लिए उन्होंने जनसत्ता के दफ्तर में बुलाया। करीब ३५  लोगों को उन्होंने अपने हाथ से ही लिख कर आफर लेटर दिया। वे चाहते तो आफर लेटर का मजमून लिख कर टाइपिस्ट को दे देते और वह उतनी प्रतियां टाइप करके दे देता। उन्हें सिर्फ दस्तखत करने होते। लेकिन नहीं- सब को बारी बारी से बुला कर। बातचीत करने के बाद  उन्होंने अपने हाथ से आफर लेटर लिखा। आज कौन प्रधान संपादक इतनी तन्मयता से अपने स्टाफ को हाथ से लिख कर आफर लेटर देता है?

जब कोलकाता से जनसत्ता छपना शुरू हो गया तो वे पेज कैसे बन रहे हैं, देख रहे थे। तब कंप्यूटर पर पेज नहीं बनते थे। छपे हुए ब्रोमाइड को ही अखबार की शीट पर चिपका कर पेज बनाया जाता था।  वे हमसे जानकारी ले रहे थे कि हमें पेज किस तरह बनवाने में सुविधा होती है।  तभी एक ऊंची कुर्सी पर बैठे अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्ति का फोन आया। अपरिहार्य कारणों से मैं उस व्यक्ति का नाम नहीं लिख रहा हूं।  प्रभाष जी ने अपने पास दौड़े आए आपरेटर से कहा- मैं अभी बात नहीं करूंगा। उनसे कह दो, वे बाद में फोन करें। हम तो हैरान रह गए। लेकिन ऐसी ही अनेक घटनाओं से उन्होंने हमें सिखाया कि काम मनोयोग और गहरी तन्यमयता से करना चाहिए। जब वे कलकत्ता आते थे तो हम लोगों के साथ मीटिंग करते। हम भारी उत्सुकता से इस क्षण की प्रतीक्षा करते।

उनकी मीटिंगों में कभी भी अति गंभीरता नहीं होती थी औऱ न ही तनाव। वे हमें सहज रखने के लिए शुरूआत ही किसी हंसी वाली बात से करते थे। या जलपान आया तो जलपान को लेकर ही कोई हंसी वाली बात कह दी। फिर वे हमें कुछ निर्देश देते। लेकिन उनके निर्देश देने का तरीका इतना सहज और प्रभावी होता था कि वह हमारे जेहन में बैठ जाता था। उन्हें जब लगता कि मीटिंग गंभीर हो रही है, वे कोई बात कह कर हमें हंसा देते थे। ऐसी बैठकें हमें समृद्ध करती थीं। उनके पास राजनीति ही नहीं, हर क्षेत्र की भीतरी गतिविधियों की जानकारी होती थी। वे अकूत ज्ञान के भंडार थे। इसी लालच में हम चाहते थे कि वे बार- बार कलकत्ता आएं और हमारे साथ मीटिंग करें। कलकत्ता आते तो कभी-कभी, हम लोगों के साथ बैठ कर किसी होटल में भोजन करते थे। हां, वे पत्रकारिता के युग पुरुष थे। वे हमें हमेशा कहते थे- किसी से डरना नहीं। जो सच लगे, वही लिखना। एक बार वे कलकत्ता आए और दफ्तर नहीं आ सके। उन्होंने फोन किया।  मैं जब लेख लेने पहुंचा तो उन्होंने उसी आत्मीयता के अंदाज में कहा- औऱ कहो पंडित विनय बिहारी सिंह, क्या चल रहा है? वे मुझे ही नहीं सभी साथियों को पंडित कहते थे। उन्हें कागद कारे देना था। उसे यहीं से कंपोज करके दिल्ली भिजवाया गया।

 

लेखक विनय बिहारी सिंह कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

 

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You May Also Like

मेरी भी सुनो

अपनी बातें दूसरों तक पहुंचाने के लिए पहले रेडियो, अखबार और टीवी एक बड़ा माध्यम था। फिर इंटरनेट आया और धीरे-धीरे उसने जबर्दस्त लोकप्रियता...

साहित्य जगत

पूरी सभा स्‍तब्‍ध। मामला ही ऐसा था। शास्‍त्रार्थ के इतिहास में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी प्रश्‍नकर्ता के साथ ऐसा अपमानजनक व्‍यवहार...

मेरी भी सुनो

सीमा पर तैनात बीएसएफ जवान तेज बहादुर यादव ने घटिया खाने और असुविधाओं का मुद्दा तो उठाया ही, मीडिया की अकर्मण्यता पर भी निशाना...

समाज-सरोकार

रूपेश कुमार सिंहस्वतंत्र पत्रकार झारखंड के बोकारो जिला स्थित बोकारो इस्पात संयंत्र भारत के सार्वजनिक क्षेत्र का इस्पात संयंत्र है। यह संयंत्र भारत के...

Advertisement