प्रभाष जी के बारे में पिछले कई घंटों से कुछ लिखने की कोशिश कर रहा हूँ. तारतम्य नहीं बन रहा है. लिखता हूँ फिर मिटाता हूँ. दरअसल मैंने प्रभाष जी के साथ कभी काम नहीं किया. इसलिए मेरे पास उनके सन्दर्भ में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे मैं सिलसिलेवार लिख सकूं. सलाह दी गयी कि जो कुछ फुटकर याद आ रहा है उसे ही कलमबंद कर दूं. यह लेख उसी कोशिश का नतीजा है. प्रभाष जी की मेरी पहली याद प्रजानीति के समय की है. इमर्जेंसी का ज़माना. उदयन शर्मा भी धर्मयुग की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर आ गए थे. ‘प्रजा नीति’ निकल रही थी. सेंसर का ज़माना था. जो कुछ भी लिख कर प्रभाष जी, सेंसर वाले अफसरों के पास भेजते, लगभग सब रिजेक्ट हो जाता, बस खेलकूद की खबरें बच जातीं. प्रभाष जी ने एक दिन कहा कि लगता है कि ‘प्रजा नीति’ को अब खेलकूद की पत्रिका ही कर देना पड़ेगा. मुझे बाद में यह घटना पता चली. तब से मैं सोचता रहता हूँ कि जो लोग कभी हार नहीं मानते, वे प्रभाष जी जैसे ही होते होंगे.
१९८३ में जनसत्ता की शुरुआत हुई. मुझे भी नाम और कलेवर के बारे में हो रही चर्चा को सुनने का मौक़ा लगा. मेरा जनसत्ता से कोई लेना-देना नहीं था. हुआ यों कि जनसत्ता टीम के शुरुआती सहायक संपादक सतीश झा और मैं एक ही मोहल्ले में सफदरजंग एन्क्लेव में रहते थे. सतीश को मैं छात्र जीवन से जानता था. सो उनके साथ मैं भी कभी कभी चला जाता था. प्रभाष जी ने जिस तरह उस वक़्त के दिल्ली से छपने वाले हिन्दी अखबारों का विश्लेषण किया, अक्षय कुमार जैन की चर्चा की, लोगों की जागरूकता का ज़िक्र किया, उसके बाद मुझे लगने लगा कि अगर ‘जनसत्ता’ न प्रकाशित हुआ तो गज़ब हो जायेया… हिन्दी में उस वक़्त के अखबारों के अलावा किसी और अखबार की ज़रूरत बहुत ज्यादा महसूस हुई.
९० के दशक में जब भी पंजाब के आतंकवाद पर लिखने या कुछ कहने की ज़रूरत पड़ी, मुझे लगता था कि मैं काफी अच्छी जानकारी रखता हूँ. अपने को सर्वज्ञ मानना एक बीमारी भी है लेकिन मुझे कुछ असली विद्वान लोग भी पंजाब के आतंकवाद का जानकार मानने लगे थे. मैंने पंजाब के उस वक़्त के आतंकवाद के बारे में अपनी पूरी जानकारी जनसत्ता को पढ़कर ही इकट्ठी की थी. दरअसल, जनसत्ता और पंजाब का आतंकवाद साथ-साथ विकसित हो रहे थे और हरमंदर साहब पर सेना के एक्शन से लेकर केपीएस गिल की कार्रवाई तक जनसत्ता हमेशा चौकन्ना रहा. दिल्ली में सिखों के क़त्ले-आम के बारे में जनसत्ता की खबरें मुझे हमेशा याद रहेंगी.
एक बार रुड़की विश्वविद्यालय के किन्हीं प्रोफ़ेसर साहेब का लेख छापा गया. मुझे लगा कि बेकार का लेख है. किसी अमरीकी सिगरेट के ब्रांड के एकाधिकार और भारत में पैर फैलाने की कोशिश के बारे में था. मैंने चिट्ठी लिख दी. मुझे फ़ोन करके बुलवाया और समझाया कि आने वाले कल में विदेशी एकाधिकार वादी कंपनियों की जो रणनीति होगी, इस लेख में उसी खतरे को उजागर करने की कोशिश की गयी है.
मुझे १९८३ में जनसत्ता में काम करने का मौक़ा मिल सकता था लेकिन मैंने इसलिए बात आगे नहीं बढ़ाई क्योंकि मेरे बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ रहे थे, खर्च कैसे पूरा कर पाऊंगा. और जब १९९३ में मेरे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह ने बताया कि जिसने जनसत्ता में काम नहीं किया उसे अंदाज़ ही नहीं लग पायेगा कि प्रेस की आज़ादी क्या होती है. आज भी जब मुझे याद आता है कि कोशिश करके जनसत्ता की शुरुआती टीम में शामिल हो सकता था, तब प्रदीप की बात याद आती है और पछताता हूँ.
जब एनडीटीवी में नौकरी मिली और वहां सोनाल (प्रभाष जी की पुत्री) से मुलाक़ात हुई, तो बहुत अच्छा लगा. एक ही दफ्तर में काम करते हुए बहुत अच्छा लगता था और प्रभाष जी के बारे में सोनाल से बात करना मुझे हमेशा याद रहेगा. मुझे श्री राम बहादुर राय का भी स्नेह प्राप्त है. अपने बेटे की शादी का कार्ड देने मैं जब राय साहेब के साथ जनसत्ता अपार्टमेन्ट गया था तो हिन्दू विवाह की परम्पराओं पर जो ज़िक्र हुआ, उससे मेरे ज्ञान में बहुत वृद्धि हुई. और भी बहुत सारी यादें हैं लेकिन लगता है कि उनका ज़िक्र करना ठीक नहीं होगा. हालांकि मैं प्रभाष जी के बारे में लिखने के लिए बिलकुल सही आदमी नहीं हूँ लेकिन भाई से हुक्म मिला तो लिख दिया है. सही बात यह है कि कुछ टुकड़े लिख दिए हैं.
लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं.