भारत में 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए अब ‘राईट टू एजुकेशन’ बहाल है, मगर 6 से 14 साल की कुल लड़कियों में से 50 प्रतिशत लड़कियां तो स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाती हैं। यह आकड़ा मौटे तौर पर दो सवाल पैदा करता है, अव्वल तो यह कि इस आयुवर्ग की आधी लड़कियां स्कूल से ड्राप-आऊट क्यों हो जाती हैं, दूसरा यह कि इस आयुवर्ग की आधी लड़कियां अगर स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाती हैं तो एक बड़े परिदृश्य में ‘राईट टू एजुकेशन’ का क्या अर्थ रह जाता है ? जेती, उम्र 10 साल, सुबह 5 के पहले उठ जाती है, वह इतनी जल्दी उठकर घर की साफ-सफाई और अपने माता-पिता के लिए दोपहर का खाना बनाती है। गिर अभयारण्य की जामबरदा पहाड़ी पर छपिया नाम की एक बस्ती है, जेती यही रहती है। यहां से पोरबंदर कम-से-कम 15 किलोमीटर दूर है, उसके माता-पिता को काम की तलाश में सुबह साढ़े 6 बजे के पहले पोरबंदर निकलना पड़ता है।
इसके बाद जेती अपने 4 से 7 साल के दो छोटे भाईयों को खाना खिलाती है, उन्हें तैयार कराती है, फिर पड़ोसियों के भरोसे छोड़कर स्कूल जाती है, मगर जैसे ही वह स्कूल की कक्षा में बैठती है, नींद से उठने के बाद पहली बार कुछ आराम पाती है, और उसकी आंखों में नींद भर जाती है। इस तरह, जेती के हिस्से से दिन के बहुत सारे पाठ छूट जाते हैं। जेती कहती है- ‘‘स्कूल अच्छा तो लगता है, पर पता नहीं कितना पढ़ पाऊंगी। हर कोई यही कहता है कि है कि घर पर रहो और बच्चे देखो।’’
बीते 1 अप्रेल से, देश के 192 मिलियन बच्चों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का हक लागू किया जा चुका है, मगर उनमें से जेती जैसी करोड़ों लड़कियां छूट रही हैं। माना कि यह लड़कियां अपने घर से लेकर छोटे बच्चों को संभालने तक के बहुत सारे कामों से भी काफी कुछ सीखती हैं। मगर यदि यह लड़कियां केवल इन्हीं कामों में रातदिन उलझीं हुई हैं, भारी शारारिक और मानसिक दबावों के बीच जी रही हैं, पढ़ाई के लिए थोड़ा-सा भी समय नहीं निकाल पा रही हैं, तो यह उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ ही हुआ।
1996 को ‘इंटरनेशलन लेबर आर्गेनाइजेशन’ की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनियाभर में 33 मिलियन लड़कियां काम पर जाती हैं, जबकि काम पर जाने वाले लड़कों की संख्या 41 मिलियन हैं। मगर इन आकड़ों में पूरे समय घरेलू कामकाजों में जुटी रहने वाली लड़कियों की संख्या नहीं जोड़ी गयी थी। इसके बाद, ‘नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रनस् राईटस्’ यानी एनसीपीसीआर की एक रिपोर्ट ने बताया था कि भारत में 6 से 14 साल तक की ज्यादातर लड़कियों को हर रोज औसतन 8 घंटे से भी ज्यादा समय केवल अपने घर के छोटे बच्चों को संभालने में बीताना पड़ता है। इसी तरह, सरकारी आकड़ों में दर्शाया गया है कि 6 से 10 साल की जहां 25 प्रतिशत लड़कियों को स्कूल से ड्राप-आऊट होना पड़ता है, वहीं 10 से 13 साल की 50 प्रतिशत (ठीक दोगुनी) से भी ज्यादा लड़कियों को स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाना पड़ता है। 2008 को, एक सरकारी सर्वेक्षण में 42 प्रतिशत लड़कियों ने यह बताया कि वह स्कूल इसलिए छोड़ देती हैं, क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें घर संभालने और अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करने को कहते हैं।
दूसरी तरफ, कानून में मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा कह देने भर से कुछ नहीं होगा, बल्कि यह भी देखना होगा कि मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा के मुताबिक खासतौर से लड़कियों के लिए देश में शिक्षा की बुनियादी संरचना है भी या नहीं। आज कई करोड़ भारतीय लड़कियों की प्राथमिक शिक्षा के सामने पर्याप्त स्कूल, कमरे, प्रशिक्षित शिक्षक और गुणवत्तायुक्त सुविधाएं नहीं हैं। देश की 40 प्रतिशत बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं और इसी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि 46 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं हैं। अगर राइट टू एजुकेशन के प्रावधानों का ख्याल रखते हुए, बरदा पहाड़ियों में शिक्षा की बुनियादी संरचना की जमीनी पड़ताल की जाए तो यहां की 61 बस्तियों के बीच केवल 14 प्राइमरी स्कूल हैं, जिनमें से 7 भवन विहीन हैं, खुली हवाओं में चल रहे स्कूलों तक पहुंचने के लिए भी लड़कियों को ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरना पड़ता है और 2 से 3 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है। इन्हीं वजहों के चलते हमारे देश की आधी लड़कियों के पास राईट तो है, मगर विथआऊट एजुकेशन। उनकी एजुकेशन से जुड़ी बाधाओं को तोड़े बगैर राईट टू एजुकेशन का मकसद पूरा नहीं हो सकता है.
शिरीष खरे, चाईल्ड राईटस एण्ड यू के संचार विभाग से जुड़े हैं.