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तेरा-मेरा कोना

शहर के भीतर कितने शहर

आपने अली बाबा और चालीस चोर की कहानी तो देखी, पढ़ी या सुनी ही होगी। उसमें एक चोर जब अलीबाबा का घर पहचान लेता है तो उसके बाहर क्रॉस का निशान लगाकर चल देता है। अगली सुबह चालीस चोर आते हैं। मगर हर घर के आगे क्रॉस का निशान लगा रहता है। इसलिए चालीस चोर मिलकर भी एक अली बाबा का घर नहीं खोज पाते। ठीक यही कहानी इस देश के शहरों की होने वाली है। हो सकता है कि अब हमें अपने ही शहर का चौराहा, मोहल्ला, गलियां, दुकानें समझ ना आएं और हम अपने ही किसी यार का घर भी खोज ना पाएं। चाहे मुंबई हो या अहमदाबाद, सूरत हो या भोपाल। सबके मास्टर प्लॉन एक जैसे जो बन रहे हैं हैं। इसलिए अब शहर के भीतर शहर है कि पहचान में नहीं आ रहे हैं। सबके सब शहर एक जैसे लगने लगे हैं। और आप माने चाहे ना माने मगर शहरों के रहवासियों की दशा अब दुर्दशा में बदल रही है। देश की तरक्की के केन्द्र में बड़े शहर हैं। 

<p>आपने अली बाबा और चालीस चोर की कहानी तो देखी, पढ़ी या सुनी ही होगी। उसमें एक चोर जब अलीबाबा का घर पहचान लेता है तो उसके बाहर क्रॉस का निशान लगाकर चल देता है। अगली सुबह चालीस चोर आते हैं। मगर हर घर के आगे क्रॉस का निशान लगा रहता है। इसलिए चालीस चोर मिलकर भी एक अली बाबा का घर नहीं खोज पाते। ठीक यही कहानी इस देश के शहरों की होने वाली है। हो सकता है कि अब हमें अपने ही शहर का चौराहा, मोहल्ला, गलियां, दुकानें समझ ना आएं और हम अपने ही किसी यार का घर भी खोज ना पाएं। चाहे मुंबई हो या अहमदाबाद, सूरत हो या भोपाल। सबके मास्टर प्लॉन एक जैसे जो बन रहे हैं हैं। इसलिए अब शहर के भीतर शहर है कि पहचान में नहीं आ रहे हैं। सबके सब शहर एक जैसे लगने लगे हैं। और आप माने चाहे ना माने मगर शहरों के रहवासियों की दशा अब दुर्दशा में बदल रही है। देश की तरक्की के केन्द्र में बड़े शहर हैं। </p>

आपने अली बाबा और चालीस चोर की कहानी तो देखी, पढ़ी या सुनी ही होगी। उसमें एक चोर जब अलीबाबा का घर पहचान लेता है तो उसके बाहर क्रॉस का निशान लगाकर चल देता है। अगली सुबह चालीस चोर आते हैं। मगर हर घर के आगे क्रॉस का निशान लगा रहता है। इसलिए चालीस चोर मिलकर भी एक अली बाबा का घर नहीं खोज पाते। ठीक यही कहानी इस देश के शहरों की होने वाली है। हो सकता है कि अब हमें अपने ही शहर का चौराहा, मोहल्ला, गलियां, दुकानें समझ ना आएं और हम अपने ही किसी यार का घर भी खोज ना पाएं। चाहे मुंबई हो या अहमदाबाद, सूरत हो या भोपाल। सबके मास्टर प्लॉन एक जैसे जो बन रहे हैं हैं। इसलिए अब शहर के भीतर शहर है कि पहचान में नहीं आ रहे हैं। सबके सब शहर एक जैसे लगने लगे हैं। और आप माने चाहे ना माने मगर शहरों के रहवासियों की दशा अब दुर्दशा में बदल रही है। देश की तरक्की के केन्द्र में बड़े शहर हैं। 

यह शहर उत्पादन, बाजार और सम्पत्ति के केन्द्र भी हैं। यहां गांव के गरीब बेहतर काम और आमदनी की उम्मीद से आते हैं। इसलिए पूंजी की फितरत और आबादी के बोझ से शहर की सहभागी व्यवस्था के बहुत नीचे दब जाते हैं। एक शहर भी तो कई तरह की असमानताओं से भरा होता है। तो सवाल है कि क्या शहरों को बदलने के किसी मास्टर प्लॉन में भूख, गरीबी और बेकारी जैसी असमानताओं को मिटाने की कोई योजना भी शामिल है या नहीं ? अगर है तो शहरों के बदलने के साथ-साथ उसके कई हिस्सों में बड़ी तेजी से भूख, गरीबी और बेकारी क्यों जमा हो रही है ? इस तरह शहर का बड़ा भूगोल निरक्षर और बीमार क्यों दिखाई दे रहा है ? समझ क्यों नहीं आता कि गांव की गरीबी ज्यादा उलझी है या शहर की ?

दरअसल, एक शहर के भीतर कई शहर बनते जा रहे हैं। पहले दृश्य में हमारे साफ-सुथरा, व्यवस्थित और महंगी कारों से दौड़ता शहर है। वहां के लोगों की सुरक्षित और अधिक आमदनी है। इसलिए उन्हें बेहतर सुविधाएं मिलती हैं। इसलिए उन्हें शहरी तरक्की में मददगार माना जाता है। दूसरे दृश्य में झोपड़पट्टी है। यह गंदा, तंग और भीड़ भरा शहर है। यहां न लोग ही सुरक्षित हैं, और न ही उनके काम या घर। झोपड़पट्टियों को तरक्की राह में रोड़ा समझा जाता है। सार्वजनिक जगहों पर ऐसी झोपड़पट्टियां बनती हैं इसलिए शहर के कई जगहों पर अलग-अलग कानून और विकास योजनाएं चलती हैं। यहां के रहवासियों की मेहनत से शहर का बाजार मुनाफा लेता है। बदले में उसका श्रेय और जायज पैसा नहीं देता। इससे शहरी गरीबी सुधरने की बजाय बिगड़ती है। एक शहर में शोषण के कई दृश्य उभरते हैं।

शहरी गरीबी के पीछे- 1. गरीबों की समस्याएं और 2. सरकारी विफलताएं घुली-मिली हैं। गरीबों को ‘काम’ और ‘घर’ की तलाश रहती है। देश में असंगठित क्षेत्र से 93 फीसदी मजदूर जुड़े हैं। दूसरी तरफ औपचारिक अर्थव्यवस्था में कम हिस्सेदारी से गरीबी, योग्यता और रचनात्मकता पर बुरा असर पड़ता है। इससे औपचारिक अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी नहीं होती और बेकारी बढ़ती है। इसलिए देश के 5 करोड़ से भी अधिक लोग झोपड़पट्टी में रहते हैं। यह आर्थिक, कानूनी और सामाजिक सुरक्षाओं से दूर हैं। नतीजतन, पूरा भार शासन पर पड़ता है। क्योंकि ऐसी झोपड़पट्टियां गैरकानूनी कहलाती हैं इसलिए यहां नल और गटर की व्यवस्थाएं नहीं होतीं। यहां तक सार्वजनिक संसाधन और सेवाएं भी नहीं पहुंचतीं। इससे गरीब और अधिक असहाय तथा बीमार होते हैं। आखिरकार, गरीबों की बड़ी तादाद गरीबी के दायरे से बाहर नहीं आ पाती। शहरी गरीब शहर में रहकर भी उससे दूर रहता है। यह छोटी झुग्गी, फुटपाथ या रेल्वे पटरियों के किनारे होता है। शहरी ताकतों का गठजोड़ उसे एक तरफ धकेलता है। इस ढंग से उसका स्थान, काम और हक नजरअंदाज बनाया जाता है। यहां तक कि उसकी गतिविधियां भी संदेह के घेरे में रहती हैं। शहरी गरीबी मिटाने वाले भी कभी शहरी विकास तो कभी खूबसूरती के नाम पर चुप्पी को गहरा बनाया जाता है। इस तरह गरीबी की बजाय गरीबों को उखाड़ने की कार्रवाई सहज और शांतिपूर्ण ढंग से चलती है।

सरकार की विफलता को तीन तरह से उजागर होती है। 1-जमीन की कमी 2-सब्सिडी में कमी और 3- संसाधनों में कमी। मुंबई के उदहारण से अगर हम देखें  तो जैसा कि सब जानते हैं कि मुंबई में जमीन बहुत कम और महंगी हैं। यहां कुल बस्ती का 60 फीसदी हिस्सा झोपड़पट्टी का है। मगर यह शहर की सिर्फ 14 फीसदी जमीन पर बसा है। सरकार के मुताबिक हर आदमी के लिए 5 वर्ग मीटर और हर परिवार के लिए 25 वर्ग मीटर जमीन होनी चाहिए। मतलब शहर के गरीब कम जमीन और ढेर सारी परेशानियों के साथ रहता है। इससे उनका काम या धंधा प्रभावित होता है। नागरिक सुविधाएं मुहैया कराने के लिए सरकार चुनी जाती है। मगर इस लिहाज से कई तजुर्बों से अब यह साफ हो गया है कि वह खुद को पीछे और निजी ताकतों को आगे कर रही है।

दुनिया भर के कई तजुर्बों से यह साफ हुआ है कि निजी ताकतों का काम व्यवस्था में सुधार की आड़ में बाजार तैयार करना होता है। बाजार नागरिकों से नहीं उपभोक्ताओं से चलता है। गरीबों के पास अपनी उलझनों को सुलझाने के लिए न तो अधिक पैसा होता है और न ही तकनीकी सूझ या समझ। तकनीकी सूझ या समझ का मतलब यहां खास तौर से कागजी औपचारिकताओं से है। शहर के लिए तरक्की के मॉडल आम आदमी की भागीदारी से नहीं बनते। इन दिनों वैश्विक ताकतों की सलाह को अहम् माना जा रहा है, लेकिन नागरिकों के ‘संवाद’ और ‘विरोध’ को रोका जा रहा है। गरीबी कम करने के लिए सभी लोगों को आजादी और बराबरी से जीने का मौका देना चाहिए। 74 वें संविधान संशोधन में विकेन्द्रीकरण और जनभागीदारिता का जिक्र हुआ है। इसके लिए वार्ड-सभा और क्षेत्रीय-सभाओं के उल्लेख भी हुए हैं। मगर असलियत में शहरी विकास की मौजूदा योजनाओं में जनता की सीधी भागीदारिता न के बराबर है।

किसी शहर को ‘लंदन’, ‘न्यूयॉर्क’ या ‘संघाई’ बनाने की बातों भर से वहां का नजारा नहीं बदल जाएगा। इसके लिए तरक्की में सबका और सबको हिस्सा देना होगा। इसके बिना अमीरी-गरीबी के बीच की खाई नहीं भरी जा सकती। एक शहर का मतलब उसकी पूरी आबादी से है। इसमें एक छोटे तबके की तरक्की को शहर की तरक्की मान लिया जाता है। लेकिन शहर का बड़ा तबका ऐसी तरक्की से बर्बाद होता है। इस तबके से भी तरक्की की धारणाएं जाननी होगी। यह केवल घर बचाने और बनाने की बात नहीं हैं बल्कि बजट, कारोबार और प्रावधानों में शामिल होने की बात भी है।

लेखक शिरीष खरे, चाईल्ड राईटस एण्ड यू के संचार विभाग से जुड़े हैं. 

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