नक्सलवाद को लेकर न तो मेरे मन में कोई लगाव है, और न ही रोमांच है. मगर देश में अमनबहाली का सपना देखने वाले चिदंबरम जी जैसे जेएनयू जाते हैं, वैसे ही एक-बार छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा क्यों नहीं चले जाते हैं, आख़िर वह देश के गृह-मंत्री हैं, कहीं भी घूम-फिर सकते हैं, किसी भी जनसुनवाई में हिस्सेदारी निभा सकते हैं, और सीधे-सीधे जनता से मिलकर असलियत से दो-चार भी हो सकते हैं, जान सकते हैं कि ऐसे हालात क्यों बन रहे हैं, यह नक्सलवादी क्यों बढ़ रहे हैं, मगर आज़ादी के बाद पहली-बार एक ऐसी नौटंकी खेली जाती है, जिसमें एक राज्य का राज्यपाल प्रधानमंत्री को ख़त लिखता है और गृह-मंत्री के नहीं आने की बात कहता है, इसके बाद गृह-मंत्री भी नहीं ही आने का फैसला कर लेते हैं.
जिस राज्य की सत्ता अपनी प्रतिष्ठा मात्र के लिए इस स्तर पर जाकर लोकतांत्रिक मूल्यों को किनारे लगा सकती है, उस राज्य की सत्ता के सामने भला एक आम आदमी कि औक़ात आपको समझ में आती है? और मान लीजिए, अगर गुजरात में फिर से कोई दंगा-फ़साद हो जाए, और उस स्थिति में गुजरात के राज्यपाल यह कहे कि गृह-मंत्री को यहाँ नहीं आना चाहिए तो क्या गृह-मंत्री वहाँ नहीं जाएंगे ? क्या बिल्कुल ऐसा ही वह काश्मीर की मामले में भी करेंगे? जिस देश के गृह-मंत्री छत्तीसगढ़ के जंगलों में सुरक्षा व्यवस्था की फ़िक्र में दुबले होते जा रहे हैं- उनके सामने महाराष्ट्र के आदिवासियों से जुड़े मेरे तजुर्बे कुछ सवालों की रूप में हाज़िर हैं :
महाराष्ट्र के अमरावती जिले के मेलघाट जंगली क्षेत्र में 1993 से अब तक भुखमरी से 10 हजार 252 बच्चों की मौत हो चुकी है. यह अधिकारिक आकड़ा है. वास्तविक स्थिति इससे भी कई गुना बदतर है. अगर अधिकारिक आकड़े की पड़ताल की जाए तो हर साल यहां 700 से 1000 बच्चों को भूख से मरना पड़ता है. साल 2007-08 में जहां सबसे कम 447 बच्चे मारे गए, वहीं 1996-97 को सबसे ज्य़ादा 1050 बच्चों को मौत के मुंह में क्यों जाना पड़ा है ?
मेलघाट में ही 1974 को ज्यों ही टाइगर रिजर्व बना कोरकू जनजाति का जीवन दो टुकड़ों में बट गया. एक विस्थापन और दूसरा पुनर्वास. ऊँट के आकार में उठ आये विस्थापन के सामने पुनर्वास जीरे से भी कम था. पुराने घाव भरने की बजाय एक के बाद एक प्रहारों ने जैसे पूरी ज़मात को ही काट डाला. अब इसी कड़ी में 27 गाँव के 16 हजार लोगों को निकालने का farmaan क्यों जारी हुआ है ?
महाराष्ट्र का मराठवाड़ा में दीवाली से बारिश तक हजारों मजदूर जोड़े (पति-पत्नी) चीनी कारखानों के लिए गन्ना काटने जाते हैं. इसमें अधिकतर विभिन्न जनजातियों के होते हैं. इनके पास न तो खेती लायक जमीन है और न ही अपना कोई धंधा. गाँव से बाहर रहने से इन्हें पंचायती योजनाओं का लाभ नहीं मिलता. इनकी बस्तियाँ भी बदलाव से अछूती रह जाती हैं. सबसे ज्यादा हर्जाना तो स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को भुगतना पड़ता है. ये बच्चे गन्नों के जिन खेतों में काम करते हैं, आप वहां जाकर देखिए, शोषण की कितनी कहांनिया क्यों बिखरी हैं ?
सैय्यद मदारी एक बंजारा ज़मात है। गली-मोहल्लों में हैरतअंगेज खेल दिखाना इनका खानदानी पेशा रहा है। मगर सबसे हैरतअंगेज खेल के तहत ‘जाति शोध केन्द्र’ और ‘जाति आयोग’ की सूचियों में ‘सैय्यद मदारी’ जमात का जिक्र तक क्यों नहीं मिलता है?
पारधी अपने ही अतीत और रिवाजों में कैद एक ज़मात है। जो अंग्रेजों के ‘गुनहगार जनजाति अधिनियम, 1871’ का शिकार होते ही हमेशा के लिए ‘गुनाहगार’ हो गई। पारधी लोग आज भी गाँव से दूर और गुनाहगार क्यों बने हुए हैं, और उनके सामने बुनियादी हकों से जुड़ा हर सवाल कई किलोमीटर की दूरी बताने वाले किसी पत्थर सा क्यों है ?
यानी कि यह केवल छत्तीसगढ़ का मसला नहीं है, जहाँ नक्सली नहीं है वहाँ के आदिवासी इलाकों का भी मसला है. आज़ादी की बाद उनके ख़िलाफ जो कानून बने, और एक तरीके से जो ऐतिहासिक अन्याय हुआ- जैसा कि देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी माना था तो उनसे होने वाले नुकसानों का हिस़ाब-क़िताब भी सरकार के पास है या नहीं. कभी जंगल की जमीन को राजस्व की जमीनों में बदलके, कभी वन-विभाग के अत्याचारों के जरिए, तो कभी बाँधों, राष्ट्रीय अभ्यारण्यों और टाईगर रिजर्वों के जरिए उन्हें बेदखल करके उन्हें तबाह करने का आकड़ा सरकार के पास है या नहीं. इन सवालों से बचकर, अगर सरकार उन्हें उनका जल, जंगल और जमीन देने की बजाय नरेगा का झुनझुना बजाएगी तो भी बात बनेगी नहीं.
मगर दिक्कत तो यही है कि अब उनके संसाधनों पर खदानों को खोदने और कारखाने को लगाने वालों की नज़र है. ऐसे में गृह-मंत्री के नमक के फ़र्ज़ को समझा जा सकता है, जो चाहे उनकी कुर्सी से जुड़ा हो और चाहे उनसे जिनसे उनके जुड़े होने (वेदांत और दूसरी कम्पनियाँ) का ख़ुलासा हुआ है. नहीं तो ऐसी कौन सी वजह है कि वह नक्सलवाद की जड़ों पर बात करने वाले शांतिप्रिय जनांदोलनों और उनके कार्यकर्ताओं तक को नक्सली करार दे रहे हैं, ऐसे लोगों को कहीं भी अपनी मर्जी से घूमना-फिरना और जनसुनवाई करना मुश्किल होता जा रहा है, और तो और अब तो आम लोगों को भी आसानी से नक्सली घोषित किए जाने के बारे में सोच रहे हैं.
ऐसा करके लोकतांत्रिक तरीकों से चलने वाले आंदोलनों को भी कुचल देंगे- अगर वह ऐसा सोच रहे हैं तो भूल रहे हैं कि लोकतांत्रिक तरीकों से चलने वाले आंदोलनों का कुचलना इतना आसान काम नहीं है, और इसकी एक नहीं कई वजह हैं, मसलन उनका दायरा कहीं ज्य़ादा फ़ैला और खुला हुआ है. उन्हें कंपनियों का केरेक्टर और उनकी साजिशों को समझने से रोका नहीं जा सकता है, संघर्ष की लंबी-लंबी प्रक्रियाओं के बनने को तोड़ा नहीं जा सकता है, उन्हें बहुत सीमित अर्थों और पैमानों में बाँधा नहीं जा सकता है, स्थानीय परिस्तिथियों के हिसाब से ऐसे संघर्षों की जगह-जगह बनने वाली रूपरेखाओं को बदला नहीं जा सकता है, हार और जीत की बजाय विकास बनाम विनाश की संरचना को लेकर रोज आने वाली नई लड़ाइयों की खबरों को बंद नहीं किया जा सकता है, मोर्चे टूटने भर को हार और जीत से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है, विकास और विरोध के देशी विकल्पों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता हैं, आदि आदि इत्यादि का जवाब देने के लिए भी क्या गृह-मंत्री ने कोई भूमिका तैयार कर ली है?