इन सब से बड़ा सवाल ये है कि शिव सेना से अलग होकर अपनी पार्टी बनाने वाले औऱ चुनावी राजनीति की शुरूआती कोशिशों में मुंह की खाने वाले राज ठाकरे औऱ उसकी पार्टी को यहां तक पहुंचाने में सबसे बड़ा हाथ आखिर किसका है. राजीनित की तिरछी चालों की समझ रखने वाले जानते हैं कि राज ठाकरे को बढ़ावा देने में उस पार्टी का बड़ा हाथ है जो खुद को देश की सबसे बड़ी पार्टी कहती है और भारत को एक रखने में अपने योगदान की याद दिलाना किसी मौके पर नहीं भूलती. जी हां कांग्रेस ने महाराष्ट्र की राजनीति में शिव सेना की घटती ताकत, एनसीपी की औकात और बीजेपी की मज़बूरी को समझते हुए जिस तरीके से राज ठाकरे की पीठ पर हाथ रखा वो तात्कालिक फायदा भले ही दिला दे लेकिन एक दिन ये ही उसके लिए भस्मासुर का भी काम करेगा.
शर्तिया तौर पर आप एक समय महाराष्ट्र और ख़ासकर मुंबई में राज ठाकरे के गुर्गो के हाथों उत्तर भारतीयों की हो रही पिटाई और पटना के राहुल राज की बेस्ट की बस में गोली मारकर की गयी हत्या की तस्वीरें भूलें नहीं होंगे. आपको ये भी याद होगा कि किस तरह जब पूरा देश गुहार लगा रहा था महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार उस इलाकाई राजनीतिक की आग के और भड़कने का इंतजार कर रही थी. आखिरकार देश की संसद में बहस हुई और बात हद से गुज़री तो राज ठाकरे की गिरफ्तारी का बस नाटक भर किया गया. कांग्रेस की चाल को उस समय भी समझना मुश्किल नहीं था और जब विधानसभा चुनावों में राज ठाकरे के मनसे ने शिव सेना की जड़ खोदकर कांग्रेस की राह आसान कर दी इस बात पर मोहर लग गयी. दरअसल सत्ता की राजनीति का ये स्थाई चरित्र होता जा रहा है जहां सारे सिद्धांत कुर्सी के सामने या तो हाथ बांधे खड़े नज़र आते हैं या फिर औंधे मुंह गिरे हुए. कांग्रेस भी इसकी अपवाद नहीं.
राज ठाकरे से राजनीति के तरीके में बदलाव की अपेक्षा करना किसी नादानी से कम नहीं. दरअसल वो ऐसे ही संस्कारों और इसी राजनीति की पैदाइश हैं. 60 के दशक में उनके चचा बाल ठाकरे मद्रासियों और दक्षिण भारतीयों की पुंगी बजाया करते थे. 40 साल बाद भी राज ठाकरे वही हथकंडा अपनाते हों तो थोड़ा अचरज जरूर होता है लेकिन बबूल के बीज से आम की आशा भी तो नहीं कर सकते. हां कांग्रेस पार्टी से ये सवाल जरूर किया जाना चाहिए कि क्या उसकी नज़र भी महाराष्ट्र तक की सिमट कर रह जाती है या उसे गांधी-नेहरू के सपनों का ये पूरा देश नज़र आता है. वैसे राज ठाकरे की करतूतों का शिव सेना और बीजेपी ने भी पूरे दम से कभी विरोध नहीं किया. लिहाज़ा ये सवाल उनसे भी है. देश की जनता जवाब चाहती है.
लेखक श्याम किशोर टीवी जर्नलिस्ट हैं.