वाकया दिलचस्प भी है और पीड़ादायक भी। लोकतंत्र के लिए शर्मनाक और निर्वाचित लोकप्रतिनिधियों को बाजारू-बिकाऊ निरूपित करनेवाला तो है ही। राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायकों ने विधानपरिषद चुनाव में कांग्रेस-राकांपा उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान किया। राज ठाकरे ने सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार भी किया। हां, कारण अवश्य यह बताया कि मनसे के चार निलंबित विधायकों की निलंबन वापसी के लिए उन्होंने ऐसा किया। अर्थात् कांग्रेस-राकांपा के साथ मनसे ने सौदेबाजी की! चालू भाषा में बोलें तो कांग्रेस-राकांपा के साथ ‘डील’ किया- वोट के बदले निलंबन वापसी की। मनसे के वोट की बदौलत कांग्रेस समर्थित चौथे उम्मीदवार विजय सावंत विजयी रहे। शिवसेना के अनिल परब चुनाव हार गए। लेकिन राजनीति के निराले रंग तो चमकने ही थे।
राज ठाकरे की स्वीकारोक्ति के बाद कांग्रेस के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण इस बात से ही पलट गए कि मनसे के विधायकों ने उनके उम्मीदवार को वोट दिए। अगर चव्हाण सच बोल रहे हैं, तब निश्चय ही राज ठाकरे झूठ बोल रहे हैं। इसी प्रकार अगर राज सच बोल रहे हैं, तब झूठ चव्हाण बोल रहे हैं। इस सच-झूठ का खुलासा आनेवाला समय कर देगा। संकेत मिलने शुरू हो गये हैं। राकांपा के छगन भुजबल के अनुसार मनसे के विधायकों की निलंबन वापसी की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। अगर निलंबन वापस होता है तब कथित ‘डील’ के आरोप को चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
राज ठाकरे के चाचा बाल ठाकरे और भाई उद्धव ठाकरे खुलेआम आरोप लगा चुके हैं कि राज ठाकरे ने धन लेकर अपने विधायकों के वोट बेचे। अगर राज की बात को मान लिया जाए तब, धन की जगह उन्होंने सत्तापक्ष के साथ अपने विधायकों के साथ निलंबन वापसी का ‘डील’ किया। मामला तब भी भ्रष्ट आचरण का बनता है। ‘डील’ भी ‘रिश्वत’ का ही एक रूप है। धन के आदान-प्रदान को ही रिश्वत नहीं कहते। किसी काम के एवज में उपकृत करना भी रिश्वत ही माना जाता है। राज ठाकरे और सत्ता पक्ष के नेता इस आरोप से बच नहीं सकते।
महाराष्ट्र विधानसभा के अंदर समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी की पिटाई करने के आरोप में सत्ता पक्ष के प्रस्ताव पर मनसे के चार विधायकों को शेष कार्यकाल के लिए निलंबित कर दिया गया था। अब सत्ता पक्ष की ओर से निलंबन वापसी के पक्ष में पहल पर सवाल तो खड़े होंगे ही। मुख्यमंत्री के इन्कार के बाद भी राज ठाकरे ने निलंबन वापसी के एवज में वोट देने की बात दोहराई थी। विधान परिषद और राज्यसभा के चुनावों में विधायकों द्वारा धन लेकर वोट देने की बात आज आम हो गई है। झारखंड मुक्ति मोर्चा सांसद रिश्वत कांड लोकतंत्र के माथे पर एक कलंक के रूप में आज भी टीस मारता रहता है। यह घटना तो 90 के दशक की है। किंतु अब तो प्राय: सभी राज्यों में ‘नोट के बदले वोट’ का प्रचलन शुरू हो चुका है।
कल बृहस्पतिवार 17 जून को होनेवाले राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में धन-बल की मौजूदगी को कोई भी देख सकता है। झारखंड में एक निर्दलीय उम्मीदवार ने नोटों से भरी थैली का मुंह खोल रखा है। एक वोट की कीमत करोड़ से अधिक लगाई जा रही है। चुनाव परिणाम आने दीजिए, सब कुछ साफ हो जाएगा। ऐसे चुनावों में मुख्यत: क्षेत्रीय दलों और निर्दलीयों की चंादी होती है। इन दिनों मीडिया में ‘पेड न्यूज’ की काफी चर्चा हो रही है। धन लेकर विज्ञापन की जगह समाचार छापने की नई प्रथा की चीख-चीख कर आलोचनाएं की जा रही हैं। अब ‘पेड न्यूज’ से आगे ‘धन के बदले वोट’ को क्या कहेंगे? एक प्रथा का रूप ले चुके इस व्यवहार को ‘सोल्ड वोट’ मान लिया जाना चाहिए। जिस प्रकार पेड न्यूज के मामले में मीडिया घराने आराम से बच निकलते हैं, उसी प्रकार ‘सोल्ड वोट’ के मामले में भी तो विधायक बेखौफ विचरते नजर आते हैं। मीडिया और जनप्रतिनिधि इस मुकाम पर बिल्कुल ‘…. मौसेरे भाई” नजर आते हैं। कौन करेगा इस अवस्था पर विलाप?
लेखक एसएन विनोद जाने-माने पत्रकार हैं.