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साहित्य जगत

वीरेंद्र सेंगर का नाम और वीएन राय की बदनामी

[caption id="attachment_2287" align="alignleft"]सुभाष रायसुभाष राय[/caption]एक हिंदी वाला हिंदी के नाते ही उलझन में है। कुछ लोग उसके पीछे पड़े हैं। दोनों हाथों में कीचड़ लिये, भद्दे शब्दों की बंदूकें ताने और झूठ की तीर-कमान साधे। उसे एक डमी की तरह मार गिराना चाहते हैं, उसका कमजोर परिंदे की तरह शिकार कर लेना चाहते हैं। उन्हें लग रहा है कि बस वह अब गिरा कि तब। पर जब हर वार के बाद वह सीधा खड़ा दिखता है तो वे खिसियाकर फिर अपने तरकश खाली कर देते हैं। कुछ तो इतने परेशान हैं कि उन्हें गालियां बकने में कोई परहेज नहीं है। कुछ सादगी और सम्मान दिखाते हुए लठियाने में जुटे हैं। 

सुभाष राय

सुभाष रायएक हिंदी वाला हिंदी के नाते ही उलझन में है। कुछ लोग उसके पीछे पड़े हैं। दोनों हाथों में कीचड़ लिये, भद्दे शब्दों की बंदूकें ताने और झूठ की तीर-कमान साधे। उसे एक डमी की तरह मार गिराना चाहते हैं, उसका कमजोर परिंदे की तरह शिकार कर लेना चाहते हैं। उन्हें लग रहा है कि बस वह अब गिरा कि तब। पर जब हर वार के बाद वह सीधा खड़ा दिखता है तो वे खिसियाकर फिर अपने तरकश खाली कर देते हैं। कुछ तो इतने परेशान हैं कि उन्हें गालियां बकने में कोई परहेज नहीं है। कुछ सादगी और सम्मान दिखाते हुए लठियाने में जुटे हैं। 

जिस आदमी ने अपना अब तक का जीवन गरीबों, दलितों को सम्मान दिलाने के लिए खर्च किया, उस पर दलित उत्पीड़न का आरोप लगाया जा रहा है, जिस आदमी ने जाति के नाते अपने लोगों में कोई पहचान ही नहीं रखी, उसे जातिवादी ठहराया जा रहा है, जो पुलिस में रहकर भी आदमी बना रहा, उसे पुलिसिया, बूढ़ा होता तानाशाह, जिहादी, अंगूरीबाज, सोमरसी और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है। मीडिया के कुछ ज्ञानी महारथी अपने बेअसर होते शब्दों के कारण गालियों का नया शब्दकोश रचने में जुटे हैं।

एक तो वैसे ही मीडिया विश्वास के संकट से गुजर रहा है, शब्द अपनी सार्थकता खो रहे हैं, उनकी बदल देने या ध्वस्त कर देने की सामर्थ्य कम होती जा रही है, दूसरे उन्हें और भी कमजोर बना देने का जैसे अभियान ही छेड़ दिया गया हो। यह संजीदा पत्रकारों की भाषा नहीं लगती। जो भाषा कोई भी सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर सकता, उसका प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। पढ़े-लिखों की नजर में जो शब्द गालियां बन चुके हैं, उन्हें गंदे एवं बदबूदार तहखानों से घसीटकर बाहर निकाला जा रहा है और शिष्ट लोगों के दिमागों में ठूंसने की कोशिश की जा रही है। यह निरा बौद्धिक नंगई की तरह है। सभी जानते हैं कि भाषा की ताकत जब चुक जाती है, तर्क की सामर्थ्य जब खत्म हो जाती है, तब आदमी मुंह में गाली और हाथ में डंडा लेकर सामने आ खड़ा होता है, बिल्कुल जानवरों की तरह। क्या सचमुच पत्रकारों के सामने ऐसी मजबूरी आ गयी है कि वे शब्दों की संजीदगी और कानून के रास्ते से हटकर कलम की जगह लट्ठ का इस्तेमाल करें? अगर हां तो यह मीडिया का अब तक का सबसे बड़ा संकट है, उसकी सत्ता कायम रहने पर गंभीर सवाल है।

यह सब विभूति नारायण राय को लेकर चल रहा है। वे अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति होने के नाते जाने जाते हैं, ऐसी बात नहीं है। उन्हें पहले से ही लोग जानते थे। उनके पुलिस में बड़े ओहदे के कारण नहीं बल्कि उनकी रचनाधर्मिता के कारण। अपने लेखन से वे बहुत पहले साहित्य में अपनी जगह बना चुके थे। सभी जानते हैं कि पुलिस में रहकर भी आदमी बने रहना कितना मुश्किल है। वे स्वयं स्वीकार करते हैं, ‘पुलिस सेवा किसी भी अन्य नौकरी की तरह रचनात्मकता विरोधी है। अगर आप अपनी नौकरी के अतिरिक्त दिलचस्पी के दूसरे क्षेत्र नहीं रखेंगे तो धीरे-धीरे आप जानवर में तबदील हो जायेंगे। नौकरी में आने के बाद मैंने पढ़ने-लिखने का सिलसिला जारी रखा और इस तरह आदमी बने रहने का प्रयास करता रहा।’ वे अपने प्रयास में सफल रहे या नहीं, वे मनुष्य हैं या नहीं, यह कौन तय करेगा? वे लोग, जो किसी स्वार्थ की पूर्ति न होने से उन पर एक साथ टूट पड़े हैं या वे जो किसी सम्मानित, प्रतिष्ठित और स्वाभिमानी पत्रकार के नाम से झूठा इंटरव्यू छापकर विभूति नारायन को छोटा करने की कोशिश कर रहे हैं?

आश्चर्य है कि नागपुर से छपने वाले एक अखबार ने दिल्ली के मीडिया जगत में तीन दशक से भी ज्यादा समय से अपनी इमानदारी, विश्वसनीयता और दो-टूक बात कहने के अंदाज के लिए जाने जाने वाले एक प्रतिष्ठित पत्रकार का ऐसा इंटरव्यू प्रकाशित किया, जो उन्होंने दिया ही नहीं। दुस्साहस की हद तो यह कि कई महीने से वह इंटरव्यू उस अखबार के लिए खबरें भेजने वाले एक तथाकथित क्रांतिकारी पत्रकार के ब्लाग पर पड़ा हुआ है। उसमें विभूति नारायण राय को जमकर कोसा गया है। जब यह बात खुली तो सभी सन्न रह गये। अब उसी अखबर के लोग आरोप लगा रहे हैं कि उनके साथ राय ने बदसलूकी की, कमरे में बुलाकर गालियां दी, लाठियों से धुनने की धमकी दी और हिंदी विश्वविद्यालय परिसर में उनके अखबार पर पाबंदी लगा दी। भाई मेरे, जैसा करोगे, वैसा भुगतना तो पड़ेगा ही। क्या यह सब अपने झूठ की पोल खुल जाने के बाद उधर से सबका ध्यान हटाने की कोशिश भर नहीं लगती? यह इंटरव्यू अभी भी दैनिक 1857 के दिल्ली के प्रतिनिधि के उस मशहूर ब्लाग पर पड़ा हुआ है, जो तमाम चोर-गुरुओं का कच्चा चिट्ठा खोलने में दिन-रात एक किये हुए हैं। अगर वे इतना नेक काम कर रहे थे, उच्च शिक्षण संस्थानों से भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने की पवित्र मुहिम में संलग्न थे तो इसमें इस सफेद झूठ की मदद लेने की क्या जरूरत आ पड़ी? इस तरह वे एक मनुष्य को जानवर बनाने की कोशिश नहीं कर रहे थे तो क्या कर रहे थे?

मुझे कहने की आवश्यकता नहीं कि विभूति नारायण कौन हैं? उनके बारे में प्रसिद्ध बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी बहुत कुछ कह चुकीं हैं, नवारुण भट्टाचार्य बहुत कुछ लिख चुके हैं। हिंदी साहित्य में विभूति अपने रचनात्मक योगदान से जहां खड़े हैं, वह बहुत सारे लेखकों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है। वे अपने पहले ही उपन्यास ‘घर’ से चर्चा में आ गये थे। पुलिस की नौकरी में रहते हुए उन्होंने लगातार काम किया। ‘शहर में कर्फ्यू’, ‘किस्सा लोकतंत्र’, ‘तबादला’ और ‘प्रेम की भूतकथा’ तक उन्होंने जितनी ऊंचाई हासिल की, वैसी ऊंचाई इस उम्र में कम ही लेखकों ने अर्जित की है। व्यवस्था में रहते हुए उसकी चीर-फाड़ बहुत आसान काम नहीं है, पर यह उन्होंने पूरी निर्भयता से किया। व्यंग्य में ‘एक छात्रनेता का रोजनामचा’ और आलोचना में ‘कथा साहित्य के सौ बरस’ उनकी अन्य रचनाएं हैं। इन सबमें ‘शहर में कर्फ्यू’ का साहित्य की दुनिया ने भरपूर स्वागत किया। इस एक उपन्यास ने विभूति नारायण राय को हिंदी जगत में ऊंची जगह दिला दी। इसका अंग्रेजी, बांग्ला, मराठी, उर्दू, पंजाबी आदि कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। नवारुण भट्टाचार्य ने लिखा है,’यह एक विस्मयकारी उपन्यास है। पुलिस में रहते हुए जिस तरह सत्ता और जनता के रिश्तों पर विभूति ने कलम चलायी है, वह विस्मयकारी है।’ विभूति ने ‘सांप्रदायिक दंगे और पुलिस’ पर शोध भी किया, जो खासा चर्चित रहा।

मैं नहीं कहता कि चूंकि विभूति नारायण राय एक बड़े साहित्यकार हैं, प्रतिष्ठित रचनाकार हैं, इसलिए वे कोई भी गलती या गैरकानूनी काम करने के लिए स्वतंत्र हैं। मैं यह भी नहीं कहता कि उनके अतीत की उपलब्धियों के नाते हर गलती के लिए उन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। गलती कोई भी कर सकता है, कुछ लोग जानबूझकर भी गलतियां करते हैं। जिस गलती से किसी व्यक्ति, समाज या देश का नुकसान हो सकता है, उसका खुलकर प्रतिकार होना ही चाहिए। इसी संदर्भ में जहां तक विभूति नारायण राय का प्रश्न है, पहले तो यह तय होना चाहिए था कि उन्होंने कोई गलती की है या नहीं। उन्होंने एक भूमिहार को पत्रकारिता विभाग का अध्यक्ष बनाया, यह बात आखिर क्यों कही जा रही है? क्या भूमिहार होते ही कोई आदमी अयोग्य हो जाता है? और अगर अनिल कुमार राय अंकित अयोग्य थे, उन्होंने तमाम विदेशी लेखकों की किताबों से सामग्री बिना उनका संदर्भ दिये चुरा ली थी तो अब तक पत्रकारों की तत्वभेदी नजर उन पर क्यों नहीं गयी? वे वर्धा आने से पहले भी तो कई विश्वविद्यालयों में बड़े पदों को सुशोभित कर चुके थे? अब किसी नियुक्ति के पहले सीबीआई से जांच कराने की परंपरा तो है नहीं। हां, जब यह मामला प्रेस में आया तो इस पर जांच बिठा दी गयी है। उसका परिणाम आने तक तो धैर्य रखना चाहिए।

एक प्रोफेसर की नियुक्ति का अनुमोदन न होने से भी उनके चहने वालों में नाराजगी है लेकिन सबको यह मालूम होना चाहिए कि किसी विश्वविद्यालय में कुलपति सर्वसमर्थ नहीं होता। अगर इ.सी., कार्य परिषद उसकी सिफारिश न माने तो? यह इस देश की स्वीकृत परंपरा है कि लोकतांत्रिक संस्थानों में किसी एक व्यक्ति को सारे अधिकार नहीं दिये जाते। विभूति स्वयं कह चुके हैं कि अंकित के मामले की जांच करायी जा रही है और अगर वे दोषी पाये गये तो बचेंगे नहीं, इसके बावजूद उनके लिए महाजुगाड़ी, शैक्षणिक कदाचारी, मैटर चोर प्रेमी पुलिसिया कुलपति जैसे संबोधनों का प्रयोग संयम खो देने या खिसिया जाने से इतर और क्या हो सकता है? लिखने की आजादी का अर्थ यह नहीं है कि भाषा की तमीज ही खो दें। कुछ भी ऐसा नहीं है जो संजीदा शब्दों में बयान नहीं हो सकता। तीखा से तीखा हमला भी संयत तरीके से किया जा सकता है। भाषा बिगड़ती है तो लगता है कि या तो कोई स्वार्थ है या गु्स्सा है या बोलने वाला भाषा में गंवार है।

दिल्ली में सबको पता है कि किस तरह वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र सेंगर के मजबूत नाम की आड़ लेकर विभूति नारायण राय को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गयी। यह सदकर्म उन तथाकथित युधिष्ठिरों ने किया, जो शिक्षा जगत के सभी दुशासनों, दुर्योधनों को पराजित करने की तैयारी कर चुके हैं। पर वे नहीं जानते कि उनके हाथ में जो झूठ की म्यान है, उसमें से असली तलवार नहीं निकलने वाली। सच्ची लड़ाई के लिए हथियार भी सच्चे होने चाहिए। सच का महासमर झूठ के बूते नहीं जीता जा सकता क्योंकि झूठ का भांडा एक न एक दिन फूटता ही है। और जब आप के पास पुख्ता प्रमाण हों, मजबूत तर्क हों तो भाषा के कान उमेठने की कोई जरूरत ही नहीं है। ऐसे में तो साफ और सीधी बात में भी उन गालियों से ज्यादा ताकत होगी, जो सत्ताचक्र, दैनिक 1857 और कुछ अन्य अखाड़िये ब्लागबाज विभूतिनारायण राय के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

हिंदी का मुंह टेढ़ा नहीं है। अगर कोई आईना आप का मुंह टेढ़ा दिखाये तो दोष आईने का ही होगा, उसमें चेहरा देखने वाले का नहीं। विभूति नारायण राय अगर समाज के दुश्मन हैं, हिंदी के शत्रु हैं, शिक्षा जगत के तानाशाह हैं तो साफ-सुथरी हिंदी में यह बात कहने की पूरी सामर्थ्य है, उसके लिए नये विद्रूप और बीमार शब्दों को गढ़ने की आवश्यकता नहीं है। कलम लिखने के काम आती है, खूब लिखिये लेकिन उसे किसी के सिर में घोंपने का पागलपन ठीक नहीं है। मैं विभूति नारायण राय, अनिल कुमार राय या अनिल चमड़िया में से किसी का बचाव या समर्थन नहीं करना चाहता लेकिन शब्दों की शक्ति और मर्यादा का बचाव करने के लिए हमेशा खड़ा मिलूंगा। आप अगर शब्दों से आजीविका कमा रहे हैं तो सत्य बोलिए, यह आप का धर्म है पर उनके लिए उचित शब्द भी चुनिये। तभी आप की बात लोग सुनेंगे, तभी उसका असर भी होगा।

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लेखक सुभाष राय वरिष्ठ पत्रकार हैं. लंबे समय तक अमर उजाला, आगरा के संपादक रहे और इन दिनों आगरा में ही ‘डीएलए’ अखबार में संपादक (विचार) पद पर कार्यरत हैं. सुभाष राय से संपर्क 09927500541 के जरिए किया जा सकता है.

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