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बातों बातों में

आवारगी किसे नहीं लुभाती

[caption id="attachment_2287" align="alignleft"]सुभाष रायसुभाष राय[/caption]आवारा के मायने वो नहीं है जो अमूमन लोग लगाते हैं. आजकल किसी को आवारा कह दीजिये, वो लड़ने को आमादा हो जायेगा. इसका प्रयोग अब गाली की तरह होने लगा है. मेरे एक कवि मित्र हैं. जाने-माने कवि हैं.आगरे के हैं. रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी. झूम के गाते हैं. मंच पर कभी कविता सुनाते हैं तो आप समझिये कविता के साथ नाचने लगते हैं. धीरे-धीरे उनका समूचा व्यक्तित्व ही काव्यमयता से भर गया है. वे बात भी करते हैं तो हिलते रहते हैं. बातों की लय पैदा होने लगती है. एक बार उन्होंने अपने एक गीत में आवारा लफ्ज का इस्तेमाल किया. उन्होंने गीत को ही आवारा कह दिया. खूब बहस हुई. फिर सब लोग इस नतीजे पर पहुंचे कि आवारा का मतलब घुमक्कड़ होता है.

सुभाष राय

सुभाष रायआवारा के मायने वो नहीं है जो अमूमन लोग लगाते हैं. आजकल किसी को आवारा कह दीजिये, वो लड़ने को आमादा हो जायेगा. इसका प्रयोग अब गाली की तरह होने लगा है. मेरे एक कवि मित्र हैं. जाने-माने कवि हैं.आगरे के हैं. रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी. झूम के गाते हैं. मंच पर कभी कविता सुनाते हैं तो आप समझिये कविता के साथ नाचने लगते हैं. धीरे-धीरे उनका समूचा व्यक्तित्व ही काव्यमयता से भर गया है. वे बात भी करते हैं तो हिलते रहते हैं. बातों की लय पैदा होने लगती है. एक बार उन्होंने अपने एक गीत में आवारा लफ्ज का इस्तेमाल किया. उन्होंने गीत को ही आवारा कह दिया. खूब बहस हुई. फिर सब लोग इस नतीजे पर पहुंचे कि आवारा का मतलब घुमक्कड़ होता है.

इन अर्थों में तो मैं कह सकता हूँ कि एक ज़माने में मैं भी भारी आवारा था. घूमने में बड़ा मजा आता था. कई बार यह घूमना सिर्फ घूमने के लिए नहीं होता था. जब थैली में पैसा न हो, एक वक्त पेट में निवाला न गया हो तो घुमक्कड़ी कैसे होगी. पढाई-लिखाई के दिनों में मैंने अपनी हालत ऐसी बना रखी थी कि घूमना इसलिए होता था कि कहीं से कुछ सिक्के हाथ लग जाएँ या बन सके तो भोजन ही मिल जाये. काम बनता भी था, कई बार नहीं भी बनता था. नौकरी और शादी के बाद यह आवारगी बंद हो गयी. क्योंकि तब न तो पैसे की ज्यादा जरूरत रह गयी न ही भोजन की अनिश्चितता रह गयी. पर मन के भीतर कहीं यह आवारगी बची हुई थी.

मेरी पत्नी जब भी घर बनाने की बात करतीं, मेरे मन के भीतर छिपा वह आवारा जाग उठता. मकान के गैरजरूरी होने पर लम्बा भाषण झाड़ देता. यार, मकान बनाने का मतलब अपनी कब्र बनाना है. फिर तो हम कहीं नहीं जा सकते, फिर तो तय समझो की इसी शहर में दफन होना है. लेकिन वह नहीं मानीं और उन्होंने एक घर बना ही डाला. घर बनने के बाद सचमुच मेरी वह बात तो सही होती दिख रही है कि अब यहीं मर- मिटना है लेकिन भाई मेरे, मकान होने के अपने मजे भी तो हैं. अब हमें हर साल अपना टीन-टप्पर उठाकर भागना नहीं पड़ता है, नए मकानमालिक की खुजाई नहीं करनी पड़ती है और उसके तमाम मर्मभेदी सवालों के जवाब नहीं देने पड़ते हैं.

दरअसल यह सब मुझे याद इसलिए आ गया क्योंकि मेरे एक जिगरी दोस्त ने अपना घर बनाया तो हमें वहां जाना पड़ा. बंशीधर मिश्र एक वरिष्ठ पत्रकार और सशक्त लेखक हैं. उनके और मेरे सोचने में काफी समानता रहती है. घर की बात उन्हें भी देर से समझ में आयी. आयी नहीं कान पकड़कर लाई गयी. उनके गृहप्रवेश पर मैं भी मौजूद था. और भी कई मित्र थे. इस तरह हम दोनों की आवारगी पर अंकुश तो लग गया है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि आवारगी एकदम ख़त्म हो गयी है. मन को मौके की तलाश रहेगी और न जाने कब वह फिर से अपन डेरा-डंडा उठा ले, गाते हुए निकल पड़े–मैं आवारा हूँ.

लेखक सुभाष राय वरिष्ठ पत्रकार हैं. लंबे समय तक अमर उजाला, आगरा के संपादक रहे और इन दिनों आगरा में ही ‘डीएलए’ अखबार में संपादक (विचार) पद पर कार्यरत हैं. सुभाष से संपर्क 09927500541 के जरिए किया जा सकता है. 

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