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बातों बातों में

तुलसी का पौराणिक व औषधि जनित महत्व

डा. राधेश्याम द्विवेदी

धार्मिक महत्व:- तुलसी के ऊपर एक पृथक पुराण लिखा जा सकता है, संक्षेप में तुलसी का धार्मिक सांस्कृतिक व औषधि जनित महत्व बताने की कोशिश कर रहा हूँ । विष्णु पुराण, ब्रह्म-पुराण, स्कन्द-पुराण, देवी भागवत पुराण के अनुसार तुलसी की उत्पति की अनेक कथाएँ हैं, पर एक कथा के अनुसार- समुन्द्र-मंथन करते समय जब अमृत निकला, तो कलश को देखकर श्रम की सार्थकता से वशीभूत होकर देवताओं के नेत्रों से अश्रुस्राव हो उठा और उन बूंदों से तुलसी वृक्ष उत्पन्न हुए । एक कथा के अनुसार तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था. वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी.

<p><strong>डा. राधेश्याम द्विवेदी</strong><br /><br />धार्मिक महत्व:- तुलसी के ऊपर एक पृथक पुराण लिखा जा सकता है, संक्षेप में तुलसी का धार्मिक सांस्कृतिक व औषधि जनित महत्व बताने की कोशिश कर रहा हूँ । विष्णु पुराण, ब्रह्म-पुराण, स्कन्द-पुराण, देवी भागवत पुराण के अनुसार तुलसी की उत्पति की अनेक कथाएँ हैं, पर एक कथा के अनुसार- समुन्द्र-मंथन करते समय जब अमृत निकला, तो कलश को देखकर श्रम की सार्थकता से वशीभूत होकर देवताओं के नेत्रों से अश्रुस्राव हो उठा और उन बूंदों से तुलसी वृक्ष उत्पन्न हुए । एक कथा के अनुसार तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था. वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी.

डा. राधेश्याम द्विवेदी

धार्मिक महत्व:- तुलसी के ऊपर एक पृथक पुराण लिखा जा सकता है, संक्षेप में तुलसी का धार्मिक सांस्कृतिक व औषधि जनित महत्व बताने की कोशिश कर रहा हूँ । विष्णु पुराण, ब्रह्म-पुराण, स्कन्द-पुराण, देवी भागवत पुराण के अनुसार तुलसी की उत्पति की अनेक कथाएँ हैं, पर एक कथा के अनुसार- समुन्द्र-मंथन करते समय जब अमृत निकला, तो कलश को देखकर श्रम की सार्थकता से वशीभूत होकर देवताओं के नेत्रों से अश्रुस्राव हो उठा और उन बूंदों से तुलसी वृक्ष उत्पन्न हुए । एक कथा के अनुसार तुलसी(पौधा) पूर्व जन्म मे एक लड़की थी जिस का नाम वृंदा था, राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा, पूजा किया करती थी.जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया। जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था. वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी. एक बार देवताओ और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा – स्वामी आप युद्ध पर जा रहे है आप जब तक युद्ध में रहेगे में पूजा में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नही छोडूगी। जलंधर तो युद्ध में चले गये,और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गयी, उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो विष्णु जी के पास गये। सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि – वृंदा मेरी परम भक्त है में उसके साथ छल नहीं कर सकता । फिर देवता बोले – भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते है।

भगवान ने जलंधर का ही रूप रखा और वृंदा के महल में पँहुच गये जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वे तुरंत पूजा मे से उठ गई और उनके चरणों को छू लिए,जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया,उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पडा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है?

उन्होंने पूछा – आप कौन हो जिसका स्पर्श मैने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गये पर वे कुछ ना बोल सके,वृंदा सारी बात समझ गई, उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, और भगवान तुंरत पत्थर के हो गये। सभी देवता हाहाकार करने लगे लक्ष्मी जी रोने लगे और प्रार्थना करने लगे यब वृंदा जी ने भगवान को वापस वैसा ही कर दिया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गयी। उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा –आज से इनका नाम तुलसी है, और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है. देव-उठावनी एकादशी के दिन इसे तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है !

सांस्कृतिक महत्व:- तुलसी का सांस्कृतिक महत्व यह है कि घर में तुलसी बोने से तथा दर्शन करने से ब्रहम-हत्या जैसे पाप भी नष्ट हो जाते है । हजारों आम और पीपल बोने का जो फल है वह एक तुलसी वृक्ष को रोपने का है । तुलसी की जड़ में कार्तिक मास में, जो शाम को दीपक जलाते हैं , उनके घर में श्री और संतान की वृद्धि होती है तथा तुलसी की मंजरी से श्रावन भाद्रपद में भगवान् विष्णु को चंदन अर्पण करते हैं , वे लोग मृत्यु के पश्चात विष्णु लोक को जाते हैं क्योंकि तुलसी को विष्णु प्रिय भी कहते हैं । तुलसी को बोने से उसको दूध से सींचने पर स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । तुलसी की मृत्तिका को माथे पर लगाने से तेजस्विता बढ़ती है । तुलसी- युक्त जल से स्नान करते समय ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ का जप करने से प्रेतबाधा से मुक्ति मिलती है । तुलसी के पत्ते एक माह तक बासी नहीं माने जाते हैं । तुलसी के स्तोत्र , मन्त्र , कवच आदि के पठन और पूजा से पूजन भोग और मोक्ष प्राप्त होता है और समस्त इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, ऐसी देवी भागवत पुराण में कथाएँ हैं। कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी पूजन का उत्सव मनाया जाता है, किंतु उत्तर भारत में इसका विशेष महत्त्व है वैसे तो तुलसी विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल नवमी की तिथि ठीक है परन्तु कुछ लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पांचवें दिन तुलसी का विवाह करते हैं । तुलसी विवाह की यही पद्धति अधिक प्रचलित है।  ‘वृंदा, वृन्दावनी, विश्वपावनी, विश्व्पुजिता, पुष्पसारा, नंदिनी, तुलसी, कृष्णाजीवनी’ इन आठ नामों के जप से अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है । 

औषधि जनित महत्व:- तुलसी का औषधि जनित महत्व यह है कि भारतीयों के लिए यह गंगा यमुना के समान पवित्र है, तुलसी की हिन्दू संस्कृति में धार्मिक महत्व कहकर  पूजा की जाती है । लेकिन जितना उसका हमारे औषधि-शास्त्र से सम्बन्ध है उतना अन्य किसी भी औषधि से मनुष्य का सम्बन्ध नहीं है । लगभग सभी रोगों में अनुपात भेद और मिश्रण के साथ इसका प्रयोग किया जाता सकता है । आयुर्वेद-जगत में प्रत्येक रोग में काम आने वाली औषधियों में प्रमुख तुलसी या मकरध्वज है, जिसकी प्रयोग-विधि जान लेने से वैध संसार के लगभग  सभी रोगों से लड़ सकता है, तुलसी में २७ तरह के खनिज पाए जाते हैं ।

तुलसी को विश्व में (Ocimum sanctum) ओसियम सेंटम के नाम से जाना जाता है । जिसके २२ भेद हैं, लेकिन मुख्यतया कृष्ण तुलसी, श्वेत तुलसी, गंध तुलसी, राम तुलसी, बन तुलसी, बिल्वगंध तुलसी, बर्बरी तुलसी, के नाम से जानी जाती है। तुलसी को सर्वरोग संहारक प्रवृत्ति के कारण ही घर में घरेलू वस्तु की श्रेणी में रखा है । तुलसी की गंध से मलेरिया के मच्छर दूर रहते है क्योंकि इसके पौधे में प्रबल विधुत-शक्ति होती है, जोकि पौधे के चारों और दो सौ गज रहती है । तुलसी की लकड़ी धारण करने से शरीर की विधुत शक्ति नष्ट नही होती इसी लिए इसकी माला पहनने का प्रचलन है । तुलसी की लकड़ी के टुकडों की माला पहनने से किसी भी प्रकार की संक्रामक बीमारी का भय नही रहता है।आयुर्वेद के मत में यह पथरी, रक्तदोष, पसलियों के दर्द, चर्मरोग, कफ और वायुनाशक है इसके पत्तों को दांतों से नहीं चबाना चाहिए, क्योंकि इसकी पत्तियों में पारा होता है । काली तुलसी का रस शरीर से पारे का विष नष्ट कर सकता है , इसलिए इसे निगलना ही अच्छा है । हिंदू शास्त्रों में लिखा है कि जिनके घर में लहलहाता तुलसी का वृक्ष रहता है उनके यहाँ कोई विपदा नही हो सकती है । यानि जब वृक्ष अचानक प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाए, तो कोई घर पर भारी संकट आने वाला है ।( ऐसा कहा जाता है) तुलसी की चाय नित्य कई बार पीना सर्वगुण सम्पन्नता का प्रतीक है , जबकि चाय व्यवहार मैं नुकसान पहुंचाती है । कर्णमूल में और जुकाम में तुलसी की पत्ती का रस तुंरत आराम देता है ।

तुलसी के वृक्ष की देखभाल करने के लिए भी कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए जून-जुलाई-अगस्त इन मासों में तुलसी को बोने से यह जल्दी अंकुरित होती है, यदि तुलसी को वृक्ष से अलग करें, तो उसकी मंजरी और पास के पत्ते तोड़ना चाहिए ताकि वृक्ष अधिक बढे । यही नहीं मंजरी तोड़ने से भी वृक्ष खूब बढ़ता है । यदि पत्तों में छेद दिखाई दें तो गोबर के कंडों की राख कीटनाशक औषधि के रूप में प्रयोग करना चाहिए। उबली चाय की पत्ती धोकर तुलसी की श्रेष्ट खाद्य के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । और एक बात और है कि तुलसी की पूजा की जाती है इसलिए कुछ अवस्थाओं में इसको छूना निषेद माना गया है जैसे तेल की मालिश करके , बिना नहाये , संध्या के समय, रात्री को और अशुद्ध अवस्था में इसको छूना नहीं चाहिए ।

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