बृजेश सती / देहरादून
कांग्रेस से कोई उम्मीद मत कीजिए। लोकतंत्र उनके स्वभाव में नहीं है। वो परिवारवाद की राजनीति से जिंदा हैं और सोचते हैं कि लोग उनकी जेब में हैं। ये बातें नरेन्द्र भाई मोदी ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान कही थी। लेकिन अब वक्त बदलने के साथ ही नियत और सोच दोनों बदल गई है। जो मन की बात आज से तीन साल पहले उन्होंने लोगों से साझा की थी, उसी परिवारवाद की आक्सीजन के सहारे अब भाजपा भी जीवित रहने की उम्मीद पाल रही है। उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव में टिकट बंटबारे में जिस तरह से परिवारवाद हावी रहा, उसने भाजपा में बढते परिवारवाद के संक्रमण की तस्वीर साफ कर दी है। सियासी अंक गणित के खेल में भाजपा अपने खुद के ऐजेंडे से न केवल पीछे होती दिखाई दे रही है बल्कि परिवारवाद के घेरे में भी घिरती हुई नजर आ रही है। दूसरी ओर कांग्रेस ने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए उत्तराखंड में एक परिवार से एक टिकट के फार्मूले को अमल में लाकर भाजपा को बैकफुट पर खडा कर दिया है।
देश में कांग्रेस पार्टी के विरोध का एक अहम कारण पार्टी में परिवारवाद के बढता प्रभाव को माना जाता रहा है। समय समय पर इसको लेकर कांग्रेस हाईकमान पर तंज कसे जाते रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षक जनता में कांग्रेस के गिरते ग्राफ के लिए परिवारवाद को भी भी प्रमुख कारक मानते हैं। आजादी के बाद के कई सालों तक कंाग्रेस की पूरी सियासत एक ही परिवार के इर्द गिर्द घूमती रही है। विपक्षी दल भी लम्बे समय तक इस मुददे पर कांग्रेस पर प्रहार करते रहे। परिवारवाद को लेकर कांग्रेस किस तरह से अपने राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर रही, इसको वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान के भारतीय जनता पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं के बयानों से समझा जा सकता है। खासतौर से भाजपा के लिए यह कांग्रेस पर आक्रमण के लिए प्रमुख मुददा भी रहा।
स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी ने एक चुनावी सभा में वर्ष 2014 में कहा था कि कांगस्रे से उम्मीद मत कीजिए लोकतंत्र उनके स्वभाव में नहीं है। वो परिवारवाद की राजनीति से जिंदा हैं। मोदी ने यह बात तब कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए कही थी। लेकिन बदली राजनीतिक परिस्थितियों में उनकी सार्वजनिक मंचों पर कही गई बातें अब उनके ही दल पर लागू हो रही हैं। देश के जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उसमें उत्तर प्रदेश व उससे अलग हुआ उत्तराखंड भी शामिल है। इन राज्यों में एक समानता टिकट वितरण में भाजपा में दिखाई दे रही है वह बढता परिवारवाद है। उत्तर प्रदेश में केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के पोते संदीप सिंह, हुकुम सिंह की पुत्री मृगांका सिंह व वहुजन समाज पार्टी से भाजपा में आये स्वामी प्रसाद मौर्य के पुत्र उत्कर्ष मौर्य का नाम शामिल है। उत्तराखंड की तस्वीर भी इससे जुदा नहीं हैं। यहां कांग्रेस छोड भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के कुछ घंटों बाद ही पिता व पुत्र को विधानसभा का टिकट दिया गया। इसके अलावा पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूरी की पुत्री को भी यमकेश्वर से तीन वार की सीटिंग विधायक का टिकट काटकर प्रत्यासी बनाया गया। केन्द्रीय गृह मंत्री के समधी जो पिछले कुछ समय से राजनीतिक गतिविधियों से दूरी बनाये हुए थे को भी सीटिंग विधायक का टिकट काटकर धनोल्टी से भाजपा ने उम्मीदवार बनाया गया। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पुत्र को भी सितारगंज से पार्टी ने टिकट दिया है। देहरादून जनपद की दो सीटों चकरोता व विकासनगर में तो पार्टी ने पति और पत्नी दोनों पर ही दांव खेला है।
भाजपा आलाकमान ने परिवारवाद को बढावा देने का जो प्रयोग दो राज्यों में किया है उससे पार्टी को विधानसभा चुनावों में कितना लाभ होगा, यह चुनाव नतीजों के बाद ही पता चल पायेगा लेकिन इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम से यह बात साफ हो गई कि भाजपा आने बुनियादी उसूलों से भटक गई है। केन्द्र की सत्ता संभालने और विश्व की सबसे बडी पार्टी बनने के बाद यदि वो परिवारवाद के सहारे सत्ता हासिल करने में असफल रही तो पार्टीथिंक टैंक को जवाब देना भारी पड सकता है। परिवारवाद पर हमेशा मुखर रहे पीएम मोदी की इस प्रकरण में खामोशी, तरह तरह के सवालों को खडा कर रही है। ऐसी कौन सी सियासी मजबूरी है कि जिस मुददे को लेकर सालों से कांग्रेस पर निशाना साधा गया उस पर आखिर मौन क्यों!
लेखक बृजेश सती पत्रकार हैं.