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उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव : इस बार भी दहाई से ऊपर नहीं उठेगी कांग्रेस

अजय कुमार, लखनऊ

उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस गठबंधन आखिर परवान चढ़ ही गया। कांग्रेस ने हवा में उड़ने की बजाये जमीनी हकीकत समझ कर गठबंधन का जो फैसला लिया है,उससे यूपी में मरणासन स्थिति में पड़ी कांग्रेस में कितनी उर्जा पैदा होगी, इस बात का अंदाजा 11 मार्च को वोटिंग मशीन खुलने के बाद लगेगा,लेकिन जो दिख रहा है उस पर गौर किया जाये तो राष्ट्रीय दल कांग्रेस जिसका एक समय पूरे देश में राज था, वह अब क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी की बी टीम बनकर चुनाव लड़ेगी। वह दल जो कभी कांग्रेस की छत्र छाया में सियासत करते थे, आज कांग्रेस को उन्हीं के सामने नतमस्तक होना पड़ रहा है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, असम आदि कई राज्यों में अपना जनाधार खोने के बाद उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस हासिये पर चली गई है। 403 विधान सभा सीटों में से कांग्रेस मात्र 105 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इसमें से कितनी जीत कर आयेगी, यह देखने वाली बात होगी।

<p><strong>अजय कुमार, लखनऊ</strong><br /><br />उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस गठबंधन आखिर परवान चढ़ ही गया। कांग्रेस ने हवा में उड़ने की बजाये जमीनी हकीकत समझ कर गठबंधन का जो फैसला लिया है,उससे यूपी में मरणासन स्थिति में पड़ी कांग्रेस में कितनी उर्जा पैदा होगी, इस बात का अंदाजा 11 मार्च को वोटिंग मशीन खुलने के बाद लगेगा,लेकिन जो दिख रहा है उस पर गौर किया जाये तो राष्ट्रीय दल कांग्रेस जिसका एक समय पूरे देश में राज था, वह अब क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी की बी टीम बनकर चुनाव लड़ेगी। वह दल जो कभी कांग्रेस की छत्र छाया में सियासत करते थे, आज कांग्रेस को उन्हीं के सामने नतमस्तक होना पड़ रहा है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, असम आदि कई राज्यों में अपना जनाधार खोने के बाद उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस हासिये पर चली गई है। 403 विधान सभा सीटों में से कांग्रेस मात्र 105 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इसमें से कितनी जीत कर आयेगी, यह देखने वाली बात होगी।</p>

अजय कुमार, लखनऊ

उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस गठबंधन आखिर परवान चढ़ ही गया। कांग्रेस ने हवा में उड़ने की बजाये जमीनी हकीकत समझ कर गठबंधन का जो फैसला लिया है,उससे यूपी में मरणासन स्थिति में पड़ी कांग्रेस में कितनी उर्जा पैदा होगी, इस बात का अंदाजा 11 मार्च को वोटिंग मशीन खुलने के बाद लगेगा,लेकिन जो दिख रहा है उस पर गौर किया जाये तो राष्ट्रीय दल कांग्रेस जिसका एक समय पूरे देश में राज था, वह अब क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी की बी टीम बनकर चुनाव लड़ेगी। वह दल जो कभी कांग्रेस की छत्र छाया में सियासत करते थे, आज कांग्रेस को उन्हीं के सामने नतमस्तक होना पड़ रहा है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, असम आदि कई राज्यों में अपना जनाधार खोने के बाद उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस हासिये पर चली गई है। 403 विधान सभा सीटों में से कांग्रेस मात्र 105 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इसमें से कितनी जीत कर आयेगी, यह देखने वाली बात होगी।

कांग्रेस जितनी भी सीटों पर चुनाव जीतेगी,उसका पूरा श्रेय कांग्रेस के खाते में नहीं जायेगा। सपा भी उसमें अपनी दावेदारी जतायेगी। क्योंकि गठबंधन से पहले ही समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को सह जता दिया था कि वह यूपी में अपने बल पर चुनाव लड़ने की हैसियत नहीं रखती है। इसीलये सपा-कांग्रेस के बीच गठबंधन की घोषणा के बीच दोंनो दलों की ओर से काफी लम्बा क्लाइमेक्स क्रिएट किया गया था। शायद यह गठबंधन काफी पहले आकार ले लेता,लेकिन कांग्रेस द्वारा ‘हैसियत’ से अधिक दावेदारी ठोकने की वजह से  गठबंधन में देरी तो हुई ही इसके साथ-साथ  जनता के बीच उसकी किरकिरी भी हुई।

गठबंधन के पेंच तो सुलझ गये,लेकिन गठबंधन की कोशिशों के दरमयान यह भी साफ हो गया कि गठबंधन को लेकर कांग्रेस को काफी झुकना पड़ा। गठबंधन अखिलेश और सपा की शर्ताे पर ही हुआ। सपा ने पहले ही तय कर लिया था कि कांग्रेस को सौ के करीब सीटें दी जायेंगी और उतने पर ही कांग्रेस को संतोष भी करना पड़ा। असल में कांग्रेस की मजबूरी को सपा नेतृत्व भली भांति समझ गया था। कांग्रेस का यूपी में कोई वजूद नहीं है। उसके मात्र 28 विधायक हैं इसके अलावा 2012 के विधान सभा चुनाव में उसके सिर्फ 26 प्रत्याशी ही नंबर दो पर ठहर पाये थे,जबकि कांग्रेस सीटें सवा सौ से ऊपर चाह रही थी। रायबरेली और अमेठी को लेकर कांग्रेसी इतने भावुक थे कि वह चाहते थें कि यहां से 2012 में  जीती हुई सीटों पर भी सपा चुनाव न लड़े।

दरअसल, कांग्रेस की मजबूरी है कि वह अकेले चुनाव जीत ही नहीं सकती है और अन्य कोई दल उसे तवज्जो दे नहीं रहा है। ऐसे में एक निजी समाचार चैनल के कार्यक्रम के दौरान अखिलेश ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का शिगूफा छोड़ा कांग्रेस की बांछें खिल गईं। कांग्रेसी सपा के सहारे सत्ता का स्वाद चखने का सपना देखने लगे। बड़ी-बड़ी बातें करने वाले कांग्रेसियो को जरा भी इस बात की चिंता नहीं रही कि इससे उसके भविष्य की देशव्यापी राजनीति पर कितना कुप्रभाव पड़ेगा। कार्यकर्ताओं के हौसले पस्त पड़ जायेंगे। असल में कांग्रेस के प्रति सपा नेतृत्व ने जो रवैया अख्तियार कर रखा था, उसे सहना कांग्रेस की मजबूरी बन गई है। इसी के चलते वह सपा से धोखा खाने तक से परहेज नहीं कर रही थी।

बहरहाल, सीटों के बंटवारे और अहं के टकराव को लेकर अधर में दिख रहे कांग्रेस-सपा के गठबंधन को उस समय नई जान मिल गई जब  प्रियंका गांधी ने गठबंधन की कमान संभाली,कांग्रेस के दूत प्रशांत किशोर को बातचीत के लिये आगे किया गया। तब जाकर बात बन पाई,मगर सपा की शर्तो पर। अब गठबंधन हो गया है। परंतु इसमें कई किन्तु-परंतु भी लगे हैं।अब देखने वाली बात यह होगी कि राहुल और अखिलेश कितनी  जगह संयुक्त रैलियां करेंगे और जब राहुल-अखिलेश चुनाव प्रचार में एक साथ जायेंगे तो तो दोंनो में से कौन बड़ा नजर आयेगा। राहुल को शायद ही बर्दाश्त हो कि अखिलेश उनके सामने ‘लम्बी लाइन’ खींचे।

लब्बोलुआब यह है कि इस गठबंधन से फायदा तो दोंनो ही दलों को होगा, मगर कांग्रेस को यूपी में सपा की बी टीम बनकर ही रहना पड़ेगा। संभावना इस बात की भी है कि 2019 तक तो यह गठबंधन किसी तरह से खिंचता रहेगा,लेकिन लोकसभा चुनाव के समय अखिलेश और राहुल की महत्वाकांक्षा में टकराव पैदा हो सकता है। इतिहास में भी ऐसे संकेत मिलते हैं कि कांग्रेस और सपा के संबंध हमेशा कलह से भरे रहे हैं। आज भले ही कांग्रेस और सपा करीब हों,लेकिन सोनिया गांधी यह नहीं भूल सकती हैं कि मुलायम की वजह से वह पीएन की कुर्सी पर नहीं बैठ सकीं थी तो मुलायम को भी हमेशा इस बात का मलाल रहा कि लालू के कहने पर सोनिया गांधी ने उनके पीएम बनने की राह में अवरोध पैदा किया था। यूपी के पुराने कांग्रेसी नेता जानते-मानते हैं कि आज जो उत्तर प्रद्रेश मं कांग्रेस की दुर्दशा है, उसका कारण सपा ही है। फिर भी कांग्रेस ने ये गठबंधन करके बड़ा रिस्क लिया है। उधर,चर्चा यह भी है कि यूपी विधान सभा चुनाव प्रियंका गांधी के राजनीतिक सफर का रुख भी तय कर सकते हैं।

राहुल की लगातार नाकामयाबी और राजनीति में उनकी अरूचि के चलते अक्सर प्रियंका को आगे किये जाने की बात चलती रहती है। जिस तरह अहमद पटेल ने गठबंधन के मामले में प्रियंका का नाम लेकर ट्वीट किया उससे भी  साफ जाहिर है कि प्रियंका विधिवत रूप से सक्रिय राजनीति में आ चुकी हैं। वैसे, एक बात पर और ध्यान दिया जाना जरूरी है। सपा-कांग्रेस के इस गठबंधन में साल 2004 के लोकसभा चुनावों की झलक भी देखने को मिल रही है। उस समय तत्कालीन एनडीए सरकार को हटाने के लिये सोनिया गांधी ने तमाम क्षेत्रीय दलों को एक मंच पर खड़ा करने में कामयाबी हासिल की थी और अब उसी फार्मूले का राहुल इस्तेमाल कर रहे हैं,लेकिन इस खेल के पीछे असली भूमिका प्रियंका गांधी की है।

प्रियंका की बदौलत ही ये गठबंधन पूरा हो सका। प्रियंका की कोशिश है कि सपा-कांग्रेस के गठजोड़ को महागठबंधन के तौर पर पेश किया जाए और देशभर की गैर बीजेपी विरोधी पार्टियों को इस बहाने एक साथ ला कर 2019 की तैयारी की जा सके। इस गठबंधन में सोनिया-मुलायम वाली तल्खी नहीं, प्रियंका और डिंपल की जुगलबंदी है. अगर इस गठबंधन का हिस्सा राष्ट्रीय लोकदल भी बन जाता तो यह ‘सोने पर सुहागा’ हो सकता था। कुछ राजनैतिक पंडित तो यह भी कहते हैं कि 2019 लोकसभा की लड़ाई शुरू हो गई है। बीतते समय के साथ आने वाले दिनों में और भी राजनीतिक गठबंधन नजर आएंगे।

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वैसे, यूपी चुनाव में गठबंधन का इतिहास काफी पुराना है। कभी कांग्रेस-सपा जैसा गठबंधन सपा-बसपा के बीच भी हुआ था। 1993 में  सपा-बसपा के गठबंधन में दोनों के बीच 6-6 महीने सीएम रहने का फार्मूला तय हुआ था। इसी फॉर्मूले के तहत पहले बसपा सुप्रीमों मायावती सीएम बनीं, लेकिन छहः महीने बाद जब मुलायम सिंह की बारी आई तो मायावती ने समर्थन वापस ले लिया। 1989 में जब मुलायम सिंह पहली बार यूपी के सीएम बने थे तब बीजेपी ने उन्हें समर्थन दिया था,लेकिन राम मंदिर आंदोलन में लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद बीजेपी ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। 2001 में कांग्रेस ने बीएसपी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया था,परंतु चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी को सरकार बनाने का समर्थन दे दिया था।

लेखक अजय कुमार यूपी के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.

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