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चुनावी बेला में फिर उथल-पुथल से बेचैन सपा

अजय कुमार, लखनऊ

सत्ता में रहते समाजवादी पार्टी के लिये चुनावी वर्ष हमेशा उथल- पुथल वाला रहता है। सपा की बदकिस्मती है कि जब उसकी सरकार अंतिम पड़ाव यानी पांचवें वर्ष में होती है तो प्रदेश में कहीं न कहीं, कोई ने कोई ऐसी घटना हो जाती है जिसका उसे राजनैतिक नुकसान उठना पड़ जाता है। पिछले दो चुनावों में यह खासकर देखने को मिला और  2017 में तीसरी  बार भी यह इतिहास दोहराया जा सकता है, इस बात की संभावना काफी प्रबल हैं। दस वर्ष पूर्व 2007 में मुलायम सिंह यादव को प्रदेश की सत्ता गंवाना पड़ी तो इसकी मुख्य वजह नोयडा का निठारी कांड था। सत्ता में रहते 2014 के आम चुनाव में समाजवादी पार्टी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा तो इसकी बड़ी वजह उसके शासनकाल में हुए मुजफ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगे थे। अब जबकि 2017 में विधान सभा चुनाव सिर पर हैं तो बुलंदशहर में हाईवे पर मॉ-बेटी के साथ गैंग रेप की घटना और उस पर उनकी पार्टी के नेताओं का विवादित बयान पार्टी की जीत में रोड़ा बनत नजर आ रहा है। कमोवेश,एक तरफ अखिलेश विवादों की राजनीति से दूर विकास के मुद्दे पर 2017 के विधान सभा चुनाव लड़ना चाहते हैं तो दूसरी तरफ उनकी पार्टी के ही तमाम नेता अपनी बदजुबानी से सरकार के लिये मुश्किले खड़ी करने से बाज नहीं आ रहे हैं। अखिलेश एक को समझाते हैं तो दूसरे का सुर बिगड़ जाता है। कुछ ‘चाचा टाइप’ नेताओं को तो वह समझा भी नहीं पाते हैं।  

<p><strong>अजय कुमार, लखनऊ</strong></p> <p>सत्ता में रहते समाजवादी पार्टी के लिये चुनावी वर्ष हमेशा उथल- पुथल वाला रहता है। सपा की बदकिस्मती है कि जब उसकी सरकार अंतिम पड़ाव यानी पांचवें वर्ष में होती है तो प्रदेश में कहीं न कहीं, कोई ने कोई ऐसी घटना हो जाती है जिसका उसे राजनैतिक नुकसान उठना पड़ जाता है। पिछले दो चुनावों में यह खासकर देखने को मिला और  2017 में तीसरी  बार भी यह इतिहास दोहराया जा सकता है, इस बात की संभावना काफी प्रबल हैं। दस वर्ष पूर्व 2007 में मुलायम सिंह यादव को प्रदेश की सत्ता गंवाना पड़ी तो इसकी मुख्य वजह नोयडा का निठारी कांड था। सत्ता में रहते 2014 के आम चुनाव में समाजवादी पार्टी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा तो इसकी बड़ी वजह उसके शासनकाल में हुए मुजफ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगे थे। अब जबकि 2017 में विधान सभा चुनाव सिर पर हैं तो बुलंदशहर में हाईवे पर मॉ-बेटी के साथ गैंग रेप की घटना और उस पर उनकी पार्टी के नेताओं का विवादित बयान पार्टी की जीत में रोड़ा बनत नजर आ रहा है। कमोवेश,एक तरफ अखिलेश विवादों की राजनीति से दूर विकास के मुद्दे पर 2017 के विधान सभा चुनाव लड़ना चाहते हैं तो दूसरी तरफ उनकी पार्टी के ही तमाम नेता अपनी बदजुबानी से सरकार के लिये मुश्किले खड़ी करने से बाज नहीं आ रहे हैं। अखिलेश एक को समझाते हैं तो दूसरे का सुर बिगड़ जाता है। कुछ ‘चाचा टाइप’ नेताओं को तो वह समझा भी नहीं पाते हैं।  

अजय कुमार, लखनऊ

सत्ता में रहते समाजवादी पार्टी के लिये चुनावी वर्ष हमेशा उथल- पुथल वाला रहता है। सपा की बदकिस्मती है कि जब उसकी सरकार अंतिम पड़ाव यानी पांचवें वर्ष में होती है तो प्रदेश में कहीं न कहीं, कोई ने कोई ऐसी घटना हो जाती है जिसका उसे राजनैतिक नुकसान उठना पड़ जाता है। पिछले दो चुनावों में यह खासकर देखने को मिला और  2017 में तीसरी  बार भी यह इतिहास दोहराया जा सकता है, इस बात की संभावना काफी प्रबल हैं। दस वर्ष पूर्व 2007 में मुलायम सिंह यादव को प्रदेश की सत्ता गंवाना पड़ी तो इसकी मुख्य वजह नोयडा का निठारी कांड था। सत्ता में रहते 2014 के आम चुनाव में समाजवादी पार्टी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा तो इसकी बड़ी वजह उसके शासनकाल में हुए मुजफ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगे थे। अब जबकि 2017 में विधान सभा चुनाव सिर पर हैं तो बुलंदशहर में हाईवे पर मॉ-बेटी के साथ गैंग रेप की घटना और उस पर उनकी पार्टी के नेताओं का विवादित बयान पार्टी की जीत में रोड़ा बनत नजर आ रहा है। कमोवेश,एक तरफ अखिलेश विवादों की राजनीति से दूर विकास के मुद्दे पर 2017 के विधान सभा चुनाव लड़ना चाहते हैं तो दूसरी तरफ उनकी पार्टी के ही तमाम नेता अपनी बदजुबानी से सरकार के लिये मुश्किले खड़ी करने से बाज नहीं आ रहे हैं। अखिलेश एक को समझाते हैं तो दूसरे का सुर बिगड़ जाता है। कुछ ‘चाचा टाइप’ नेताओं को तो वह समझा भी नहीं पाते हैं।  

चुनावी मौसम में विरोधी दलों के नेता सत्तापक्ष के खिलाफ कुछ ज्यादा ही असहशील रहते हैं। हर तरह के मुद्दो को उछाला जाता है न जाने कौन सा तीर निशाने पर लग जाये, लेकिन ‘चतुर लीडर’ वो ही होता है जो विरोधियों के वार से बचते हुए अपने लिये नई राह तलाश लेता है। युवा अखिलेश इस मामले में काफी परिपक्व नजर आते हैं। विरोधियों पर तीखे हमले करने का कोई मौका अखिलेश नहीं छोड़ते हैं, लेकिन ऐसा करते समय न तो उनकी बोली में शालीनता कम होती है न भाषा का स्तर गिरता है, लेकिन सिर्फ अखिलेश शालीनता दिखाये इससे भी काम नहीं चलता है। उनकी पूरी टीम को ऐसा व्यवहार करना चाहिए,परंतु दुर्भाग्य से सपा में ऐसा होता कम ही दिखता है। कब सपा के किस नेता का सुर बिगड़ जाये कोई नहीं जानता है। बात छोटे-मोटे जिला स्तर के नेताओं की नहीं है यहां तो पार्टी के कर्णधार ही अपनी वाणी से जहर घोलते रहते हैं। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव से लेकर आजम खान, शिवपाल यादव किस-किस का नाम गिनाया जाये। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव का बलात्कारियों के पक्ष में दिया गया बयान, ‘बच्चे हैं गलती हो जाती है, कोई फांसी पर तो नहीं लटका दिया जायेगा’ को कौन भूल सकता है। मुलायम की तरह शिवपाल यादव के विवादास्पद बयान भी खूब सुर्खिंया बटोरते रहे हैं। समय के साथ शिवपाल यादव ने तो अपने आप को काफी कंट्रोल कर लिया है, लेकिन आजम खान अभी भी जब मुंह खोलते हैं तो जहर ही उगलते हैं। अपने को पार्टी से ऊपर समझने वाले आजम खान को न तो इस बात की चिंता रहती है कि उनके कड़वे बोल से सरकार की छवि पर क्या असर पड़ेगा, न उन्हें मुख्यमंत्री की फटकार का डर रहता है। कहने को तो वह पार्टी में ‘नेताजी’ के अलावा किसी को ‘भाव’ नहीं देते हें, लेकिन जब अपने पर आ जाते हैं तो फिर नेताजी को भी खरी-खरी सुना देते हैं।

बहरहाल, बात पिछले दो चुनावों (2007 और 2017) में चुनावी साल में समाजवादी पार्टी से जुड़े विवादों की कि जाये तो नोयडा का निठारी कांड सबसे पहले जहन में आता है। 2007 के विधान सभा चुनाव से कुछ माह पूर्व नोएडा के डी-5 कोठी में सिलसिलेवार हो रहे हत्याकांड का खुलासा 20 दिसंबर 2006 को नोएडा पुलिस ने किया था, जिसने यूपी की सियासत को हिलाकर रख दिया था। डी-5 कोठी में आसपास के इलाकों से 2005 से गायब हो रहे बच्चों की लगातार हत्या की जा रही थी। इस कांड में कोठी मालिक मनिंदर सिंह पंढेर और उसके नौकर सुरिंदर कोली को आरोपी बनाया गया। सुरिंदर कोली नौकर के रूप में कोठी के गेट पर नजर रखता था और शाम ढलने वक्त जब इलाके में सन्नाटा छा जाता था तो वहां से गुजरने वाली लड़कियों को पकड़ लेता और उनका मुंह बांध कर उससे दुष्कर्म करता और फिर उसकी हत्या कर देता था। उस पर शव के साथ दुष्कर्म करने का आरोप और उसके बाद शव के टुकड़े कर उसे खाने और फिर बचे टुकड़े को दफन कर देने का आरोप भी लगा। उस समय मीडिया में इस तरह की भी खबरें भी आयी थी कि उसके रिश्ते उस समय उत्तर प्रदेश के एक ताकतवर नेता से भी थे।

नोयडा के निठारी कांड को लेकर तत्कालीन मुलायम सरकार की काफी किरकिरी हुई थी। विधान सभा चुनाव सिर पर था मीडिया में जो रिपोर्ट आ रही थीं,वह बताने के लिये पर्याप्त थीं कि पार्टी को इस कांड से बड़ा नुकसान हो सकता है। पार्टी के तमाम छोटे-बड़े नेता सफाई देते-देते थके जा रहे थे। मामला जब काफी आगे बढ़ गया तो  जांच सीबीआई को सौंप दी गई। इसी बीच सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के भाई और उनकी कैबिनेट में मंत्री शिवपाल यादव के एक बयान ने पूरी तरह से बैकफुट पर ढकेल दिया। मीडिया के सामने शेखी मारते हुए शिवपाल ने कह दिया था कि यह (निठारी कांड) रूटीन की घटना है, यह तब हुआ था जबकि पूरे देश में निठारी कांड को लेकर धरना-प्रर्दशन और विरोध का दौर चल रहा था। शिवपाल यादव का बयान आने भर की देर थी, सपा की सियासत में भूचाल आ गया। विरोधियों ने चारों तरफ से मुलायम सरकार की घेराबंदी शुरू कर दी जो मुलायम सिंह की सत्ता से विदाई का बड़ा कारण बना। 2007 के विधान सभा चुनाव में हार का मुंह देखने के बाद कई सपा नेताओं ने यह स्वीकार भी कि सपा की हार की कई वजहों में से निठारी कांड एक प्रमुख वजह रहा, जिसे विरोधी और खासकर बसपा बड़ा सियासी मुद्दा बनाने में सफल रही थी। पांच वर्षो के वनवास के बाद 2012 कें सपा की फिर वापसी हुई। अखिलेश सीएम बने।

सत्ता पाकर समाजवादी गद्गद थे। उन्हें लग रहा था कि 2012 के नतीजों से 2014 के लोकसभा चुनाव भी प्रभावित रहेंगे। सपा प्रमुख मुलायम सिंह तो प्रधानमंत्री बनने तक का सपना देखने लगे थे। अखिलेश भी नेताजी की हॉ में हॉ मिला रहे थे। 80 की 80 सीटें सपा की झोली में आयेंगी, जैसे दावे चल रहे थे। इसी बीच पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जिला मुजफ्फरनगर एक छोटी सी घटना को सही तरकी से हैंडिल नहीं किये जाने के कारण  साम्प्रदायिक आग में झुलस गया। 27 अगस्त 2013 को मुजफ्फरनगर के कवाल गाँव में एक हिन्दू लड़की के साथ एक मुस्लिम युवक की छेड़खानी के साथ यह मामला शुरू हुआ। गुस्से में लड़की के परिवार के दो ममेरे भाइयों गौरव और सचिन ने छेड़खानी करने वाले युवक को मार डाला। यह बात जब दूसरे खेमें को पता चली तो प्रतिशोध में मुस्लिम दंगाइयों ने दोनों ममेरे भाइयों को मौत के घाट उतार दिया। सपा के थिंक टैंक को लग रहा था कि 2012 के विधान सभा चुनाव में उसे शानदार जीत मिली है तो उसकी मुख्य वजह मुस्लिम वोट बैंक का सपा के पक्ष में झुकाव था। उधर, मुजफ्फरनगर पुलिस ने हवा का रूख भांपते हुए इंसाफ के नाम पर पीड़ित लड़की के परिवार के 11 लोगो को तो गिरफ्तार कर लिया, लेकिन लड़की के भाई के हत्यारों के खिलाफ उसने टालमटोल वाला रवैया अपनाया। इस खबर के फैलते ही मुजफ्फर नगर, शामली, बागपत, सहारनपुर में दंगा फैल गया।

07 सितम्बर को दो समुदाय की हुई झड़प में महापंचायत से लौट रहे किसानों पर जौली नहर के पास दंगाइयों घात लगाकर हमला किया। दंगाइयों ने किसानों के 18 ट्रैक्टर और 3 मोटरसाइकिलें फूक दी। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक हमलावरों  ने शवों को नहर में फेक दिया। बाद में गोताखोरों ने कुछ शवों को ढूँढ भी निकाला। इस दंगे में एक फोटोग्राफर और पत्रकार समेत करीब 50 लोग मौत के मुंह में चले गये। हालात बेकाबू होते देख शहर में कर्फ्यू लगा कर शहर को सेना के हवाले कर दिया गया। कई हिन्दू-मुस्लिम सभी लोग दंगों से प्रभावित हुए। दहशत में बढ़ी संख्या में लोग पलायन करके सुरक्षित स्थानों पर चले गये। मामला तब और संजीदा हो गया जब एक न्यूज चैनल ‘आज तक’ ने स्टिंग ऑपरेशन करके यह साबित करने की कोशिश की कि उत्तर प्रदेश के मंत्री आजम खान के आदेश पर पुलिस अफसरों ने कई मुस्लिम समुदाय के दोषी लोगो को छोड़ दिया गया था, यह खबर चलते ही अखिलेश सरकार के पांव तले जमीन खिसक गई, आजम खान भले ही न्यूज चैनल के स्टिंग आपरेशन पर सवाल खड़े करके अपने ऊपर लगे आरोपों को खारिज कर रहे थे, लेकिन जनता के बीच इसका गलत मैसेज गया। यह सब पुरानी बातें हैं।

बीजेपी, कांग्रेस, बसपा सभी दलों के नेता दंगों पर सियासत करने में लगे थें समाजवादी सरकार कटघरे में खड़ी थीे,लेकिन खास बात जो देखने को मिली, बीजेपी के अलावा किसी भी दल का नजरिया साफ नहीं था। बीजेपी ने मुजफ्फरनगर दंगांे को समाजवादी सरकार की तुष्टीकरण की राजनीति से जोड़ा तो हिन्दू मतदाताओं को भी लगने लगा था कि अखिलेश सरकार निष्पक्ष नहीं है। दंगों के दौरान आजम खान की विवादास्पद बयानबाजी और उनके खिलाफ हुए स्टिंग की सबसे अधिक भर्त्सना हो रही थी। चंद महीनों बाद 2014 के लोकसभा चुनाव होने थे। भाजपा ने मुजफ्फरनगर दंगों का खूब ढिंढोरा पीट। परिणाम यह हुआ कि हिन्दू वोटों का जर्बदस्त धु्रवीकरण हुआ और बीजेपी गठबंधन 80 में से 73 सीटें जीतने में सफल रहा।मुलायम का पीएम बनने का सपना चकनाचूर हो गया। मुजफ्फरनगर दंगों और आजम के विवादास्पद बयानों ने सपा की ‘झोली’ खाली कर दी। लोकसभा में वह पांच सीटों पर ही सिमट कर रह गई।

2017 के विधान सभा चुनाव से पूर्व भी हालात कमोवेश 2007 और 2014 वाले बनते जा रहे हैं। पहले दादरी फिर मथुरा कांड को हवा दी गई। बात नहीं बनी तो मुख्तार अंसारी के सपा में विलय को मुद्दा बनाया गया। इसी बीच बुलंदशहर हाईवे कांड हो गया। चुनावी बेला में हाईवे पर मॉ-बेटी के साथ गैंगरेप कांड अखिलेश सरकार के लिये सिरदर्द बन गया है। अखिलेश ने तत्परता दिखाते हुए इस कांड को संज्ञान में लिया था,लेकिन उनके अधिकारियों ने इसे सही तरीके से हैंडिल नहीं किया। विरोधी तो हाइवे कांड को हवा दे ही रहे थे,उनकी पार्टी के नेता भी इस काम में पीछे नहीं रहे। आजम खान ने एक बार फिर बुलंदशहर हाईवे गैंग रेप कांड पर विवादित बयान देकर विरोेधियों को हमले का हथियार पकड़ा दिया।

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कानून व्यवस्था को लेकर लगातार विरोधियों के निशाने पर चढ़ी अखिलेश सरकार के लिये बुलंदशहर हाईवे गैंगरेप कांड ‘कोढ़ में खाज’ साबित हो रहा है।  खास बात यह भी है कि चाहें निठारी कांड हो या फिर मुजफ्फरनगर के दंगे अथवा बुलंदशहर हाईवे रेप कांड, तीनों ही वारदातें पश्चिमी उत्तर प्रदेश से जुड़ी रही थीं, लेकिन इसका प्रभाव पूरे  प्रदेश की सियासत पर पड़ा। 2007 और 2014 दोहराया न जाये इस लिये अखिलेश वह सब टुटके अजमा रहे हैं जिसके सहारे उनकी सत्ता में वापसी हो सकती है। आज की तारीख में अखिलेश की टीम(पार्टी नहीं) में कोई भी ऐसा चेहरा नहीं है जो कट्टरता का पक्षधर हो। विवादास्पद बयान देनें वालों के साथ तो अखिलेश का रवैया सख्त है ही इसके अलावा वह अपनी सरकार की मुस्लिम परस्त छवि को भी धोना चाहते हैं ताकि सपा के खिलाफ हिन्दू वोटों का धु्रवीकरण न हो सके। इसी लिये वह कभी संतों की शरण में तो कभी मौलानाओं के करीब दिखते हैं।

लेखक अजय कुमार उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क उनके मोबाइल नंबर 9335566111 के जरिए किया जा सकता है.

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