निरूपमा की मौत वास्तव में स्तब्ध कर देने वाली व दुखदायी घटना है। सचमुच एक प्रतिभावान पत्रकार की अकाल मौत से मीडिया जगत को भी भारी क्षति हुई है। निरूपमा कांड में चाहे जो भी दोषी हो, उसे फांसी की सजा होनी चाहिए। परन्तु हमें इस मामले के दूसरे पक्ष पर भी गंभीरता से विचार करना होगा। भारतीय सभ्यता व संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति से भिन्न है। हम लाख प्रगतिशील हो जाएं पर हमारे घर की बेटियां स्वच्छंद विचरण करें व शादी के पूर्व ही गर्भवती हो जाएं, इसकी इजाजत हमारी संस्कृति नहीं देती और न ही नैतिक रूप से ऐसा किया ही जा सकता।
पत्रकारिता की आड़ में हमारे समाज के युवा बेलगाम होते जा रहे हैं। मानो उन्हें सब कुछ करने की छूट मिल गयी हो। उन पर भारतीय संविधान लागू नहीं होता, कानून उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। वे जो चाहें कर सकते हैं। पत्रकारिता की धौंस दिखाकर तिल का ताड़ करना आसान है पर प्रियभांशू रंजन को इस बात का जवाब देना होगा कि क्या प्रेम के बहाने किसी युवती की लज्जा भंग कर उसे गर्भवती बना देना उचित है। श्री रंजन इस प्रकरण में सारा दोष निरू पर ही मढ़ देंगे, परन्तु क्या एक पक्ष के दोष से ही ऐसा हो सकता है। यदि निरूपमा की असामयिक मौत हुई है तो इसके लिए उसके प्रेमी को भी दोष दिया जाना चाहिए। गर्भवती हो जाने के कारण ही वह शादी के लिए बहुत हड़बड़ी में थी। यदि वह गर्भवती नहीं होती तो विवाह की सहमति लेने अचानक घर नहीं आती। शादी के गठजोड़ के पूर्व श्री रंजन जी को निरूपमा से शारीरिक संसर्ग नहीं करना चाहिए था। ऐसा कर उन्होंने उचित नहीं किया। विवाह के पूर्व शारीरिक संबंध स्थापित कर कुंवारी मां व कुंवारा बाप बनने की छूट भारतीय समाज नहीं दे सकता। यदि ऐसा होने लगा तो भारतीय संस्कृति व पाश्चात्य संस्कृति में अंतर ही क्या रह जायेगा।
अब बात यशवंत जी की जिन्होंने ”नीरू हम सभी तुम्हें बहुत प्यार करते हैं” के बहाने जिस तरह उन्होंने अपनी भड़ास निकाली है, उसे सही नहीं ठहराया जा सकता। यह सच है कि निरूपमा की मौत से पूरा पत्रकार जमात मर्माहत है। लेकिन निरूपमा की मौत को लेकर जिस तरह हाय तौबा मचाया जा रहा है, वह समझ से परे है। दिल्ली के पत्रकारों को भी यह अच्छी तरह मालूम है कि देश में हर दिन इस तरह की कई निरूपमाएं मौत की घाट उतार दी जा रही है। पंचायत बैठाकर प्रेमी-प्रेमिकाओं को मौत की सजा दी जा रही है। लेकिन इस मुद्दे को लेकर देश की राजधानी के पत्रकार कभी आवाज बुलंद नहीं करते। निरूपमा चूकि पत्रकारिता से जुड़ी थी इसीलिए उसके प्रति विशेष सहानुभूति दिखाई जा रही है। नीरू की मौत पर सारा दोष उसके परिजनों पर ही लादा जा रहा है। जबकि सच तो यह है कि जो परिस्थिति पैदा हुई उसके लिए काफी हद तक प्रियभांशू जैसे लोग भी जिम्मेवार हैं और सजा केवल नीरू के हत्यारों को ही नहीं इन महाशयों को भी मिलनी चाहिए, जो प्यार की आड़ में अपनी वासना को शांत करने का रास्ता तलाशते हैं।
लेखक विजय पाठक धनबाद (झारखण्ड) के निवासी हैं. उनका यह आलेख मेल के जरिए भड़ास4मीडिया को मिला है.