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तेरा-मेरा कोना

….तब मैं बे-नौकरी रहना ज्यादा पसंद करूंगा!

[caption id="attachment_2251" align="alignleft"]विनोद विप्लवविनोद विप्लव[/caption]अगर जनता चेत गयी तो चैनल चलाने वालों की खैर नहीं : ढिबरी न्यूज चैनल को लेकर लिखे मेरी दो व्यंग्य रचनाओं –  ‘ढिबरी न्यूज में भर्ती अभियान‘ और ‘ढिबरी न्यूज में चैनल प्रमुख के लिए खुली अर्जी‘ – पर मुझे जो प्रतिक्रियायें मिलीं, वे अभूतपूर्व हैं। ये दोनों व्यंग्य लिखने के दौरान मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि दो अदद व्यंग्य रचनाओं के कारण टेलीविजन चैनलों में मेरे इतने अधिक प्रशंसक एवं दुश्मन पैदा हो सकते हैं। यह बात जरूर है कि पैदा होने वाले मेरे दुश्मनों की संख्या से कई गुना अधिक संख्या मेरे प्रशंसकों की रही और यह बात केवल यही जाहिर करती है कि चैनलों में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के प्रति वहां काम करने वाले मीडियाकर्मियों के मन में किस तरह का आक्रोश है। ढिबरी न्यूज पर दोनों व्यंग्य रचनाओं पर जो प्रतिक्रियायें मिली हैं, वे दरअसल उस आक्रोश की उसी तरह की अभिव्यक्ति हैं जिस तरह की अभिव्यक्ति बालीवुड फिल्में देखने वाले दर्शक नायकों के हाथों खलनायकों को पिटते देख कर तालियां बजाकर व्यक्त करते हैं।

विनोद विप्लव
विनोद विप्लव

विनोद विप्लव

अगर जनता चेत गयी तो चैनल चलाने वालों की खैर नहीं : ढिबरी न्यूज चैनल को लेकर लिखे मेरी दो व्यंग्य रचनाओं –  ‘ढिबरी न्यूज में भर्ती अभियान’ और ‘ढिबरी न्यूज में चैनल प्रमुख के लिए खुली अर्जी’ – पर मुझे जो प्रतिक्रियायें मिलीं, वे अभूतपूर्व हैं। ये दोनों व्यंग्य लिखने के दौरान मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि दो अदद व्यंग्य रचनाओं के कारण टेलीविजन चैनलों में मेरे इतने अधिक प्रशंसक एवं दुश्मन पैदा हो सकते हैं। यह बात जरूर है कि पैदा होने वाले मेरे दुश्मनों की संख्या से कई गुना अधिक संख्या मेरे प्रशंसकों की रही और यह बात केवल यही जाहिर करती है कि चैनलों में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के प्रति वहां काम करने वाले मीडियाकर्मियों के मन में किस तरह का आक्रोश है। ढिबरी न्यूज पर दोनों व्यंग्य रचनाओं पर जो प्रतिक्रियायें मिली हैं, वे दरअसल उस आक्रोश की उसी तरह की अभिव्यक्ति हैं जिस तरह की अभिव्यक्ति बालीवुड फिल्में देखने वाले दर्शक नायकों के हाथों खलनायकों को पिटते देख कर तालियां बजाकर व्यक्त करते हैं।

वैसे तो गाहे-बगाहे मेरी रचनायें अखबारों एवं पत्रिकाओं में छपती रहती है लेकिन मुझे ऐसा याद नहीं आता कि किसी पत्रिका में छपे लेख या किसी रचना को पढ़कर किसी पाठक ने ऐसी प्रतिक्रिया जतायी हो। आमतौर पर किसी अखबार या पत्रिका में छपे लेखों के छपने पर चलताऊ किस्म की प्रतिक्रियायें मिलती है – ‘अरे विनोद जी फलां अखबार में आपका फलां लेख देखा था (पढ़ा था नहीं)’ या फिर ‘इधर हाल में आपका कुछ छपा देखा था, लेकिन याद नहीं आता कि क्या था।’ इस मामले में केवल मोहम्मद रफी की जीवनी – ‘मेरी आवाज सुनो’ अपवाद रही और इस पुस्तक पर मिली प्रतिक्रियाओं का जिक्र भड़ास4मीडिया पर प्रसारित एक लेख में पहले ही किया जा चुका है।

एक लेखक के लिये इससे बड़ा ईनाम और इससे अधिक संतोष और क्या हो सकता है कि कोई पाठक किसी लेखक की रचना पढ़कर इतना अभिभूत हो जाये कि अपने मोबाइल या कम्प्यूटर के वॉलपेपर के तौर पर लेखक के फोटो को ही लगा ले अथवा महानगरों में ट्रैफिक की भारी दिक्कत, वक्त की कमी अथवा दो शहरों के बीच की दूरी की परवाह किये बगैर पाठक लेखक से मिलने पहुंच जायें। आज के समय में जब पाठक अखबारों एवं पत्रिकाओं में छपने वाले लेखों को सरसरी नजर से भी पढ़ने की जहमत नहीं उठाते, और जब कहा जाता है कि आज टेलीविजन के जमाने में लोगों में पढ़ने की आदत खत्म हो रही है वैसे अगर किसी वेबसाइट पर छपी रचनाओं को पढ़कर इस तरह की उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिले तो किसी लेखक को और क्या चाहिये।

ढिबरी चैनल पर लिखी मेरी व्यंग्य रचनाओं को ही नहीं बल्कि इंटरनेट (ब्लॉग, वेबसाइट या फेसबुक आदि) से प्रसारित अन्य लेखकों की रचनाओं या टिप्पणियों को भी खूब प्रतिक्रियायें मिल रही हैं और ये प्रतिक्रियायें इस बात की ओर भी इशारा कर रही है कि इंटरनेट अब विचार-विमर्श का भी सशक्त माध्यम बन रहा है। हालांकि आज जब इंटरनेट तेजी से लोकप्रिय हो रहा है और जब उसकी पहुंच तेजी से बढ़ रही है वैसे में आज कुछ परम्परागत सोच वाले लोग यह मानने को तैयार नहीं है कि इंटरनेट न केवल व्यवसाय, ई-मेल, चैटिंग और मनोरंजन का बल्कि विचारों के आदान प्रदान का भी सशक्त माध्यम बन चुका है। यह सब लिखने का आशय यह नहीं है कि अखबारों, पत्रिकाओं और पुस्तकों की उपयोगिता या भूमिका समाप्त हो गयी है, बल्कि मेरा आशय यह है कि इंटरनेट को लेकर नाक-भौं सिकोड़ने के बजाय उसकी उपयोगिता को स्वीकारने में ही भलाई है। जब सिनेमा भारत में आया था तो साहित्यकारों एवं लेखकों ने यह कहकर इससे दूरी बना ली कि यह नाचने-गाने वालों का माध्यम है और इसके कारण सिनेमा की साहित्य से दूरी बनी रही। इसी तरह जब टेलीविजन आया तो लेखकों एवं साहित्यकारों ने इसे बुद्धु बक्सा करार दिया और आज नतीजा यह है कि इस पर वैसे लोगों का कब्जा हो गया है जिनके कारण टेलीजिवन देश की जनता को वास्तव में बुद्धु बना रहा है।

आज कुछ इसी तरह की सोच इंटरनेट को लेकर है। भविष्य में इंटरनेट क्या रूप लेगा, यह कहना फिलहाल मुश्किल है लेकिन इतना जरूर है कि इंटरनेट ने अखबारों, पत्रिकाओं और चैनलों की दादागिरी को समाप्त कर दी है। पत्र-पत्रिकाओं के जो संपादक कम ख्यात और नये लेखकों को गुलाम समझते थे, नये लेखकों को अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे और नये लेखकों की रचनाओं को कूड़े में डाले जाने से अधिक की चीज नहीं समझते थे, उनकी औकात इंटरनेट ने दिखा दी है। आज ब्लॉग के जरिये कोई भी लेखक एक मिनट के भीतर व्यापक प्रसार वाली किसी ई-पत्रिका का संपादक और लेखक बन सकता है जिसकी रचना पलक झपकते दुनिया के किसी भी कोने में पहुंच सकती है – वह भी एक पैसा खर्च किये बगैर।

लेकिन इसके बावजूद मैंने इंटरनेट को लेकर कई लोगों में संकुचित धारणा देखी है। कुछ इसी तरह की धारणा कई लोगों में भडास4मीडिया को लेकर भी दिखी। मैंने कई लोगों को इसे लेकर नाक-भौं सिकोड़ते देखा है। कई लोगों से यह सुना है कि यह नाम के अनुरूप केवल भड़ास निकालने का माध्यम है, लेकिन मुझे लगता है कि अपने अविर्भाव के बाद से इसने मीडिया में जितनी खलबली मचायी है या जितनी बहस की शुरुआत भड़ास ने की है वह उल्लेखनीय है। आज इसे लाखों लोग पढ़ते हैं और अगर यह बात सही है तो फिर इसका महत्व लाखों की संख्या में छपने वाले किसी अखबार या पत्रिका से कम कैसे है।

ढिबरी चैनल को लेकर जो आलोचनायें और धमकियां मिली उनका भी जिक्र करना भी लाजिमी है। जहां तक आलोचनाओं का सवाल है, किसी लेखक के लिये स्वस्थ्य आलोचनायें उसके रचनाकर्म के विकास के लिये अत्यंत जरूरी है। लेकिन इन दोनों रचनाओं को लेकर जो आलोचनात्मक या चेतावनीपरक प्रतिक्रियायें मिली वे दरअसल रचनाओं की आलोचना कम, व्यक्तिगत द्वेश और आक्षेप ज्यादा थी। कुछ ऐसे भी ईमेल और फोन कॉल मिले जिनमें चेतावनी दी गयी कि इस तरह की चीजें लिखना तत्काल बंद कर दूं अन्यथा मेरे लिये बुरा होगा। कुछ आलोचनायें मेरे पास सीधे नहीं बल्कि अन्य लोगों के जरिये पहुंची और इन आलोचनाओं का आशय यह था कि चूंकि मुझे टेलीविजन चैनल में नौकरी नहीं मिली इसलिये मैं ऐसे व्यंग्य या लेख लिखकर अपनी कुंठा या भड़ास निकाल रहा हूं। ऐसे लोगों को मैं स्पश्ट कर देना चाहता हूं कि मैं 25 हजार रूपल्ली की अपनी मौजूदा नौकरी से इस हद तक संतुश्ट हूं कि मेरा यह संकल्प है कि अगर नौकरी करनी है तो केवल यूनीवार्ता की और खुदा न खास्ता अगर इस नौकरी पर कोई संकट आया तो बेनौकरी रहना ज्यादा पसंद करूंगा।

वैसे मैं आलोचनाओं अथवा धमकियों को लेकर किसी तरह से दुखी या भयभीत कतई नहीं हूं, बल्कि इनसे मुझे और हिम्मत और उत्साह ही मिल रहा है। शायद यह मेरी रचनाओं की ताकत का नतीजा है कि चैनलों में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ लोग बौखला गये। लेकिन दरअसल मेरा इरादा किसी पर व्यक्तिगत हमले या निजी आलोचना करने का नहीं है बल्कि मेरी शिकायत चैनलों में जो स्थितियां बन गयी है या बना दी गयी है और चैनल जो भूमिका निभा रहे हैं उसे लेकर है क्योंकि टेलीविजन चैनल जो देश और समाज के विकास एवं लोगों के जीवन स्तर में बदलाव लाने का अत्यंत कारगर माध्यम हो सकते था उन्हें समाज के पतन का माध्यम बना दिया गया है। चैनलों की भूमिका को लेकर समाज के भीतर बहस और हलचल है उसे देखकर चैनल प्रमुखों को चेत जाना चाहिये क्योंकि अगर जनता चेत गयी तो फिर आपकी खैर नहीं।

लेखक विनोद विप्लव पत्रकार, कहानीकार एवं व्यंग्यकार हैं।

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