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तेरा-मेरा कोना

अब हलफ़नामा दर्ज़ करना शायद ज़रूरी हो गया है

विश्वरंजनइधर प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के द्वारा 10-11 जुलाई, 2009 को रायपुर में प्रमोद वर्मा के साहित्यिक अवदान तथा समकालीन आलोचना पर केंद्रित आयोजित 2 दिवसीय संगोष्ठी को लेकर कुछ विवाद उठ रहे हैं। इसकी सूचना तो मिल रही थी परन्तु उस विवाद में मेरी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। विवाद तो आयोजन के पहले भी उठ खड़ा हुआ था जब कुछ लोगों को इस बात से एतराज़ था कि एक डीजीपी कौन होता है प्रमोद वर्मा को ‘हाईज़ैक’ करनेवाला? कुछ लोगों को मेरे और प्रमोद वर्मा के संबंध मालूम थे और इन लोगों को क़मोबेश मेरे बारे में तथा मेरे विचारों के बारे में भी पता है। कुछ लेखक, जो माओवादी विचारधारा में आस्था रखते हैं या सलवा-जुडूम का विरोध कर रहे हैं, वे इसलिए शायद नहीं आना चाहते थे क्योंकि मैं सलवा जुडूम को समर्थन दे रहा था। मैं छत्तीसगढ़ 2007 में आया जबकि सलवा जुडूम 2005 से बस्तर में नक्सली आतंक का ख़िलाफ़त कर रहा है फिर भी यह झूठ फैलाया जाता रहा कि मैं सलवा जुडूम का प्रणेता हूँ। हालाँकि मेरा यह भी मानना है कि हिंसा का सहारा लेकर नक्सली जिस तरह आदिवासियों को बस्तर में दबा रहे थे तो आदिवासी कभी न कभी विरोध तो करते ही।

विश्वरंजन

विश्वरंजनइधर प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के द्वारा 10-11 जुलाई, 2009 को रायपुर में प्रमोद वर्मा के साहित्यिक अवदान तथा समकालीन आलोचना पर केंद्रित आयोजित 2 दिवसीय संगोष्ठी को लेकर कुछ विवाद उठ रहे हैं। इसकी सूचना तो मिल रही थी परन्तु उस विवाद में मेरी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। विवाद तो आयोजन के पहले भी उठ खड़ा हुआ था जब कुछ लोगों को इस बात से एतराज़ था कि एक डीजीपी कौन होता है प्रमोद वर्मा को ‘हाईज़ैक’ करनेवाला? कुछ लोगों को मेरे और प्रमोद वर्मा के संबंध मालूम थे और इन लोगों को क़मोबेश मेरे बारे में तथा मेरे विचारों के बारे में भी पता है। कुछ लेखक, जो माओवादी विचारधारा में आस्था रखते हैं या सलवा-जुडूम का विरोध कर रहे हैं, वे इसलिए शायद नहीं आना चाहते थे क्योंकि मैं सलवा जुडूम को समर्थन दे रहा था। मैं छत्तीसगढ़ 2007 में आया जबकि सलवा जुडूम 2005 से बस्तर में नक्सली आतंक का ख़िलाफ़त कर रहा है फिर भी यह झूठ फैलाया जाता रहा कि मैं सलवा जुडूम का प्रणेता हूँ। हालाँकि मेरा यह भी मानना है कि हिंसा का सहारा लेकर नक्सली जिस तरह आदिवासियों को बस्तर में दबा रहे थे तो आदिवासी कभी न कभी विरोध तो करते ही।

1985 से 1990-91 तक बस्तर में आदिवासियों ने नक्सली आतंक और हिंसा के ख़िलाफ़ काफ़ी सारे छोटे-मोटे आंदोलन किये थे पर वे नक्सली हिंसा और दमन के सामने टिक नहीं पाये। 2005 में फ़र्क सिर्फ़ इतना हुआ कि जब नक्सलियों ने सलवा जुडूम के अनुयायियों की हत्या शुरू की तो वे शरणार्थी बनकर पुलिस थाने और कैंपों की ओर भाग आये और इस बार शासन ने उन्हें सुरक्षा देने का इंतेज़ाम किया। सीपीआई (माओवादियों) के पोलित ब्यूरो के 2005 से लेकर आज तक हुए निर्णयों से साफ़ ज़ाहिर हो जायेगा कि उन्होंने ‘सिविल सोसायटी’ में किस तरह सलवा-जुडूम के ख़िलाफ़ जहर बोये हैं?

पर कुछ लेखकों ने कोशिश तो की ही कि साहित्यकारों को किसी तरह इस संगोष्ठी में आने सो रोका जा सके पर बहुतों को रोका नहीं जा सका। साहित्यकार बड़ी संख्या में आये। हर ख़ेमे से आये। शिवकुमार मिश्र आये। खगेन्द्र ठाकुर आये। कमला प्रसाद आये। चन्द्रकांत देवताले आये। अशोक बाजपेयी आये। नन्दकिशोर आचार्य आये। प्रभाकर श्रोत्रिय आये। अरविंदाक्षन आये प्रभात त्रिपाठी आये। रमाकांत श्रीवास्तव आये…। पुरस्कृत रचनाकार द्वय श्रीभगवान सिंह और कृष्ण मोहन तो आये ही। साहित्यकार बिहार से आये, उत्तर प्रदेश से आये, गुजरात से आये, केरल से आये……। छत्तीसगढ़ से तो प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच, इप्टा सहित सभी संगठनों के रचनाकर्मियों ने अपनी संपूर्ण निष्ठा के साथ सहभागिता दर्ज़ की। कुछ अपनी विशुद्ध साहित्यिक निष्ठा के कारण आये । कुछ प्रमोद वर्मा के कारण आये। कुछ मेरे कारण आये। जो मेरे कारण आये वे मुझे अच्छी तरह जानते हैं। एक खुले मंच पर सबने अपनी बातें कही। आलेख पढ़े। कोई किसी से न दबा, न ही यह कोशिश की गई कि कोई लेखक-आलोचक अपनी आस्थाओं को बदले। राज्य के मुख्यमंत्री, कुछ अन्य मंत्री एवं राज्यपाल को सिर्फ़ औपचारिकता और प्रोटोकॉल के तहत आरंभ और समापन में बुलाया गया था क्योंकि बहुत दिनों के बाद एक बड़ा साहित्यिक आयोजन छत्तीसगढ़ में हो रहा था।

इधर एक और विवाद ज्ञानरंजनजी ने उठाया है। उन्होंने कमला प्रसाद, खगेन्द्र ठाकुर तथा नामवर सिंह पर बहुत सारे आरोप लगाकर ‘प्रलेस’ से इस्तीफ़ा दे दिया। उसमें एक आरोप कमला प्रसाद और खगेन्द्र ठाकुर द्वारा रायपुर के आयोजन में शिरक़त करना भी है। वैसे में प्रलेस का सदस्य नहीं हूँ और प्रलेस के अंदरुनी विवादों से मेरा कोई लेना देना नहीं होना चाहिए पर क्योंकि विवाद में मुझे और संस्थान को भी घसीटा जा रहा है और अछूत क़रार दिया जा रहा है तो न चाहते हुए भी मुझे यह हलफ़नामा दर्ज़ करना पड़ रहा है।

मैं नामवर सिंह, खगेन्द्र ठाकुर, देवताले, ज्ञानरंजन, मैनेजर पांडेय, अशोक बाजपेयी तथा नन्दकुमार आचार्य प्रभृति को महत्वपूर्ण साहित्यकार मानता आया हूँ और उन सबके प्रति मेरे मन-मनीषा में एक आदर भाव भी है। पर यह कतई ज़रूरी नहीं कि हर बार मैं उनसे सहमत ही होता रहा हूँ। आदर, सहमति-असहमति से ऊपर की चीज़ होती है। किसी का आंकलन सहमतियों-असहमतियों के सीमाओं में रहकर नहीं की जा सकती, न ही व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की सीमाओं में रहकर। सुदीप बनर्जी से मेरी बहुत विषयों पर घोर असहमति थी पर हम अन्त तक बहुत अच्छे मित्र रहे। प्रमोद वर्मा के साथ भी मेरे तीव्र बहसें होती थी। परन्तु हमारी मित्रता में आँच नहीं आई और हम एक दूसरे की असहमतियों के बावजूद परस्पर आदर-भाव से जुड़े रहे। प्रमोदजी आज तक मेरे लिए साहित्यिक गुरू सदृश नज़र आते हैं। प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के आयोजन में जो निजी कारणों से अथवा किसी अन्य कारणों से नहीं आये मैं तो उनका भी आदर भी आदर करता हूँ, ख़ासकर उनका जो अपनी सर्जनात्मक हस्तक्षेप को निरंतर बनाये हुए हैं।

व्यक्तिगत या आईडियोलॉजिकल मतभेदों के कारण यदि लोगों को अछूत बनाया जाये और यह कहा जाये कि तुम फ़लां मंच पर क्यों बैठे, फ़लां व्यक्ति के आयोजन में क्यों गये तो ऐसा करने वाला व्यक्ति एक नये जातिप्रथा को जन्म दे रहा है, एक नये ब्राह्मणवाद को जन्म दे रहा है। (वैसे यदि हम सचमुच अपने-अपने गिरहबान में गहरी दृष्टि से झाँके तो शायद बहुत बार ख़ुद के साथ भी नहीं बैठ सके) छूत-अछूत की बात कोई और करे तो भी बात कुछ समझ में आती है पर प्रगतिशील विचारधारा और उससे मिलते-जुलते विचारधारा को माननेवालों के बीच यह बात उठे तो अचंभित होना स्वाभाविक है।

छूत-अछूत की बात उठाना जैसे, किसे कहाँ जाना चाहिए, कहाँ नहीं जाना चाहिए, किसके साथ उठना-बैठना चाहिए और किसके साथ नहीं उठना-बैठना चाहिए, गणतांत्रिक मूल्यों के भी विपरीत है। इतिहास के पन्नों में तो जाइये! स्टालिन ने क्यों हिटलर के साथ बैठ कर जर्मनी के साथ संधि-पत्र पर हस्ताक्षर किये? बाद में हिटलर के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक कैपिटलिस्ट आइजनहॉवर को ‘ऐलाइड फ़ोर्सेस’ का कमांडर मान रूसी फ़ौजी को आइजेनहॉवर के अधीन किया। माओ ने क्यों कैपिटलिस्ट किसिन्जर के साथ बैठ दुनिया के हालातों पर चर्चा की और क्यों अमेरिका और चीन को नज़दीक लाने की कोशिश की? ऐसा करने से न स्टालिन और न ही माओ कैपिटलिस्ट हो गये थे। किसी के साथ बैठने से, या किसी खुले मंच में विरोधियों के साथ बैठकर अपनी बात कहने से कोई अपनी आईडियालॉजी नहीं खो देता। किसी ‘अवार्ड’ को लेकर भी विवाद उठाया जा रहा है। आख़िर नोबेल पुरस्कार या ज्ञानपीठ पुरस्कार में भी कैपिटलिस्टों का धन लगा हुआ है। प्रगतिशील विचारधारा के बहुसंख्य साहित्यकारों ने इन अवार्ड्स को स्वीकारा है। तो क्या इससे उनकी प्रगतिशीलता ख़त्म हो गई? ज़ाहिर है ऐसा नहीं हुआ। तो फिर विवाद की जड़ शायद कहीं और ही है। शायद व्यक्तिगत लड़ाई-झगड़ों को आइडियोलॉजिकल ज़ामा पहनाया जा रहा हो। और यदि ऐसा है तो यह बहुत दुख की बात है।

ब्रिटिश इतिहासकार ए. जे. पी. टेलर और इतिहासकार ह्यूग ट्रेवर रोपर में टेलर की एक पुस्तक को लेकर ज़बर्दस्त विवाद हुआ था। टेलर और रोपर में गहरी मित्रता भी थी जो इस विवाद के बाद भी क़ायम रही। टेलर ने बाद में एक साक्षात्कार में इस विवाद पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यदि रोपर दोस्ती के कारण उनका विरोध करने से कतराते तो वे टेलर की नज़रों में गिर गये होते। पूरा का पूरा विवाद टेलर और रोपर ने बौद्धिक स्तर पर रखा था। उसे छुआछूत के स्तर पर नहीं उतारा। क्या हम ऐसा हिन्दी जगत में नहीं कर सकते? किसी भी देश में विवाद इस स्तर पर नहीं उतारा जाता कि कोई फ़लां के साथ बैठ गया या फ़लां के मंच से बोल गया तो वह अछूत हो गया।

प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान हर खेमे, हर गुट, हर आइडियालजी के साहित्यकारों को खुला मंच प्रदान करता रहेगा । हर किसी को अपनी बात कहने की छूट देगा। ऐसा इसलिए भी होगा क्योंकि प्रमोद वर्मा स्वयं प्रगतिशील थे और इसलिए न सिर्फ़ उदार थे पर गणतांत्रिक मूल्यों के प्रति उनकी संपूर्ण आस्था थी। वे किसी भी मंच पर जाने से कतराते नहीं थे और अपनी बात ज़ोर देकर तीव्र बौद्धिकता के साथ रखने में सक्षम थे।


लेखक छत्तीसगढ़ के डीजीपी और प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष हैं
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