पाखंड और आत्ममोह बिहार की विशेषता है। इससे जब पर्यावरण जैसे विषय जुड़ जाते हैं तो यह पाखंड और आत्ममोह और बढ़ जाता है। एक मायने में बिहार ही नहीं पूरा देश इस पाखंड से जुड़ा है। कभी मेनका गांधी ने इसे बढ़ावा दिया। अब जयराम रमेश इसे बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसी हालत में अगर बिहार इसे बढ़ावा दे रहा है तो इसमें कुछ अनोखा नहीं है। सालाना रस्म अदायगी है 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाना। फिर भारतीय परंपरा में इसे भूल जाना। यह भारतीय राज्य की विशेषता है कि जीवन से जुड़ी हर चीज को नष्ट करने के बाद उसे बचाने का बड़ा भारी भगीरथ प्रयास होता है। यह भी एक भारतीय परंपरा है कि हर चीज जो पश्चिम से या अमेरिका से आती हो , बहुत ही महान होती है। पर्यावरण भी यूरोपीय सोच – समझ है। इसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपना लिया।
भारत में जब यह आया – और इसे आये बमुश्किल से 35 साल हुए हैं। यह एक सरकारी आयोजन हो गया है। कुछ पेशेवर लोग भी इससे जुड़े हैं। यह उनके हाथी के समान भी है जो देख नहीं सकते। कमसे कम जो देख नहीं सकते थे , वह छू कर तो अनुभव करते थे। छू कर जो उन्होने समझा , वही बखान हाथी के बारे में उन्होने कर दिया। लगभग यही हाल पर्यावरण का है। एक वक्त में सरकार ने – और सरकार के परंपरागत कमाऊ और भ्रष्ट वन विभाग के साथ यूरोप – अमेरिका पलट पेशेवरों ने समझाया कि पर्यावरण बचाने के लिए पेड़ लगाना बहुत जरूरी है। यह समझाना इस लिए भी जरूरी था कि जब अपने देश में पर्यावरण – पर्यावरण का खेल आरंभ हुआ तो वह जमाना संजय गांधी का था। संजय गांधी ने पेड़ लगाने की बात की थी। तब तक वन विभाग वाले बीसवीं सदी के पचासे में कभी के कृषि मंत्री कन्हैया लाला माणिक लाल मुंशी का जुलाई के पहले सप्ताह में मनाया जाने वाला वन महोत्सव का मंत्र रस्म अदायगी के साथ आज भी निभाया जा रहा है। संजय गांधी का पेड़ लगाओ का मकसद मुंशी वन महोत्सव के महत्व को कम करने से ज्यादा इससे जुड़ा था था कि उन्हें अपने समर्थकों के सामने कोई रचनात्मक काम पेश करना था।
इस पर भी बहुत बहस होती है कि कौन सा पेड़ लगाय जाए। तो पर्यावरण का एक मतलब पेड़ लगाना मान लिया गया। यह सही भी था कि क्योंकि पेड़ लगाना बहुत सारी समस्याओं का समाधान है। झाड़खंड अलग होने के बाद बिहार उन राज्यों में शामिल हो गया जिसमें प्राकृतिक जंगल न के बराबर था। जंगल अंग्रेजों की कृपा से आमदनी का बहुत बड़ा जरिया भी बन चुका था। बिहार में जंगल न के बराबर होने के बावजूद जंगल से जुड़े उत्पादनों यानी लकड़ी की मांग कम नहीं हुई। कमोबेस आरा मशीन बिहार में अभी तक राजनीति नहीं बनी है लेकिन 2005 में सत्ताधारी दल – जनता दल यूनाइटेड ने ज्यादा आरा मशीनों की मांग की थी। तब यह पार्टी इस गलतफहमी का शिकार थी कि लकड़ी आधारित उद्योग पर जीवित रहने वाला बढ़ई समूह ही आरा मशीन चलाता है। वैसे भी जदयू बुनियादी तौर पर गलतफहमियों से ग्रस्त दल ही है। इसके मुख्य मंत्री ने अपनी निजी लोकप्रियता और छवि के बल पर बिहार की तसवीर बदलने की मीडियाई और आंकड़ाई कोशिश की है।
अब बिहार में यह ऐसी शक्ल लेता जा रहा है कि लगता है कि बिहार ही देश भर में पेड़ बचाने – लगाने में सबसे आगे है। नीतीश कुमार – सुशील कुमार मोदी की बड़बोली सरकार की सोच और समझ भी यही है कि यह साबित करें कि वही देश में सबसे पहले या सबसे आगे हैं। चाटुकार मीडिया और कांग्रेस – लालू तंत्र से दुखी लोगों ने उन्हें अपना समर्थन भी दिया। अब तो उनके समर्थन में यही कहा जाता है कि उनका विधान सभा में संख्या बल तो देखो। पर्यावरण को लेकर मीडियाई तंत्र भी वैसा ही सोचता है जैसा सोचने के लिए सरकार उसे जाने अनजाने समझाती है। बिहार में तो सरकार उसे पाखंडी स्तर पर समझाती है – और मीडिया समझ कर भी या अपनी संपूर्ण नासमझी के साथ अपना खेल खेलने लगता है।
पटना से प्रकाशित एक दैनिक ने दावा किया है कि पर्यावरण के लिए सब कुछ करुंगा। इस सब कुछ के साथ नीति – व्यक्त की गई है कि “ प्रकृति व पर्यावरण को न सहेजने के कारण ग्लोबल वार्मिंग का दुष्प्रभाव बढ़ता जा रहा है। सूखा , बाढ़ के साथ दिनोदिन तेज होता सूरज का ताप ग्लेशियरों को पिघला रहा है। आशंका जताई जा रही है कि समुद्र का जल स्तर बढ़ने से कई छोटे देशों का अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है। ग्लोबल वार्मिंग को रोकने व लोगों को पर्यावरण हितैषी बनाने के उद्देश्य से मनाये जाने वाले विश्व पर्यावरण दिवस पर शहर के वरिष्ठ नागरिकों व प्रबुद्ध जनों ने पर्यावरण रक्षा का संकल्प लेते हुए लोगों से पर्यावरण मित्र बनने की अपील की है।“
शहर यानी पटना के ये वरिष्ठ नागरिक या तो सरकार से जुड़े संस्थान के लोग हैं या शुद्ध सरकारी नौकर हैं। इसमें से सर्वोदयी त्रिपुरारी शरण ने कुछ हद तक इसे समझा है। बिहार के प्रधान मुख्य वन संरक्षक बी ए खान ने वृक्षारोपण के साथ साथ 2011 के बिहारी थीम ‘ वन – प्रकृति आपकी सेवा में‘ अमल करने का दावा किया है। बिहार के लोग सेवा का बहुत दावा करते हैं। जाता भी क्या है, जब दावा ही करना हो। खैर बिजली वाले अफसर एस के पी सिंह का दावा है दिन में एसी नहीं चलाऊंगा तो पटना के चिड़ियाघर के निदेशक ने कहा है कि चिड़ियाघर में पालिथिन–प्लास्टिक के थेले के साथ प्रवेश पर रोक लगा कर चिड़ियाघर में विभिन्न प्रजातियों के पौधों का रोपण करुंगा। सबसे बड़ा दावा तो बिहार के उप मुख्य मंत्री ने किया है कि साल भर में वह 10 करोड़ पेड़ लगवाएंगे। पर कोई सही ढंग से पर्यावरण का मतलब नहीं समझा पाया कि यह तो धरती – जल – आकाश – अग्नि – वायु है।
जुगनू शारदेय हिंदी के जाने-माने पत्रकार हैं. ‘जन’, ‘दिनमान’ और ‘धर्मयुग’ से शुरू कर वे कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादन/प्रकाशन से जुड़े रहे. पत्रकारिता संस्थानों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में शिक्षण/प्रशिक्षण का भी काम किया. उनके घुमक्कड़ स्वभाव ने उन्हें जंगलों में भी भटकने के लिए प्रेरित किया. जंगलों के प्रति यह लगाव वहाँ के जीवों के प्रति लगाव में बदला. सफेद बाघ पर उनकी चर्चित किताब “मोहन प्यारे का सफ़ेद दस्तावेज़” हिंदी में वन्य जीवन पर लिखी अनूठी किताब है. इस किताब को पर्यावरण मंत्रालय ने भी 2007 में प्रतिष्ठित “मेदिनी पुरस्कार” से नवाजा. फिलहाल दानिश बुक के हिन्दी के कंसल्टिंग एडिटर हैं तथा पटना में रह कर स्वतंत्र लेखन कर हैं.