: अब मानवाधिकारों पर गोलबंदी : सीरिया में मानवाधिकार हनन के नाम पर नई अंतर्राष्ट्रीय गोलबंदी शुरु हो गई है. मुद्दा बताया जा रहा है आमजन के अधिकारों के हनन का, लेकिन पर्दे के पीछे सियासत कुछ और ही है! पश्चिमी खेमा अमेरिकी अगुवाई में दमिश्क के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई के लिए लामबंद है, उसे लीबिया के घटनाक्रम से संतोष नहीं है. इसीलिए तो लीबिया के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की कार्रवाई की तरह सीरिया के मसले में जब सुरक्षा परिषद में सफलता नहीं मिली तो फिर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में मामला उठाया गया. वहां सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल असद की सरकार द्वारा मानवाधिकार हनन की निन्दा ही नहीं की गई, बल्कि परिषद ने जांच कराने का फैसला भी किया है.
वैसे मानवाधिकार परिषद में मतदान के दौरान जहां अनेक अरब देशों ने तटस्थ रुख अपनाते हुए वोटिंग में भाग नहीं लिया, वहीं चीन, रुस, भारत जैसे अनेक देशों ने प्रस्ताव का विरोध किया. दिलचस्प यह रहा कि सीरिया के सवाल पर भारत के रुख का समर्थन पाकिस्तान ने भी किया- जिसमें कहा गया कि किसी भी सार्वभौम देश की पहली जिम्मेदारी अपने देश में जनता के हित में कानून-व्यवस्था और शांति स्थापना की होती है और सीरिया में यही किया जा रहा है. इसे आधार बना कर वहां किसी को दखल देने का अधिकार नहीं है. यह संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धांतों के भी अनुकूल नहीं है.
सुरक्षा परिषद द्वारा नकारे जाने और मानवाधिकार परिषद में अमेरिकी प्रस्ताव के स्वीकारे जाने के बाद भी पश्चिमी खेमे के प्रयासों को विराम लगा हो, ऐसा नहीं है. यूरोपीय संघ ने भी सीरिया के खिलाफ प्राथमिक स्तर पर कार्रवाई की बात कही है. जाहिर है राष्टन्पति असद की बाथ पार्टी और उनकी सरकार को गिरा कर वहां विपक्ष की नई सरकार की स्थापना को लेकर अमेरिकी खेमा प्रयासरत है. लेकिन इसकी मुखालिफत में भी ध्रुवीकरण शुरु हो गया है- खास कर दिल्ली और इस्लामाबाद के सुर का एक होना दिलचस्प संकेत हैं. अब जरा देखें, ये मानवाधिकार हनन की बात है क्या?
दुनिया में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कार्यरत अनेक संस्थाओं ने सीरिया के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद में शिकायत की है कि वहां जनअधिकारों को लेकर सरकारी दमन चक्र बढ़ता जा रहा है और परिषद को चाहिए कि वो निष्पक्ष जांच कराए. ऐसी मांग करने वालों में ह्यूमन राइट्स वॉच संस्था भी शामिल है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने मांग की है कि सीरिया में डेढ़ महीने में ही पांच सौ से ज्यादा लोग मारे गए हैं और सत्ता तंत्र के इस दमन को देखते हुए सीरिया को किसी भी सूरत में संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद का सदस्य नहीं बनाना चाहिए. यह खुद में दिलचस्प है कि न केवल मानवाधिकार से सम्बद्ध अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं बल्कि खुद सीरिया में कथित अनेक संस्थाओं ने भी राष्ट्रपति बशर अल असद सरकार के बर्बर कारनामों की तीखी आलोचना की है, तो दूसरी ओर खुद दमिश्क है, जो दुनिया में मानवाधिकारों की रक्षा और स्थापना के लिए प्रयत्नशील संयुक्त राष्ट्र की संस्था का सदस्य होना चाहता है, जिसका चुनाव आगामी 20 मई को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा होना है.
दरअसल, मानवाधिकारों की इस चर्चा के पीछे की कहानी भी खासी रुचिकर है. एक ओर अरब जगत में चल रही लोकतांत्रिक हवा ट्यूनीशिया, मिस्र, ओमान, यमन, मोरक्को, लीबिया, ईरान, सऊदी अरब, बहरीन के साथ ही सीरिया में भी बह रही है. राष्ट्रपति असद ने वहां जम्हूरी चाहत में उबलते लोगों को शांत करने के लिए 48 साल से लागू इमरजेंसी को हटाने की घोषणा के साथ ही अनेक लोकतांत्रिक अधिकार भी बहाल किए हैं, लेकिन जन आक्रोश कम होने का नाम नहीं ले रहा है. लेकिन अमेरिका इलाके में उसे नापसंद ईरान, लीबिया के बाद अब सीरिया पर भी नजर गड़ा चुका है. वाशिंगटन की दिली इच्छा है कि यदि सीरिया की सरकर किसी तरह से गिर जाए तो उसकी मनचाही मुराद पूरी हो जाएगी. आखिर ईरान, हिजबुल्लाह, हमास और सीरिया के इस गठबंधन के मजबूत स्तंभ के गिरने से पूरे क्षेत्र में एक तो अमेरिकी विरोध कमजोर होगा और दूसरा मध्यपूर्व में अमेरिकी दरोगा इस्राइल के लिए संभावित खतरे का मुख्य सूत्रधार भी टूट जाएगा.
लेकिन विश्लेषक मानते हैं कि सब कुछ इतना आसान नहीं है. दुनिया के सामने विकिलीक्स का वो खुलासा भी आया है कि वाशिंगटन ने गुप्त रूप से सीरिया के सशस्त्र सरकार विरोधियों को साठ लाख डालर की मदद भी दी है. यह तो सिर्फ एक खुलासा है, मदद की मात्रा तो और भी बड़ी होगी. दरअसल, 1960 और 1970 के दशक में जब इस्राइल ने कई पड़ोसी अरब देशों की गाजापट्टी और गोलन पहाडियों जैसे क्षेत्र जीत लिए थे और उसके बाद मिस्र के अनवर सादात और इस्राइल के मेनाहिम बेगिन के बीच कैंप डेविड समझौता हो गया और वक्त के साथ जार्डन भी नरम पड गया तो सीरिया काफी अलग-थलग पड़ गया था. तभी ईरान में शाह के पतन के बाद अमेरिका विरोधी इस्लामी ताकतों का उदय हुआ. मजे की बात ये है कि खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले सीरिया ने अपने हितों की रक्षा के लिए न केवल शिया तबके के प्रभाव वाले ईरान और लेबनान के दक्षिणी भागों में सक्रिय शिया उग्रवादी समूह हिजबुल्लाह से हाथ मिलाया बल्कि फलस्तीनियों के बीच सक्रिय सुन्नी आतंकी गुट हमास को भी अमेरिकी-इस्राइली धुरी के खिलाफ गोलबंद किया और तभी से सीरिया वाशिंगटन की आंखों में खटकने लगा.
इस पृष्ठभूमि में आज जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिकी खेमा लीबिया की तर्ज पर सीरिया के खिलाफ भी प्रस्ताव पारित कराने का प्रयास करता है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. वो तो भारत समेत रूस, चीन जैसे देशों के विरोध के चलते पश्चिमी खेमे को सफलता नहीं मिल पाई. लेकिन फिर भी यूरोपीय संघ ने इस बाबत पहल करके सीरिया के खिलाफ अपनी मंशा तो साफ कर ही दी. तो ये कहना कि मुद्दा सिर्फ मानवाधिकार हनन का ही है – सही नहीं है. ठीक है ईरान, लीबिया की तरह सीरिया में भी मानवाधिकार हनन है लेकिन सिर्फ इन्हीं तीन देशों में ही ऐसा हो, यह कहना सही नहीं है. पूरी अरब दुनिया में इस बाबत नई चेतना जगी है. और, अरब जगत के दूसरे देशों की सरकारों की तरह यहां भी लोकतांत्रिक आंदोलन और उसके समर्थन में बह रही हवा को दबाने की सरकारी मुहिम है.
लेकिन सवाल है कि जितना शोर-शराबा अमेरिका विरोधी देशों को लेकर है, उतना मिस्र, ट्यूनीशिया, सऊदी अरब, यमन, कतर, ओमान, जार्डन, संयुक्त अरब अमीरात को लेकर क्यों नहीं है? बहरीन में लोकतंत्र समर्थक शिया आंदोलनकारियों पर सऊदी अरब के सैनिकों ने जब फायरिंग की, कत्लेआम किया- तब क्या लोकतंत्र का हनन नहीं था? मिस्र और ट्यूनीशिया की सरकारों ने जब शुरुआत में बर्बर दमन किया तब इतना हो-हल्ला क्यों नहीं हुआ और पश्चिमी खेमा तब लोकतांत्रिक आंदोलनों के खिलाफ इन देशों के शासकों को अंतिम समय तक बचाने की कोशिश क्यों करता रहा? वैसे ऐसा लिखने का तात्पर्य यह कतई नहीं है कि इससे सीरिया में असद सरकार को बर्बर दमन का अधिकार मिल जाता है, आशय सिर्फ यह है कि पर्दे के पीछे की सियासत हमेशा ही कुछ और होती है. सच्चाई यह भी है कि मानवाधिकारों की बढ़-चढ़कर वकालत करने वालों के हाथ भी मासूमों के खूनों से ही रंगे रहे हैं.
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं. उनका यह लिखा ‘लोकमत समाचार’ में प्रकाशित हो चुका है. गिरीशजी से संपर्क girishmisra@lokmat.com के जरिए किया जा सकता है.