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समाज-सरोकार

अयोध्‍या 4 : तब अख़बारों की उपासना के मानक स्थल भी टूटे थे

पदमपति शर्मा सब अपनी कहने को व्याकुल, मैं अपनी किसे सुनाऊं, हर घर लंका, हर घर में रावण, इतने राम कहां से लाऊ, सब अपने घाव मुझे दिखाएं, मैं अपना घाव किसे दिखाऊं। गणेश सिंह मानव की यह कविता अर्से पहले जब पढ़ी थी तब इसका तात्पर्य कुछ और था. आज जब फिर से पढ़ रहा हूं तो अर्थ कुछ और हो जा रहा है. स्वतंत्रता के बाद देश में एक विचित्र स्वदेश उन्मूलन का दौर चला है. अंग्रजों के ज़माने में हम भारतीयों का परिचय था – गुलाम, आधे हिन्दुस्तानी. मगर स्वतंत्र होने के बाद नए परिचयों की फेहरिस्त निकली- उत्तरप्रदेशी, बिहारी, मराठी, पंजाबी, तमिली, तेलगू आदि आदि. इन भाषाई और प्रादेशिक विभाजनो से मामला कहीं धार्मिक, कहीं सामुदायिक खेमों में बंटा. एक भारत था जिसे लोगों ने धार्मिक बंटवारे में विखंडित किया. विडम्बना देखिये कि उसी भारत में उस विखंडन प्रक्रिया को जिंदा रखा गया.

<p style="text-align: justify;"><img src="https://www.bhadas4media.com/images/new/padamg.jpg" border="0" alt="पदमपति शर्मा " title="पदमपति शर्मा " align="left" />सब अपनी कहने को व्याकुल, मैं अपनी किसे सुनाऊं, हर घर लंका, हर घर में रावण, इतने राम कहां से लाऊ, सब अपने घाव मुझे दिखाएं, मैं अपना घाव किसे दिखाऊं। गणेश सिंह मानव की यह कविता अर्से पहले जब पढ़ी थी तब इसका तात्पर्य कुछ और था. आज जब फिर से पढ़ रहा हूं तो अर्थ कुछ और हो जा रहा है. स्वतंत्रता के बाद देश में एक विचित्र स्वदेश उन्मूलन का दौर चला है. अंग्रजों के ज़माने में हम भारतीयों का परिचय था - गुलाम, आधे हिन्दुस्तानी. मगर स्वतंत्र होने के बाद नए परिचयों की फेहरिस्त निकली- उत्तरप्रदेशी, बिहारी, मराठी, पंजाबी, तमिली, तेलगू आदि आदि. इन भाषाई और प्रादेशिक विभाजनो से मामला कहीं धार्मिक, कहीं सामुदायिक खेमों में बंटा. एक भारत था जिसे लोगों ने धार्मिक बंटवारे में विखंडित किया. विडम्बना देखिये कि उसी भारत में उस विखंडन प्रक्रिया को जिंदा रखा गया.</p>

पदमपति शर्मा सब अपनी कहने को व्याकुल, मैं अपनी किसे सुनाऊं, हर घर लंका, हर घर में रावण, इतने राम कहां से लाऊ, सब अपने घाव मुझे दिखाएं, मैं अपना घाव किसे दिखाऊं। गणेश सिंह मानव की यह कविता अर्से पहले जब पढ़ी थी तब इसका तात्पर्य कुछ और था. आज जब फिर से पढ़ रहा हूं तो अर्थ कुछ और हो जा रहा है. स्वतंत्रता के बाद देश में एक विचित्र स्वदेश उन्मूलन का दौर चला है. अंग्रजों के ज़माने में हम भारतीयों का परिचय था – गुलाम, आधे हिन्दुस्तानी. मगर स्वतंत्र होने के बाद नए परिचयों की फेहरिस्त निकली- उत्तरप्रदेशी, बिहारी, मराठी, पंजाबी, तमिली, तेलगू आदि आदि. इन भाषाई और प्रादेशिक विभाजनो से मामला कहीं धार्मिक, कहीं सामुदायिक खेमों में बंटा. एक भारत था जिसे लोगों ने धार्मिक बंटवारे में विखंडित किया. विडम्बना देखिये कि उसी भारत में उस विखंडन प्रक्रिया को जिंदा रखा गया.

भारत मानो मौत की भट्टी पर रोटी सेंकने का तवा हो, जिस पर जितने लोग 190 साल के दौरान भुने गए थे, उससे सौ गुना ज्यादा साम्प्रदायिकता में अपने-अपने पंथ के लिए उस तवे पर कुर्बान हुए होंगे. अजीब लगता है पर यह एक सच्चाई है कि इस बात ने पिछली 30 सितम्बर को मुझे नए सिरे से कुरेदा. अयोध्या के मसले पर उच्च न्यायालय के आने वाले फैसले को लेकर जिस कदर पूरे मुल्क ने सरोकार और संवेदनशीलता दिखाई, जिस कदर पूरे मुल्क में अनजानी आशंकाओं का घना कुहासा छाया, जिस कदर हर लब पर बहस छिड़ी थी, उससे लगा कि मुल्क परेशान है और मैं यही सोच कर परेशान हो उठा था कि यदि इसका आधा भी सरोकार देश ने 1857 के सिपाही विद्रोह और बंग-भंग आन्दोलन में दिखाया होता तो  अंग्रेज उपनिवेशवाद बेंत खाए कुत्ते कि तरह तभी दुम दबा कर भाग लिया होता.

कुल मिलाकार एक बात समझ में आई कि हम मौका-परस्त कमीने हैं. भले ही हम जननी जन्मभूमिश्च का पारायण करते रहते हों, फिर भी धर्मं की उंगली पकड़े स्वर्ग जाने की अभिलिप्सा में अपनी इसी जन्मभूमि की बलि चढाने के लिए तैयार रहते हैं. वह जो दिमाग में बैठा है, वह जो मन के पीपल पर विश्वास का प्रेत बैठा है, वह हमें हरकतों से बाज आने को रोकता नहीं है तो मौके-बेमौके हम धर्म की रोटी सेंकते हैं और धर्म पर रोटी सेंकते हैं.

इस बीच देश में incashmentism  यानी ‘भुनानावाद’ की जो नयी प्रवृति चली है, उसने गत 30 वर्षों में देश को किसी दीमक की तरह जम कर चाटा. उदहारण देने का मन तो नहीं कर रहा था परन्तु अयोध्या प्रसंग में कुछ सत्य बयां करना इसलिए जरूरी हो गया है कि 1988 से लेकर 1992 के दौरान के कई ‘रत्नाकर’ इन दिनों बाल्मीकि बन बैठे हैं. बार-बार कह रहे हैं- माँ निषाद. ये वही लोग हैं जिन्होंने अपनी उकसावे भरी  हरकतों से अनगिनत लोगों को लहूलुहान किया था. स्वार्थ कहीं-कहीं पैसे में रहा, कहीं सत्ता में तो कहीं अख़बार का प्रसार बढ़ाने में. सोचने पर ऐसे हजारों महापुरुषों के नाम सामने आ रहे हैं. ये पन्ने मैं नहीं पलटता अगर एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के समूह संपादक ने अयोध्या कांड के फैसले को लेकर आदर्श पत्रकारिता की  दुहाई न दी होती.

ये वही महान शख्स हैं जिन्होंने अयोध्या कांड के समय आगरा के पागलखाने के किसी बदतर पागल की तरह आचरण किया था और शर्म आ गयी थी पत्रकारिता की मूल भावनाओं और उसके आदर्शों को, तब आज अख़बार के आगरा संस्करण ने वो-वो कुकर्म किये थे कि मत पूछिए. एक समाचार-पत्र जिसका सम्पादकीय पढ़े बिना जवाहरलाल नेहरु सोते नहीं थे और जिसकी पहचान हिन्दू और केसरी जैसी थी, क्षुद्र स्वार्थ में उस समय राम भक्त और कारसेवक की भूमिका में आ गया था… सच तो ये है कि उस दौरान उपासना स्थल ही नहीं टूटा, समाचार-पत्रों  की उपासना के मानक स्थल भी धराशायी हुए थे. परिणाम यह हुआ कि दैनिक जागरण जैसे बड़े अख़बार के स्वामी-संपादक भी विचलित हो कर इस बहती गंगा में हाथ धोने को विवश हो गए. क्योंकि मैं नौकरी करता था इसलिए इस ‘पाप लालसा’ में मैं बलि चढ़ गया. दुर्भाग्य देखिये कि मैं तब खेल संपादक था और जिसे राजनीतिक और आपराधिक खेल में उनके मुताबिक खेल खेलने को कहा गया.

असल में पहले मुझसे 30 अक्‍टूबर 1990 को होने वाली कारसेवा की कवरेज की कमान संभालने को कहा गया. पर 26 अक्टूबर की शाम को मोहन बाबू  (स्वर्गीय नरेन्द्र मोहन गुप्त) ने कानपूर से फोन पर पूछा, ‘ क्या तुमने आज का आगरा संस्करण देखा है और नहीं देखा तो देखो और इस अभियान में तुम सेनापति हो… खुद जाओ.’ मैंने आज का वो संस्करण देखा और हिल गया, ये देख कर कि बजरंग दल के एक फायर ब्रांड नेता के ऐसे बयान को पहले पन्ने की दूसरी लीड बनाया गया था और जिम्मेदार संपादक ने जो हेडिंग लगायी थी वो किसी भी कीमत पर नहीं लगायी जा सकती थी, मैं चाहूं भी तो नहीं दे सकता… एक कौम को विशुद्ध गाली दी गयी थी. खैर मैं अपनी टीम लेके गया, जिसमे आशीष बागची के अलावा दो फोटोग्राफर थे… यह बताने की जरूरत नहीं कि हम दोनों आज जीवित हैं, ये बताने के लिए मगर हमारे साथ खड़ा वह अधेड़ दरोगा इतना भाग्यशाली नहीं रहा… 30 अक्टूबर से दो नवम्बर के बीच जो कुछ हुआ और जो कवरेज हमने की वो हम दोनों के जीवन की निकृष्टतम स्मृतियां हैं… वो शीर्षक जो 2 नवम्बर को लगा था, सर्वथा अनुचित, पत्रकारिता की मूल भावनाओं और मूल्यों की सरासर अवमानना था…’कार्तिक पूर्णिमा को किया सरयू ने रक्त स्नान’ जैसी हेडिंग को आप और क्या कहेंगे…!

राजनेता हों या मीडिया, सभी ने वक़्त के तंदूर पर अपनी रोटियां सेंकी थीं. किसी को उस समय सह अस्तित्व का बोध नहीं हुआ और सभी इतिहास बदलने में लगे थे. आज 20 साल बाद इतिहास तो अपनी जगह कायम है पर बाकी चरित्र नाबदान में हैं. यह लिखना इसलिए भी जरूरी रहा कि लोग इतिहास से सीखें, जैसे उक्त संपादक महाशय ने सीख लेकर जिम्मेदाराना बयान दिया,  नहीं तो वे भी कूड़ेदान की ही शोभा बढ़ाएंगे. बदसूरत चेहरे मेकअप लेने से खूबसूरत नहीं बनते… जब-जब वक़्त की बारिश होगी, उनके असली चेहरे उभर कर सामने आ जायेंगे. इसलिए आज जरूरत  संभल कर सोचने, संभल कर बोलने और संभल कर आचरण करने की है …इतिहास ने एक नया विहान, एक नयी सुबह और एक हसीन मौका दिया है, हम सभी को इसे झपट लेना है. नहीं तो आने वाली नस्लें हमें कभी भी माफ़ नहीं करेंगी.

लेखक पदमपति शर्मा वरिष्ठ पत्रकार हैं. इनकी गिनती देश के जाने-माने हिंदी खेल पत्रकारों में होती है.

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