: कोई नहीं बनना चाहता खलनायक : करोड़ों लोगों की आस्था और श्रद्धा से जुड़े अयोध्या प्रकरण पर फैसला आ चुका है। न्यायालय के आदेश की चारो ओर सराहना की जा रही है और करनी भी चाहिए, क्योंकि भारत में न्यायालय और कानून ही सर्वोच्च हैं। जिसका पालन व सम्मान करना, सभी का दायित्व है, पर सबसे बड़ा सवाल आज भी सवाल ही है कि क्या समस्या का समाधान हो गया और अगर हो गया, तो सम्मान करते हुए, इसी पर अमल हो जाना चाहिए, जब कि दोनों ही पक्ष सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रहे हैं। देश के वर्तमान हालात को देखते हुए इससे बेहतर फैसला और हो ही नहीं सकता, लेकिन समस्या का निराकरण न होने से डर बरकरार ही है। हो सकता है कि समस्या भविष्य में और भी विकराल रूप धारण कर सामने आये, मतलब जो डर है, उसका सामना एक न दिन करना ही पड़ेगा।
अभी उससे बचना या भागना समझदारी मानी जा रही है, पर एक दिन सामना तो करना ही है। यह बात अलग है कि वर्तमान की जगह आने वाली पीढ़ी भुगते। इसलिए साफ तौर पर कहा जा सकता है कि अपनी भलाई के लिए आने वाली पीढ़ी की राहों में कांटे बोना समझदारी नहीं, बल्कि कायरता है, जिसे याद कर आने वाली पीढ़ी कभी माफ नहीं करेगी। असलियत में चंद कट्टरपंथियों के अलावा इस मुद्दे पर कोई भी किसी पक्ष की नजर में खलनायक नहीं बनना चाहता। हर किसी की इच्छा यही है कि वह नायक बने या न बने, पर खलनायक किसी कीमत पर नहीं बने, क्योंकि आस्था और श्रद्धा जुड़ी होने के कारण यह ऐसा मुद्दा है, जो इतिहास में दर्ज होगा और सदियों तक याद किया जायेगा।
ऐसी ही मानसिकता फैसले में नजर आ रही है, हालांकि कोई भी खुल कर फैसले की आलोचना नहीं कर रहा है, लेकिन अंदर ही अंदर सबके मन में यह सवाल बवाल किये हुए है कि दोनों पक्ष या समुदाय साथ-साथ बैठकर पूजा-अर्चना व इबादत कर सकते, तो बात यहां तक क्यों पहुंचती? इसके अलावा जैसा फैसला आया है, वैसे प्रयास कई बार अदालत या मध्यस्थों के द्वारा किये जाते रहे हैं, पर हर बार ही निराशा हाथ लगी है। हाईकोर्ट के फैसले के आधार पर ही अगर जमीन का बंटबारा कर दिया जाये, तो आये दिन दोनों पक्षों में फसाद होता ही रहेगा, मतलब पीढ़ी-दर-पीढ़ी दोनों समुदायों के लोग एक-दूसरे को ऐसे ही घूरते रहेंगे, जैसे सालों से घूरते आ रहे हैं। स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि अदालत ने यह न्याय नहीं किया, बल्कि संतुलित फैसला देकर अपना पीछा छुड़ाया है, क्योंकि एक ओर अदालत मानती है कि सतयुग में पैदा हुए श्रीराम का चबूतरा सही है और दूसरी ओर पन्द्रवीं शताब्दी से पहले जिन मुसलमानों का भारत में कोई इतिहास ही नहीं है, अदालत उसे भी सही मान रही है। यह दोनों बातें सही कैसे हो सकती हैं? माना अब मुसलमान भी इसी देश के निवासी हैं और उनके भी बराबर के अधिकार हैं, लेकिन जब इतिहास को खंगाल कर फैसला सुनाया जा रहा है, तो सवाल उठेगा ही कि मुसलमान कब आये?
इसलिए फैसला आर-पार होता, तो ज्यादा बेहतर होता, क्योंकि वर्तमान फैसले के आधार पर हिंदू या मुस्लिम समुदाय के लोग शांति पूर्वक कभी भी पूजा-अर्चना या इबादत नहीं कर पायेंगे। फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील होनी ही है। ऐसे में सभी को अब यही इंतजार रहेगा कि इस बार फैसला आर-पार वाला ही होना चाहिए, ताकि शांति पूर्वक पूजा-अर्चना या इबादत की जा सके, हालांकि एक हिस्सा या संपूर्ण जमीन अगर मुस्लिम समुदाय को ही दे दी जाये, तो वह उनके किसी काम की नहीं है, क्योंकि विवाद के कारण उस जमीन पर मस्जिद बना कर नमाज नहीं पढ़ी जा सकती, ऐसा इस्लाम का ही मानना है।
विवाद का हल यही है कि विवादित संपूर्ण जमीन हिंदुओं को दे दी जाये और मस्जिद के निर्माण के लिए सरकार दूसरी जगह जमीन मुहैया करा दे। ऐसी स्थिति में दोनों ही पक्ष खुश होंगे और शांति पूर्वक पूजा-अर्चना या इबादत के साथ एक-दूसरे की मदद भी करेंगे। ऐसा समझौता कराया जा सकता है या कानून बना कर हमेशा के लिए विवाद का पटाक्षेप भी किया जा सकता है। वैसे मुसलमान रामजन्म भूमि को लेकर असमंजस में नहीं हैं। मुसलमानों की चिंता के कई और कारण हैं कि अयोध्या प्रकरण पर अगर आसानी से मान गये, तो ऐसी समस्यायें और भी जगह आ सकती हैं, पर मुसलमानों को यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत लोकतांत्रिक देश है और वह भी बराबर के नागरिक हैं, इसलिए उनके साथ अन्याय हो सकता है, ऐसी उन्हें कल्पना भी नहीं करनी चाहिए। साथ ही ऐसा विश्वास हिंदू कट्टरपंथियों को भी दिलाना चाहिए। मुसलमानों से दरियादिली दिखाने की अपील करने वालों को पहले स्वयं दरियादिली दिखानी चाहिए।
लेखक बी पी गौतम स्वतंत्र पत्रकार हैं.