आपने संजय यादव का नाम नहीं सुना होगा। उनकी लिखी खबरें अक्सर सुर्खियाँ बनती रही हैं। आप उनका नाम कभी सुन भी नहीं पाएंगे! संजय की कहानी उन जैसे उन हजारों नवयुवकों की कहानी है जिन्हें न सिर्फ बिग बिजनेस कर रहे मीडिया हाउस बल्कि खुद को मीडिया का प्रतीक मानने वाला तथाकथित पत्रकारों का एक वर्ग न सिर्फ लगातार इस्तेमाल करता है बल्कि उनकी अंगुलियों का एक एक बूंद खून चूस कर उनकी संवेदनशीलता का निरंतर रेप कर रहा है। अखबारों को इनका नाम छापने से गुरेज तो है ही, वे इन्हें अपना हिस्सा भी नहीं मानते।
गावों-गिरावों-कस्बों में बेहद कठिन परिस्थितियों में खबरों तक पहुंचने वाले इन युवाओं को समाचार संकलन तक के लिए एक पाई भी नहीं दी जाती, लेकिन पत्रकारिता का जूनून, भूखे पेट होने के बावजूद इन्हे खबरों से जोड़े रखता है। कहीं संवादसूत्र तो कहीं प्रतिनिधि के नाम से जाने, जाने वाले इन युवकों की बौद्धिकता को तो अपह्त किया ही जा रहा है, इनसे बड़े पैमाने पर भिक्षावृत्ति भी करायी जा रही है।
संजय को मैंने तब जाना, जब निठारी काण्ड के तत्काल बाद उसने सोनभद्र के लापता आदिवासी बच्चों को लेकर एक खोजपरक रिपोर्ट लिखी। रिपोर्ट चर्चित रही। जहां संजय काम करते थे, वहां दूसरे के नाम पर संजय से खबरें लिखवाया जाता था। उस रपट से नाराज होकर उन्हें बेदखल कर दिया गया। संजय फिर वापस लौटे तो इस ताकीद के साथ की पुलिस, प्रशाशन और सत्ता के खिलाफ़ कुछ नही लिखेंगे क्यूंकि इससे ‘व्यवसाय’ प्रभावित होता है।
सच तो ये है दूसरों के शोषण के ख़िलाफ आवाज उठाने वाले ये अखबारनवीस ख़ुद के शोषित होने के बावजूद आह तक नहीं भर पाते। एक अखबार ने तो इन मेहनतकशों से बेगारी कराने के लिए एक अच्छी खासी तरकीब निकाल रखी है। इन युवकों को काम पर लगाने से पूर्व उनसे बकायदे एक फार्म भरवाया जाता है जिसमे साफ तौर पर लिखा रहता है कि वो शौकिया तौर पर पत्रकारिता कर रहे हैं और समाचार संकलन के लिए किसी भी प्रकार के पारिश्रमिक की मांग नही करेंगे। यह आश्चर्यजनक किंतु सत्य है कि एक अखबार के शीर्षस्थ लोग सूदखोरी का काम भी करते हैं और इन संवादसूत्रों से बकायदे वसूली भी करवाते हैं। तमाम अवसरों पर दरवाजे-दरवाजे जाकर इन्हें विज्ञापन बटोरने का काम भी करना पड़ता है। अगर अपने बास को महीना वसूल कर न दें तो इनकी छुट्टी तय है। समाचार पत्रों के क्षेत्रीय संस्करणों के अस्तित्व में आने के बाद से शोषण कि ये प्रवृति निरंतर बढ़ रही है।
कड़वा सच ये है कि आज खबरें इन्हीं गुमनाम कलमकारों की वजह से जिन्दा हैं, गांवों, गलियों, जंगलों में घूमकर ये साहसिक युवक वहां से खबरें निकालते है जहां पर लम्बी-चौड़ी कमाई करने वाले हाई प्रोफाइल पत्रकारों का दिमाग शून्य हो जाता है। सोनभद्र के आदिवासी अंचलों में घूम-घूम कर इन दिनों आदिवासियों में भुखमरी पर गहन शोध कर रहे संजय कहते हैं- ‘हमें नाम नही चाहिए, हमें बस अपमानित न करो। हमारे लिए इतना ही काफी है कि जिन लोगों के लिए हम खबरें लिख रहे है उनकी जिंदगी से जुड़ी बुनियादी समस्याएं हमारी खबरों से आसान हो रही हैं, अखबार हमें अपना माने न माने, ये लोग तो हमें अपना मानते हैं’।
पत्रकार आवेश तिवारी लखनऊ से प्रकाशित चर्चित हिंदी अखबार डेली न्यूज एक्टिविस्ट (डीएनए) से जुड़े हुए हैं. आवेश से संपर्क [email protected] या फिर 09838346828 के जरिए किया जा सकता है.