लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान ने कहा है कि नीतीश कुमार नौटंकी कर रहे हैं. नीतीश ने गुजरात की नरेन्द्र मोदी सरकार को पांच करोड़ लौटा कर जो शहादत का ड्रामा पेश किया है, वो उनकी नहन्नी से नाखून काट कर शहीद बनने की चाहत है.
पासवान ये भी कहते हैं कि यदि नरेन्द्र मोदी अपने कारनामों से सांप्रदायिक हैं और गुजरात दंगों के दोषी हैं तो ऐसा वो तब भी थे, जब अटलबिहारी सरकार में नीतीश केंद्र में मंत्री थे. तब तो नीतीश मुख्यमंत्री मोदी के साथ गलबहियां कर रहे थे. तब दंगों के चलते नीतीश ने वाजपेयी सरकार से इस्तीफा क्यों नहीं दिया. फिर, जब कोसी की बाढ़ के समय मोदी ने बिहार सरकार को मदद में करोड़ों रुपए भेजे, तब भी नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने मोदी सरकार से पैसे क्यों लिए? क्या तब वे दंगों के दोषी सांप्रदायिक मोदी नहीं थे?
पासवान ने इसी क्रम में नीतीश से पूछा है कि मोदी कल भी कम्युनल थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे. ऐसे में कोसी की आपदा से निपटने के लिए आए गुजरात सरकार के पैसे को आज ही क्यों लौटाया जा रहा है? पासवान नीतीश को याद दिलाते हैं कि तब गुजरात दंगों को लेकर मैंने वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दिया था, लेकिन नीतीश सरकार में बने रहे थे और आज वो नरेंद्र मोदी को लेकर नौटंकी कर रहे हैं…
दिलचस्प है कि पासवान-नीतीश का 36 का गणित पहले से रहा है, लेकिन पासवान की ये टिप्पणी सिर्फ उनकी झुंझलाहट को व्यक्त नहीं करती- गौर से देखें तो इसमें पासवान-लालू गठजोड़ का दर्द, कांग्रेस की कसमसाहट और भाजपा की घबराहट की आहट भी सुनाई दे रही है. दरअसल, नीतीश ने पांच करोड़ की वापसी करके सभी विपक्षी पार्टियों को तो चित करने की कोशिश की ही है, साथ ही भाजपा को भी भारी मुसीबत में डाल दिया है.
भाजपा को इसमें उड़ीसा के नवीन पटनायक के खेल की पुनरावृत्ति नजर आ रही है, तभी तो एक ओर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सी.पी. ठाकुर बिहार में दब कर राजनीति न करने की बात कह रहे हैं, तो दूसरी ओर नीतीश से बातचीत करके जद (यू)-भाजपा गठजोड़ को बनाए रखने की वकालत से भी परहेज नहीं कर रहे. विचित्र ये है कि इसी क्रम में भाजपा उच्चस्तरीय बैठक करके आगे सख्त कदम उठाने और अगले चुनाव में अकेले उतरने की बात कह रही है, तो साथ ही जद (यू) अध्यक्ष शरद यादव से शाहनवाज हुसैन और दूसरे भाजपा नेता मिलकर गठबंधन को बनाए रखने के लिए भी प्रयासरत हैं.
कुल मिलाकर इस दिलचस्प सियासी स्थिति के बीच बिहार आगामी कुछ महीनों में होने वाले विधानसभाई चुनाव के लिए तैयार है. पिछली 12 जून को नीतीश और मोदी के संयुक्त चित्रों और पोस्टरों के साथ द्वंद्व शुरू हुआ, फिलहाल उसके रुकने के कोई आसार नहीं हैं. अब तो इसके बढ़ने की ही संभावना है. इसकी मुख्य वजह सिर्फ इतनी नहीं है कि नीतीश अल्पसंख्यक वोटों की लालच में भाजपा से चुनाव से पहले ही पल्ला छुड़ा लेना चाहते हैं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा है.
नीतीश जानते हैं कि बिहार की राजनीति जातिगत ध्रुवीकरण से गहराई से प्रभावित है, लेकिन गौरतलब ये है कि वो लालू यादव के ‘कुशासन और अराजक गुंडाराज’ के लगभग डेढ़ दशक के ‘काले अध्याय’ को लोगों के जेहन में जिन्दा रखते हुए इसकी प्रतिक्रिया में ‘बिहार के स्वाभिमान’ की बात जोर-शोर से उठा रहे हैं. एक ओर बिहार में विकास दर का देश में सभी प्रदेशों से बेहतर होना और दूसरी ओर बिहार के मान-अपमान की शतरंजी बिसात पर सियासत के दांव चल कर नीतीश ने सभी को अचंभित ही किया है.
वैसे नीतीश ने पहले भी कब्रिस्तान के भूक्षेत्र को बढ़ाने की बात हो या पसमांदा मुसलमानों की बेहतरी से जुड़े मुद्दे या फिर अल्पसंख्यकों के व्यापक संदर्भों में विकास के सवाल – सभी पर संजीदगी से काम करके अपने जनाधार को बढ़ाने और लालू-पासवान या कांग्रेस को जवाब देने की ही कोशिश की है. लेकिन इन सभी से बड़ा काम रहा- अतीत में हुए भयंकर भागलपुर दंगे के प्रमुख आरोपी को सजा दिलवाना. लेकिन भाजपा अधिवेशन के दिन जिस तरह से नरेंद्र मोदी की तस्वीर को नीतीश के साथ प्रकाशित कराया गया और उसके साथ जिन बातों को प्रचारित करते हुए पोस्टर लगे- उसने नीतीश के हाथ एक ऐसा तीर दे दिया जिसके निशाने पर कई बातें खुद-ब-खुद आ गईं. नीतीश ने सारे मामले को भावनात्मक रूप देते हुए भारतीय संस्कृति और बिहार की अस्मिता से जोड़ दिया.
मोदी को पैसे की वापसी से सिर्फ अल्पसंख्यकों के घावों पर मरहम ही नहीं लगा, जातिवादी राजनीति पर बिहारी स्वाभिमान का मुद्दा भी प्रभावी होकर उभरा है. ‘कोसी की बाढ़ में नरेंद्र मोदी सरकार की मदद का खुद के पोस्टर और चित्रों के साथ बखान भारतीय संस्कृति नहीं है. किसी की मुसीबत के समय सहायता करके फिर उसका उसी के सामने बखान-अपमान जैसा है. अगर वो पैसा खर्च नहीं हुआ होगा, तो हम उसे मोदी सरकार को वापस करेंगे’, नीतीश ने बिहार की भदेस सियासत में ये चन्द वाक्य कहके बिहारियों को ये अहसास कराने की कोशिश की है कि उनकी नाक किसी से कम ऊंची नहीं है और बिहार किसी से भी कमतर नहीं है.
जाहिर है कि नीतीश को बैठे-बिठाए ये दांव भाजपा ने ही उपलब्ध कराया है और अब भाजपा के लिए यही गले की हड्डी भी बन गया है. वैसे श्रीराम की दुहाई देने वाली भाजपा के सामने ये तर्क भी प्रमुखता से उठ रहे हैं कि सुग्रीव से राम की मित्रता थी और मित्रता निभाने तथा न्याय का साथ देने के लिए ही मर्यादा पुरुषोत्तम ने छिपकर बाली को मारा ही नहीं था, बल्कि सुग्रीव को राजा भी बनाया था, लेकिन कभी रंचमात्र भी न तो खुद का बखान किया और न ही सुग्रीव के मान को आहत होने दिया. जाहिर है ऐसे सवाल भाजपा को कटघरे में ही खड़ा कर रहे हैं.
उधर, भले ही नीतीश का नाराजगी में भाजपा नेताओं के सम्मान में आयोजित रात्रि भोज रद्द करना शालीन-शिष्ट सियासत की दृष्टि से उचित न हो, लेकिन नीतीश ने इसे चतुराई से बिहारी आन के साथ जोड़ने की कोशिश की है. अब ये चतुराई आनेवाले विधानसभाई चुनाव में उन्हें कितना फायदा पहुंचा पाती है, इस बारे में कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन ये स्पष्ट है कि भाजपा समेत सभी पार्टियां इस दांव की काट में लग गई हैं. और, दूसरी पार्टियों को छोड़ भी दें तो खुद जद (यू) में ही अध्यक्ष शरद यादव की परेशानी का सबब भी यही है. शरद यादव कभी नहीं चाहते कि नीतीश-भाजपा का गठबंधन टूटे और इसीलिए वो दिल्ली से लगातार गठबंधन के भविष्य में भी बने रहने के बयान दे रहे हैं, लेकिन उनकी असली चिंता की वजह नीतीश हैं.
शरद यादव जानते हैं कि उनका पार्टी अध्यक्ष बने रहना और प्रभाव विस्तार तभी तक संभव है, जब तक कि नीतीश भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाते रहें. जब भी नीतीश गठबंधन से अलग होकर अपने दम पर सरकार बनाएंगे तो उनकी नैया भी खतरे में होगी क्योंकि तब नीतीश का कद काफी बड़ा हो जाएगा. ऐसी ही मिलती-जुलती सियासी तकलीफ अन्य पार्टियों और नेताओं की भी है- तभी तो सभी गुजरात को पैसे की वापसी का विरोध करते नहीं अघा रहे. भाजपा ने तो यहां तक कहा कि नीतीश उस हाथ को भी काट कर गुजरात भेज दें, जिससे उन्होंने मोदी से हाथ मिलाया था. दरअसल, सभी नीतीश के इस अप्रत्याशित ‘बिहारी स्वाभिमान’ के दांव से आहत हैं.
गौरतलब ये है कि अब भले ही लालू, पासवान और कांग्रेस ये कहें कि पैसा तो गुजरात की जनता का है, कोई नरेंद्र मोदी का व्यक्तिगत नहीं, इसलिए इसे वापस करना उचित नहीं था, या फिर उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी नाराजगी में विश्वास यात्रा में न जाएं और नीतीश यात्रा ही रद्द कर दें या भाजपा झुंझलाहट में कोई नया रास्ता निकालने वाला बयान दे-लेकिन संकेत स्पष्ट हैं कि नीतीश अब भाजपा के साथ गठबंधन के पक्ष में नहीं हैं. ये अलग बात है कि फिलहाल घिसट रही ये दोस्ती कब प्रतिद्वंद्विता और फिर सियासी दुश्मनी में परिणित होती है- अभी कहना मुश्किल है. लेकिन यह तय है कि जो भी होगा अगले चंद महीनों में होनेवाले विधानसभा चुनावों से काफी पहले ही होगा. ये अलग बात है कि नवीन पटनायक जैसी सफलता नीतीश की झोली में आ पाती है या नहीं- ये तो वक्त ही तय करेगा.
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों ‘लोकमत’, नागपुर में संपादक के रूप में कार्यरत हैं. उनका यह आलेख ‘लोकमत’ में प्रकाशित हआ है और वहीं से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.