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मेरी भी सुनो

छह दिसंबर का दिन और फैजाबाद में मेरा बचपन

[caption id="attachment_2249" align="alignleft"]चंदन श्रीवास्तवचंदन श्रीवास्तव[/caption]आज 6 दिसम्बर है. अयोध्या एक बार फिर हमेशा की तरह खामोश है. राजनेता इसका नाम ले-ले कर छाती पीट रहा है. पुलिस के सायरन की आवाजें अयोध्या की ख़ामोशी को चीर रही है. पर 30 अक्टूबर 1990, 2 नवम्बर 1990 और 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या यूं खामोश नहीं थी. कार सेवकों, नहीं, आततायियों ने अयोध्या को झकझोर दिया था. मगर अयोध्या और उसके जुड़वा शहर फैजाबाद का आम बाशिंदा फिर भी खामोश था. मूकदर्शक बनकर वो सोच रहा था आखिर हमने कब इस आन्दोलन की मांग की. शायद उससे राय लेने की जरूरत भी नहीं महसूस की गई. आम लोगों पर उस आन्दोलन से क्या बीती थी, इसका शल्म शायद आडवाणी, कटियार व अन्य हिन्दू नेताओं को न हो. फैजाबाद के छोटे से मोहल्ले में मेरा परिवार भी रहता था. बाबरी विध्वंस के समय मेरी उम्र 11 साल थी. विध्वंस के बाद शाम को एक जीप मोहल्ले से गुजरी जिससे एलान किया जा रहा था “शाम सात बजे से कर्फ्यू लगा दिया गया है, जरूरत का सामान एकत्रित कर लें. सात बजे के बाद घर से बाहर निकले तो गिरफ्तार हो जाएंगे.”

चंदन श्रीवास्तव

चंदन श्रीवास्तवआज 6 दिसम्बर है. अयोध्या एक बार फिर हमेशा की तरह खामोश है. राजनेता इसका नाम ले-ले कर छाती पीट रहा है. पुलिस के सायरन की आवाजें अयोध्या की ख़ामोशी को चीर रही है. पर 30 अक्टूबर 1990, 2 नवम्बर 1990 और 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या यूं खामोश नहीं थी. कार सेवकों, नहीं, आततायियों ने अयोध्या को झकझोर दिया था. मगर अयोध्या और उसके जुड़वा शहर फैजाबाद का आम बाशिंदा फिर भी खामोश था. मूकदर्शक बनकर वो सोच रहा था आखिर हमने कब इस आन्दोलन की मांग की. शायद उससे राय लेने की जरूरत भी नहीं महसूस की गई. आम लोगों पर उस आन्दोलन से क्या बीती थी, इसका शल्म शायद आडवाणी, कटियार व अन्य हिन्दू नेताओं को न हो. फैजाबाद के छोटे से मोहल्ले में मेरा परिवार भी रहता था. बाबरी विध्वंस के समय मेरी उम्र 11 साल थी. विध्वंस के बाद शाम को एक जीप मोहल्ले से गुजरी जिससे एलान किया जा रहा था “शाम सात बजे से कर्फ्यू लगा दिया गया है, जरूरत का सामान एकत्रित कर लें. सात बजे के बाद घर से बाहर निकले तो गिरफ्तार हो जाएंगे.”

ये एलान सुनकर मैं और मेरी उम्र के मोहल्ले के बच्चे काफी खुश थे. ख़ुशी का कारण था कि स्कूल से कुछ दिनों के लिए फुर्सत मिल गयी थी. कर्फ्यू का मतलब तो हम 1990 से ही समझने लगे थे जब पुलिस ने कथित रामभक्तों पर गोलियां चलायी थीं और कई मारे गए थे. बहरहाल, ये एलान सुनकर मेरे माँ पिताजी का चेहरा मुरझा गया था. तब मैं उनके मुरझाये चेहरे का कारण नहीं समझ सका. मेरे मामा का परिवार भी दुर्योगवश हमारे घर आया हुआ था. कुल मिलाकर घर में सदस्यों की संख्या बढ़ चुकी थी और लाउडस्पीकर ने एलान किया कि सात बजे के पहले जरूरी सामन एकत्रित कर लें. सात बजे के पहले… कितने दिन का…. और क्या इतना पैसा है घर में… शायद यही सोचकर मेरे माँ-पिताजी तनाव में थे. हालाँकि मेरे पिताजी ने कई कर्फ्यू देखे थे क्योंकि हमारा पैतृक घर दंगा शिरोमणि शहर मऊ में है. खैर, मरता क्या न करता, जो पैसे थे उससे दो चार दिनों का रसोई का सामान आ गया. कर्फ्यू के दौरान ही पता चला कि घर से कुछ ही दूर नसीम रिक्शेवाले का एक रिक्शाचालक खून बेचने के चक्कर में पकड़ा गया. पुलिस ने उसे दंगाई मानकर चालान कर दिया. वाह रे तमाशा. पुलिस के लिए कितना आसान है न रिक्शेवाले और रोज बिकने वाले मजदूरों को दंगाई और नक्सली सिद्ध कर देना. कारण है कि ये जुल्म देखकर भी तटस्थ रहते हैं और तटस्थ रहने वालों का इतिहास वक़्त जरूर लिखता है. ये सब पर लागू है और हमारे भी ऐसे ही इतिहास की कलम कहीं चल रही होगी.

खैर मैं वापिस आता हूँ. कर्फ्यू के दिन बढ़ गए. यानी खाने की दिक्कत हमारे परिवार तक पहुंच रही थी. मेरे पिताजी स्कूटर पर घूम-घूम कर टॉर्च बल्ब बेचने का व्यवसाय किया करते थे और अब उन्हें बल्ब कर्फ्यू में ही बेचना था. मेरे घर के सामने वाली सड़क सरयू नदी के किनारे तक जाती थी. तीन-चार किलोमीटर की इस सड़क पर हालांकि पुलिस की कोई खास व्यवस्था नहीं थी फिर भी कर्फ्यू का डर तो था ही. पिताजी स्कूटर लेकर सरयू के माझा क्षेत्र तक गए. माझा के बालू में एक किलोमीटर तक स्कूटर खींचने के बाद नदी के किनारे एक नाव तय की जो स्कूटर लाद कर नदी उस पार गोंडा जिले में पहुंचाने के लिए तैयार हो गया. गोंडा के एक ग्रामीण बाजार में पहुँच कर पिताजी ने टॉर्च बल्ब बेचकर कुछ पैसे इकट्ठे किये और वहीँ से जरूरी सामान खरीदा. मगर लौटने के लिए कोई नाव न मिलने पर उन्हें वहीँ एक परिचित दुकानदार के घर रुकना पड़ा.

आप शायद समझ सकते हैं जहाँ की फिजाओं में इतना जहर घुला हो वहां किसी घर का मुखिया रात भर घर न लौटे, उसकी कोई सूचना उसके छोटे-छोटे बच्चों और पत्नी को न हो, उस घर पर क्या बीत रही होगी और किस तरह रात कटी होगी. आज भी जब उस रात को याद करता हूँ तो दिमाग की नसें फटने लगती हैं. बहरहाल सुबह ही पिताजी घर आ गए तब सभी के जान में जान आई.

मुझे पता है मेरे परिवार के साथ बीते इस वाकये से कई गुना अधिक भयावह वाकया अयोध्या-फैजाबाद के कई लोगों के साथ उसी दौरान बीता होगा. अयोध्या वो शहर है जिसके नाम पर पूरे देश में दंगे हुए यहाँ तक कि पाकिस्तान और पूरे विश्व में हंगामा हुआ, सद्दाम हुसैन तक ने इस मुद्दे पर बयान दिया, इसी मुद्दे को लेकर बाबरी विध्वंस के बाद से आज तक 6 दिसम्बर के दिन संसद हंगामे की भेंट ही चढ़ी है. अयोध्या के यलो जोन में रहने वाले लोगों को अपने बेटे-बेटियों की शादी के महोत्सव के लिए उतनी ही मशक्कत करनी पड़ती है जितना शादी ढूँढने में उन्होंने ऊर्जा खर्च की होती है. मगर शायद आपको यकीन न हो कि बाबरी विध्वंस के बाद भी अयोध्या के थानों में एक भी हिन्दू-मुस्लिम दंगे का मुकदमा नहीं है. सिवाय कारसेवकों (जो कि अयोध्या के बाहर से ही थे) द्वारा फैलाये गए बवाल के.

अपनी बात ख़त्म करने से पहले छोटा सा जिक्र लिब्रहान रिपोर्ट का भी करूँगा. जस्टिस लिब्रहान मानते हैं कि नरसिम्हा राव सरकार इस बखेड़े में निर्दोष है क्योंकि प्रधानमंत्री राज्य के काम काज में हस्तक्षेप नहीं कर सकता.  मनमोहन सिंह लिब्रहान कानूनविद हैं, न्यायाधीश रहे हैं, (इनके कमीशन में हिन्दू पक्ष निर्मोही अखाड़ा के वकील रंजीतलाल वर्मा के भाई रजिस्ट्रार पद पर थे) उनके सामने मेरी कानूनी जानकारी तुच्छ है. मुझे तो बस इतना याद है कि ऐसा ही एक और उन्माद फैला था मार्च 2002 में. शिलादान के बहाने. जिसकी परिणति गोधरा कांड और गुजरात दंगों के रूप में सामने आई. विवादित परिसर, रेड जोन, अयोध्या विवाद जैसे शब्दों को सुनते-सुनते मैं बच्चे से जवान हो चुका. शिलादान के समय उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन था और केंद्र में एनडीए शासन. शिलादान की वजह से कर्फ्यू तो नहीं लगा था मगर हालात किसी कर्फ्यू से कम नहीं थे. धारा 144 लागू थी. कारसेवकों और उनके नेता रामजन्मभूमि न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष स्व. रामचंदर परमहंसदास  की जिद थी की वे लोग विवादित परिसर में ही शिलादान करेंगे. कारसेवक अयोध्या न पहुँच सकें, इसके लिए बाजपेयी सरकार ने ट्रेनें रोक दीं, मुख्य मार्गों को केंद्रीय सुरक्षा बलों के हवाले कर दिया गया. फिर भी काफी मात्रा में कारसेवक अयोध्या पहुँच गए. 15 मार्च 2002 को जब कारसेवक हनुमानगढ़ी के रास्ते विवादित परिसर की ओर बढे़ तो सुरक्षा बलों की लाठियों ने उनका स्वागत किया. तब जबकि स्व. परमहंस दास ने एलान किया था कि अगर उन्हें रोका गया तो वह आत्मदाह कर लेंगे. आत्मदाह तो खैर उन्होंने नहीं किया, हां, अपने मठ में ही शिलादान करने के लिए राजी हो गए. वो भी अयोध्या सेल के अधिकारी शत्रुघ्न सिंह के सामने.

नरसिम्हा राव 1992 में कारसेवकों को क्यों नहीं रोक पाए थे… उनमें इच्छा-शक्ति का अभाव था या उनकी कोई धूर्त राजनीति, आप सब बेहतर जानते हो. और अगर आपको न याद हो तो मैं एक बात और बताना चाहूँगा कि बाबरी डेमोलिशन के बाद उत्तर प्रदेश के अलावा बीजेपी की तीन और राज्य सरकारें गिरा दी गयीं थीं. मैं पत्रकारिता के दौरान कई ऐसे मुस्लिम नेताओं से मिला हूँ जिनका आरोप है कि कल्याण सिंह ने तो 2 बजकर 50 मिनट पर जब पहला गुम्बद गिरा तभी इस्तीफ़ा दे दिया था. मगर केंद्र से राज्यपाल को सख्त हिदायत थी कि निर्देश मिलने के बाद ही इस्तीफ़ा क़ुबूल किया जाय. खैर इन महान नेताओं की करनी को कोई देखे न देखे, समझे न समझे, रामलला सब देख रहे हैं, जो इस वक़्त हजारों बंदूकों और संगीनों की क़ैद में हैं और अयोध्या की जनता नीरज साहब के उसी शेर को दोहराती रहती है…..

समय ने जब भी अंधेरों से दोस्ती की है,

जला के मेरा ही घर रौशनी की है,

कहते हैं मेरे घर में धुएं के धब्बे,

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यहाँ कभी उजालों ने ख़ुदकुशी की है.

लेखक चन्दन श्रीवास्तव फैजाबाद के रहने वाले हैं. वे लाइव इंडिया न्यूज चैनल के लिए काम करते हैं.

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