आर.एस.एस. वालों ने एक बार फिर योग्य पूर्वजों की तलाश का काम शुरू कर दिया है। करीब 29 साल पहले गांधी को अपनाने की कोशिश के नाकाम रहने के बाद उस प्रोजेक्ट को दफन कर दिया गया था लेकिन चारों तरफ से नाकाम रहने पर एक बार फिर महात्मा गांधी को अपनाने की जुगत चालू हो गई है। इस बार महात्मा गांधी के व्यक्तित्व पर नहीं उनके सिद्धांतों का अनुयायी होने की योजना है। महात्मा जी की किताब ‘हिंद स्वराज’ के सौ साल पूरे होने पर उसमें बताए गए हिंदू धर्म और गाय की रक्षा वाले मुद्दों पर फोकस करके मुसलमानों को अलग थलग करने की योजना पर काम हो रहा है। इसी सिलसिले में दिल्ली में 10 अक्टूबर को संघ के विचारकों और मित्रों ने मिलकर ‘हिंद स्वराज’ पर एक गोष्ठी का आयोजन किया है। उम्मीद है कि वहां गांधी जी की किताब से वे अधूरी बातें निकालकर संघी व्याख्या करने की कोशिश की जायेगी। इस खेल के सफल होने की कोशिश की जायेगी। इस खेल के सफल होने की संभावना कम है क्योंकि ज्यों ही, वहां आधी अधूरी बात की जायेगी, इंटरनेंट और ब्लाग की दुनिया में सक्रिय नौजवान अगले ही दिन पूरी बात को सबूत सहित प्रकाशित कर देंगे। बहरहाल, बीजेपी वालों की कोशिश जारी है लकिन अभी कोई सफलता नहीं मिली है। पार्टी के पास ऐसा कोई हीरो नहीं है जिसने भारत की आजादी में संघर्ष किया हो।
एक वी.डी. सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की गई, जब संघ परिवार की केंद्र में सरकार बनी तो सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी हासिल की गई लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से मांगी गई माफी के बाद आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है। सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी। इस अभियान का नुकसान बीजेपी को बहुत हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थे, उन्हें पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने की शपथ ली थी। 1980 में अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी को अपनाने की कोशिश शुरू की थी लेकिन गांधी के हत्यारों और संघ परिवार के संबंधों को लेकर मुश्किल सवाल पूछे जाने लगे तो जान बचाकर भागे और करीब 2भ् साल तक महात्मा गांधी का नाम नहीं लिया। बीच में कोशिश की गई कि आर.एस.एस. के संस्थापक हेडगेवार के बारे में प्रचार किया जाय कि वे भी आजादी की लड़ाई में जेल गए थे लेकिन मामला चला नहीं। उल्टे, जनता को पता लग गया कि वे जंगलात महकमे के किसी विवाद में जेल गए थे जिस संघ वाले अब क्ववन सत्याग्रह नाम देते हैं क्ववन सत्याग्रहं शब्द को सच भी मान लें तो आर.एस.एस. भी यह मानता है कि वे आजादी के किसी कार्यक्रम में संघर्ष का हिस्सा नहीं बने।
1940 में संघ के मुखिया बनने के बाद गोलवलकर भी घूम घाम तो करते रहे लेकिन अंग्रेजों की कृपा बनी रही और जेल नहीं गए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब पूरा देश गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में शामिल था तो न तो आर.एस.एस. के गोलवलकर को कोई तकलीफ हुई और न ही मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिनाह को। दोनों आजादी का सुख भोगते रहे। जब संसद में सावरकर की तस्वीर लगाने के मामले पर एन.डी.ए. सरकार की पूरी तरह से दुर्दशा हो गई तो सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई। लालकृष्ण आडवाणी लौहपुरुष वाली भूमिका में आए और हर वह काम करने की कोशिश करने लगे जो सरदार पटेल किया करते थे। लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि सरदार की महानता के सामने बेचारे आडवाणी टिक न सके। संघी बिरादरी ने उन्हें पूरे देश में घुमाया, भावी प्रधानमंत्री का अभिनय करवाया और आखिर में संघ के मुखिया कहने लगे कि आडवाणी को विपक्ष के नेता की गद्दी भी खाली कर देनी चाहिए। वैसे सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा। सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था। जब हत्या में गोलवलकर का रोल सिद्ध नहीं हो सका तो उन्हें छोड़ देना चाहिए था लेकिन सरदार ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडर टेकिंग न दें। बहरहाल अंडरटेकंग लेकर गोलवलकर को छोड़ा। साथ ही एक और आदेश दिया कि संघ वाले किसी तरह ही राजनीति में शामिल नहीं हो सकेंगे। उसके बाद राजनीति करने के लिए 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई। इस सब के बावजूद भी गुजरात में अभी नरेंद्र मोदी की कोशिश रहती है कि सरदार पटेल के नाम की माला जपते रहें।
ऐसा शायद इसलिए करते हैं कि गुजरात की राजनीति में आज के सबसे मजबूत पटेल नेता, केशूभाई पटेल को पैदल करके उन्होंने गुजरात की गद्दी पर कब्जा जमाया हुआ है। राष्ट्रीय स्तर पर महात्मा गांधी की विचार धारा को अपनाने का एक नया अभियान फिर शुरू हुआ है। इस बार विजयादशमी को दिल्ली के द्वारका इलाके में आयोजित एक कार्यक्रम में भीड़ जुटाने के लिए खुली जीप में जो स्वयंसेवक घूम रहे थे, उन्होंने अपनी जीप पर महात्मा गांधी की तस्वीर लगा रखी थी। सवाल उठता है कि यह लोग अपने नेताओं की तस्वीर ऐसे अवसरों पर क्यों नहीं लगाते जबकि कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्षों मोहनदास करम चंद गांधी और वल्लभ भाई पटेल को क्यों अपनाने के चक्कर में रहते हैं। आखिर जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी उसी मंत्रिमंडल के सदस्य थे जिसमें सरदार पटेल शामिल थे। दीनदयाल उपाध्याय, गोलवलकर या हेडगेवार की तस्वीर भी लगा सकते हैं। शायद संघी नेताओं की दृष्टि में भी इन लोगों में वह चमक न हो जो महात्मा गांधी में है या सरदार पटेल में है। बहरहाल हीरो की तलाश में संघ बिरादरी किसी को भी अपना कह सकती है इसलिए आजादी की लड़ाई में शामिल महापुरुषों के वंशजों को चौकन्ना रहना चाहिए कि पता पता नहीं कब संघ वाले उनके पुरखों को अपना कहने लगें।
लेखक शेष नारायण सिंह पिछले कई वर्षों से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इतिहास के छात्र रहे शेष रेडियो, टीवी और प्रिंट सभी माध्यमों में काम कर चुके हैं। करीब तीन साल तक दैनिक जागरण समूह के मीडिया स्कूल में अध्यापन करने के बाद इन दिनों उर्दू दैनिक सहाफत के साथ एसोसिएट एडिटर के रूप में जुड़े हुए हैं। वे दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिंदी डेली अवाम-ए-हिंद के एडिटोरियल एडवाइजर भी हैं। शेष से संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं।