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तेरा-मेरा कोना

घुप्प अंधेरे में रोशनी

[caption id="attachment_2231" align="alignleft"]गिरीश मिश्रगिरीश मिश्र[/caption]पूरे देश में 26/11 का दर्द, उसकी याद, आक्रोश, जुलूस, प्रार्थनाओं, संकल्पों के बीच एक गजब की संवेदना महसूस होती रही. आतंकी घटनाएं तो इसके अलावा भी होती रही हैं, लेकिन 26/11 के आंसू किसी भी क्षेत्र, मजहब, धर्म, जाति, भाषा, वर्ण, घृणा, द्वेष की बाड़ या बांध की परवाह किए बिना समान रूप से बहे और सबसे खास तो ये संकेत रहा कि भविष्य को लेकर भी जागरूक पहल को ऐसी विभिन्नताएं या अलगाव रोक न पाएं. यह शायद इस देश की पहली आतंकी वारदात रही, जिसने खुद में दुखद होते हुए भी राष्ट्र-समाज को एकताबद्ध ही नहीं किया, उसकी ढेरों विभिन्नताओं के बीच भी जन संवेदना के सुनहरे धागे ने सभी को ऐसे जोड़ दिया, गोया यह हर किसी के लिए उनका निजी हादसा हो. कुछ ऐसा जिसमें उनका कोई बहुत अपना कहीं खो गया हो. आतंकी हमले तो कुछ साल पहले मुंबई की लोकल में भी हुए थे.

गिरीश मिश्र

गिरीश मिश्रपूरे देश में 26/11 का दर्द, उसकी याद, आक्रोश, जुलूस, प्रार्थनाओं, संकल्पों के बीच एक गजब की संवेदना महसूस होती रही. आतंकी घटनाएं तो इसके अलावा भी होती रही हैं, लेकिन 26/11 के आंसू किसी भी क्षेत्र, मजहब, धर्म, जाति, भाषा, वर्ण, घृणा, द्वेष की बाड़ या बांध की परवाह किए बिना समान रूप से बहे और सबसे खास तो ये संकेत रहा कि भविष्य को लेकर भी जागरूक पहल को ऐसी विभिन्नताएं या अलगाव रोक न पाएं. यह शायद इस देश की पहली आतंकी वारदात रही, जिसने खुद में दुखद होते हुए भी राष्ट्र-समाज को एकताबद्ध ही नहीं किया, उसकी ढेरों विभिन्नताओं के बीच भी जन संवेदना के सुनहरे धागे ने सभी को ऐसे जोड़ दिया, गोया यह हर किसी के लिए उनका निजी हादसा हो. कुछ ऐसा जिसमें उनका कोई बहुत अपना कहीं खो गया हो. आतंकी हमले तो कुछ साल पहले मुंबई की लोकल में भी हुए थे.

1993 में ही मुंबई में 12/3 भी हुआ था, जब श्रृंखलाबद्ध धमाकों ने मुंबई को हिला दिया था. पिछले 10 साल में इसके अलावा भी अनेक आतंकी हमले हुए. उसके पहले छह दिसंबर 1992 को बाबरी मिस्जद विध्वंस भी हुआ और उसके बाद देश भर में खूनी सांप्रदायिक दंगे भी, जिनका रूप सामुदायिक था और विभीषिका में किसी आतंकी हमले से कम नहीं और कहीं-कहीं तो उससे भी क्रूर. लेकिन इनमें से किसी के बाद भी ऐसी दिल-दिमाग को जोड़ने वाली रोशनी पैदा न हो सकी, जैसी उजाले की वाकई दरकार थी. और न ही ऐसा आत्ममंथन और विश्लेषण ही हो सके. लोग तब एकजुट तो हुए लेकिन, अपने ही किसी ‘भाई’ के समुदाय, इलाकों, आस्था, तौर-तरीकों के प्रति दिलों में नफरत का ज्वालामुखी लिए हुए, घृणा और गुस्से का अंबार लिए हुए.

लेकिन 26/11 ने कीचड़ को कीचड़ से नहीं, साफ पानी से साफ करने के बहुत पुराने नुस्खे को फिर से जीवंत किया. पिछले साल की तरह ही जब मासूम बच्चों और आम लोगों का जुलूस इस बार भी शांति की कामना में निकला, जिसका रूप सिर्फ मुंबई ही नहीं, पूरे देश में एक जैसा दिखा तो लगा कि सच है, कांटों के बीच ही सुर्ख गुलाब होता है. बड़ों में ही नहीं, स्कूल जाते छात्र-छात्राओं, कालेजों के युवाओं में भी एक जैसा जज्बा दिखा- जिसमें आतंक और हिंसा के प्रति गुस्सा है तो आंखों में है बेहतर कल और खुशनुमा भविष्य की चमक. जगह- जगह मोमबित्तयां जलीं, जुलूस निकले, सुरक्षा बलों की परेड निकली. मुंबई में शहीदों के स्मारक का उदघाटन करने गृहमंत्री पी. चिदंबरम पहुंचे. संसद ने भी एकजुटता को व्यक्त करता प्रस्ताव पारित किया. अमेरिका में प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान 26/11 के दोषियों  को दंडित करने की फिर से मांग उठी.लेकिन सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो ऐसा भी नहीं. इन सबके बीच ही संसद में 26/11 के पीड़ितों की राहत को लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी लगे. मीडिया में सुर्खी बनी कि जब देश एकजुट है तो ऐसे मौके पर भी राजनेता एक नहीं. इसी बीच महाराष्ट्र में एक मंत्री ने दूसरे पर आरोप लगा दिया कि आतंकी हमले के समय वे घर में ही बैठे रहे, फिर सफाई और लीपापोती का दौर चला.

ऐसे में गौरतलब ये है कि अभी भी अनेक कमियों के बावजूद 26/11 ने हमारी जिजीविषा को मजबूत करने का ही काम किया है. कहने वाले कह सकते हैं कि मुंबई, दिल्ली, बेंगलौर, चेन्नई,कलकत्ता जैसे शहरों के मध्यवर्ग के लोग यदि मोमबित्तयां लेकर शांतिमार्च पर निकल ही जाते हैं तो इससे क्या हो जाएगा? क्या इससे आतंक, हिंसा और घृणा पर विराम लग पाएगा? या फिर इससे  हेमंत करकरे, अशोक कामटे, विजय सालस्कर और उन जैसे कर्मवीर-देशभक्त जांबाज वापस आ पाएंगे?

निश्चित रूप से ऐसे सवाल महत्वपूर्ण हैं. लेकिन, समझा जाना चाहिए कि लोकतंत्र में जनता का जागरुक होना, उसके द्वारा पहल लेना और सरकार को उस पहल के अनुरूप कार्रवाई के लिए प्रेरित करना या फिर कभी-कभी मजबूर तक करना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण पक्ष है. संक्षेप में कहें तो यह एक अच्छा संकेत है जब राजपक्ष को लोकपक्ष के अनुरूप कदम उठाना पड़े. यह ठीक है कि सुरक्षा बलों के जिन जवानों ने देश-समाज की रक्षा में जान दी, वे वापस तो नहीं आ सकते. देश उनके प्रति श्रद्धा से नतमस्तक है. लेकिन, कविता करकरे जब पति के उस बुलेट प्रूफ जैकेट के नियोजित रूप से गायब होने का मसला उठाती हैं, जो गुणात्मक दृष्टि से बहुत खराब था या फिर जब विनीता कामटे अपनी किताब ‘लास्ट बुलेट’ में पूछती हैं कि अशोक कामटे कॉमा अस्पताल कैसे पहुंचे, जबकि पुलिस कमिश्नर हसन गफूर ने उन्हें ट्राइडेंट होटल बुलाया था या फिर पति अशोक कामटे की पोस्टमार्टम रिपोर्ट और अंतिम समय ड्यूटी पर जाते हुए संवाद की कॉपी लेने के लिए उन्हें आरटीआई का सहारा क्यों लेना पड़ा, तो ये सवाल सिर्फ कविता या विनीता के नहीं होते, देश भर के होते हैं. इसीलिए एकजुट राष्ट्र की भावनाओं का सम्मान करते हुए ही देश के गृहमंत्री चिदंबरम कविता से माफी तक मांगते हैं और इसीलिए विनीता के दर्द के ताप को न झेल पाने के चलते संयुक्त पुलिस आयुक्त राकेश मारिया पद से हटने की बात भी कहते हैं.

समझा जाना चाहिए कि किसी भी समाज में जागरुकता और लोकतांत्रिक समझ की पहल की अगुवाई मध्य वर्ग को ही करनी पड़ती है. और इतिहास गवाह है कि दुनिया में हर बेहतर बदलाव की शुरुआत इसी मध्यवर्गीय तबके से ही होती है. इन संदर्भों में निश्चित रूप से प्रशंसनीय यह है कि जाति, धर्म, मजहब, क्षेत्र, भाषा, भूषा, खानपान की विभिन्नताएं गौण हुई हैं. लोग इन पारंपारिक कमजोरियों से ऊपर उठ कर संजीदगी से सड़कों पर उतरे हैं. आम लोग जनता के स्तर पर अपनी भूमिका को लेकर सचेत होते हुए दिखते हैं- यह हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत है. हालांकि कमजोर पक्ष ये है कि राजनेताओं के आरोप-प्रत्यारोप हैं, टीवी कैमरे को देख कर नारे की आवाज और पहलकदमी बढ़ जाती है, राजनीतिज्ञों को कोसना और तुरंत पाकिस्तान पर हमले की मांग भी आवेशजनित ज्यादा हैं. लेकिन गौर करने की बात ये भी है कि लोग अब खुद से भी पूछ रहे हैं कि वे हमले के वक्त क्या कर रहे थे? क्या ऐसे मौकों पर वे वो सब कुछ करते हैं, जो कि वांछित है? क्या ये सकारात्मक और स्वस्थ पहल का संदेश नहीं? क्या ऐसे ही सवालों के जवाब में तत्कालीन पुलिस आयुक्त हसन गफूर ये नहीं बोल गए कि 26/11 की वारदात के वक्त पुलिस के चार बड़े अफसर मौके पर जाने में हिचकिचा रहे थे? वो अलग बात है कि बाद में उन्होंने इसका ये कह कर खंडन किया कि ये बात छापने के लिए नहीं थी, लेकिन अब जनता के बीच इन्हें मुद्दा बनने से कौन रोक सकता है?

वैसे 26/11 को हम अमेरिका के 9/11 से अगर तुलना करें तो साफ लगता है कि अमेरिकी सरकार के स्तर पर आगे किसी हादसे को रोकने के लिए व्यवस्था जरूर चाक-चौबंद हुई है, लेकिन खास समुदाय और उस आस्था से जुड़े लोगों के प्रति विभेद भी पैदा हुआ है. जो किसी भी दृष्टि से किसी लोकतांत्रिक देश के लिए शुभ लक्षण नहीं. अच्छी बात है कि 26/11 को 9/11 का ग्रहण नहीं लगा है. 26/11 ही नफरत-घृणा की जगह जागरुकता के साथ एक सकारात्मक और स्वस्थ शांति का संदेश देता है. इसमें मजबूत वैचारिकता का अभाव हो सकता है, लेकिन किसी के प्रति विभेद नहीं. खास कर भारत जैसे देश में जहां धर्म, मजहब, जाति, संप्रदाय, भाषा, भूषा, खान-पान को लेकर इतने अंतर हों और दकियानूसी संकीर्ण प्रवृत्तियाँ इन्हें हवा देकर अपनी दुकान चलाने को तैयार बैठी हों, ऐसे में इसे किसी रेगिस्तानी बंजर में मीठे पानी का सोता ही तो कहेंगे. जरूरत है इस प्रवृत्ति को बढ़ाने और मजबूत करने की. यह घुप्प अंधेरे में रोशनी के चमकने जैसा है या फिर पौ फूटने का संकेत. जो भी हो, हमें इस 26/11 के हादसे के बाद पैदा माहौल से यह सीखना ही होगा.

और अंत में –

‘मंजिलों की दुश्वारी, रास्तों के सन्नाटे

हैं तमाम अंदेशे, एक कदम बढ़ाने तक’

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लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं.
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