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तेरा-मेरा कोना

गंगो-जमन तहजीब को सलाम!

छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के 17 साल बाद आई लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट पर अभी संसद में चर्चा होनी है, तभी मस्जिद की शहादत की बरसी ने अनेक ‘भुलाई जाने योग्य’ यादों को ताजा कर दिया. दुनिया जानती है कि तब अयोध्या में जमा बाहर से आए लाखों कारसेवकों के हुजूम ने विध्वंस का जो अभूतपूर्व कारनामा किया था वो स्वतंत्र, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए ही नहीं, सारी मानवता के लिए चौंकाने वाला हादसा था. संविधान की खुलेआम अवहेलना हुई, सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे को मुँह चिढ़ाया जाता रहा, केंद्र और प्रदेश सरकारों की संयुक्त बैठकों में मस्जिद की रक्षा के जो आश्वासन दिए गए थे, उन्हें सरेआम तोड़ा गया. बल्कि, लिब्रहान रिपोर्ट के मुताबिक तो सब कुछ सरकारी ताने-बाने की नाक के नीचे नियोजित तरीके से किया गया.

छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के 17 साल बाद आई लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट पर अभी संसद में चर्चा होनी है, तभी मस्जिद की शहादत की बरसी ने अनेक ‘भुलाई जाने योग्य’ यादों को ताजा कर दिया. दुनिया जानती है कि तब अयोध्या में जमा बाहर से आए लाखों कारसेवकों के हुजूम ने विध्वंस का जो अभूतपूर्व कारनामा किया था वो स्वतंत्र, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए ही नहीं, सारी मानवता के लिए चौंकाने वाला हादसा था. संविधान की खुलेआम अवहेलना हुई, सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे को मुँह चिढ़ाया जाता रहा, केंद्र और प्रदेश सरकारों की संयुक्त बैठकों में मस्जिद की रक्षा के जो आश्वासन दिए गए थे, उन्हें सरेआम तोड़ा गया. बल्कि, लिब्रहान रिपोर्ट के मुताबिक तो सब कुछ सरकारी ताने-बाने की नाक के नीचे नियोजित तरीके से किया गया.

हमारा सारा तंत्र, सारे सिद्धांत, सारी व्यवस्था- सभी कुछ बस हाथ पे हाथ रखे टुकर-टुकर देखती भर रही. और फिर देश में ही नहीं, सारे विश्व में प्रतिक्रिया हुई. जगह-जगह दंगे-फसाद हुए, हजारों लोग मारे गए. लेकिन, एक चीज जो सबसे ज्यादा गौरतलब है, वो ये कि अयोध्या मस्जिद की शहादत के पहले भी शांत थी और शहादत के बाद भी शांत रही. बाहर से आए लोगों ने तब मस्जिद का ध्वंस किया, वहाँ दंगे-फसाद किए. अनेक अयोध्यावासियों को ये रंज जरूर रहा कि एक ऐतिहासिक ढाँचे को बाहरी लोगों ने न केवल गिराया, बल्कि वहाँ की गंगा-जमुनी तहजीब में भी जहर बोने की कोशिश की, वहाँ आगजनी-तोड़फोड़- मारकाट की. वो अलग बात है और खुशी की भी कि बाहरी लोगों के जाने के बाद वो नागफनी का जहरीला पौधा भी खुद-ब-खुद मर गया.

यही वजह है कि 1992 के बाद फिर कभी अयोध्या उस तरह से अशांत नहीं हुई. ये जरूर है कि लिब्रहान रिपोर्ट के बाद फिर से भाजपा और संघ परिवार से जुड़े लोग अयोध्या पर सियासी रोटी सेंकना चाहते हैं, फिर से हिंदुत्व के आधार पर नई गोलबंदी भी चाहते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि काठ की हांडी आग पर बार-बार नहीं चढ़ती. वे यह भी भूलते हैं कि अयोध्या की विरासत क्या है, उसकी पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक संस्कार क्या हैं? अगर हिंदुत्ववादी ये समझते हैं कि अयोध्या सिर्फ मर्यादा पुरुषोत्तम राम से संबद्ध है तो वे गलत हैं. पुराकथाओं के अनुसार अयोध्या राम से जुड़ी है तो उतनी ही बौद्ध, जैन, कबीरपंथियों और दूसरे मतावलंबियों के लिए भी आराध्य है. गौतम बुद्ध खुद यहाँ लंबे समय तक रहे, 24 तीर्थंकरों में से अनेक अयोध्या में रहे. आधुनिक संदर्भों में यह क्षेत्र समाजवादी चिंतकों आचार्य नरेंद्र देव, डा. राममनोहर लोहिया से भी जुड़ा रहा और आजादी के पूर्व पूर्वांचल में जवाहरलाल नेहरू और बाबा रामदास की अगुवाई में चले किसान आंदोलन से भी यह क्षेत्र संबद्ध रहा.

दरअसल, जैसा कि नाम से स्पष्ट है ‘अयुद्ध’ शब्द से अयोध्या नाम प्रचलन में आया है. जिसका तात्पर्य है युद्धविहीन क्षेत्र, यानी शांति-सदभाव का इलाका. इस क्षेत्र में विभिन्न धर्मों-मतों-विचारों का असर हमेशा से रहा है और आज भी लोगों के बीच सहिष्णुता और प्रेमभाव साफ दिखता है. आज भी अयोध्या में अनेक मस्जिदों में पूजा और नमाज साथ-साथ होती है. अनेक मंदिर ऐसे हैं जिनके पुनरुद्धारकर्ता और मैनेजर मुसलमान रहे हैं- तो ये है वो आपसी भाईचारा, जिसे कोई भी बाहरी ताकत आज तक तोड़ नहीं पाई है. तभी तो अयोध्या के मंदिरों में चढ़ाई जाने वाली मालाओं के फूल तक वहीं के मुसलमान पुश्तों से पारंपरिक तौर पर उगाते आए हैं. उन्हें इससे कोई गुरेज नहीं कि उनके उगाए फूल और पिरोई मालाएं किस इबादतगाह, मंदिर या मजार पर चढ़ती हैं. हमेशा से उन्होंने यही सीखा और जाना है कि वे ऐसी ही अयोध्या में हँसी-खुशी रहते आए हैं और रहते रहेंगे.

यहाँ गौरतलब ये है कि विहिप से संबद्ध अशोक सिंहल और गिरिराज किशोर जब ये कहते हैं कि गिराया गया ढाँचा मस्जिद थी ही नहीं या कि गुलामी की प्रतीक इमारत को ध्वस्त किया गया और अब वहाँ भव्य मंदिर बनके रहेगा, या फिर जब 1992 में तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह लिब्रहान रिपोर्ट को मंदिर आंदोलन के पुनर्जीवन के लिए संजीवनी करार देते हैं और पुनः अयोध्या जाने का आह्वान करते हैं तो वे संभवतः इस तथ्य को अनदेखा करते हैं कि अयोध्या विभिन्न विचारों-मतों का सम्मिलन बिंदु रहा है. वहां मंदिर-मस्जिद ही नहीं रहे हैं, इतिहासकार बौद्ध मठों और कबीरपंथियों के अखाड़ों को भी स्वीकार करते रहे हैं और संभवत यही वजह है कि जब मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था तो वहां वामपंथी सांसद मित्रसेन यादव चुनाव में जनता की पसंद थे और बाबरी विध्वंस के बाद कुछ ही वर्षों में भाजपा या अन्य हिन्दूवादी ताकतें न केवल अयोध्या में, बल्कि प्रदेश स्तर पर कमजोर ही होती गईं.

आज की तारीख में सियासी दाँव-पेंचों के बीच भाजपा ये आरोप लगाती है कि 1949 में विवादित ढाँचे में जब मूर्तियाँ रखी गईं तो उस समय कांग्रेस का शासन था. फिर जब 1986 और 1989 में ताला खुला और फिर शिलान्यास हुआ तो भी कांग्रेस शासन था, तो फिर इस मंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस के लिए किसी और को दोष कैसे दिया जा सकता है? उधर, कांग्रेस सारा दोष 1991 की आडवाणी की रथयात्रा और उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार पर मढ़ती है और लिब्रहान रिपोर्ट के आधार पर इसे नियोजित भी बताती है. ऐसे में सियासी पार्टियों से अलग, इसे थोड़ा अलग लेकिन व्यापक रूप में भी समझा जाना चाहिए कि आजादी मिलने के तीन महीने के बाद यानी 12 नवंबर 1947 को दिवाली के दिन गुजरात के सोमनाथ में खुद सरदार पटेल ने मंदिर के पुनर्निर्माण की घोषणा की थी और सोमनाथ मंदिर में प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा के अवसर पर स्वयं राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद 11 मई 1952 को उपस्थित हुए थे, जबकि प्रधानमंत्री नेहरू की इच्छा इसके विरुद्ध थी. फिर दूसरी घटना हुई 22-23 दिसंबर 1949 की रात जब बाबरी मस्जिद के अंदर चुपचाप रामलला की मूर्ति प्रकट हुई. कहां धुर पश्चिम में अरब सागर के किनारे सोमनाथ और कहां हजारों मील दूर सरयू तट पर स्थित अयोध्या! एक ओर शिव और दूसरी ओर राम! लेकिन गौर करें! इस संयोग और चमत्कार के दशकों बाद 1991 में  संघ परिवारी आडवाणी ने उसी सोमनाथ से अयोध्या तक की राम रथयात्रा का कार्यक्रम बनाया और फिर परिणति हुई बाबरी विध्वंस में.

लेकिन यहाँ दोनों की स्थितियों में गौरतलब अंतर है. पटेल और राजेंद्र बाबू जहाँ सोमनाथ को ‘श्रद्धा और संस्कृति’ का प्रतीक मानते थे, वहीं उन्हें उन मूल्यों और भारतीय एकता के उन संस्कारों में भी पूरा यकीन था, जिसके जरिए देश को आजादी नसीब हुई थी और जिसकी धड़कन रचे जा रहे भारतीय संविधान में भी महसूस की जा रही थी. शायद इसीलिए सोमनाथ में मंदिर की बात करते हुए भी राजेंद्र बाबू ने ये कहना जरूरी समझा कि ‘यह न समझा जाए कि यह समारोह उन मानसिक और शारीरिक जख्मों को खोलने के लिए किया जा रहा है जो बीती शताब्दियों के दौरान अपने आप एक हद तक भर गए हैं.’ लेकिन अफसोस कि राजेंद्र बाबू और पटेल की इस आत्मिक ध्वनि को दशकों बाद के सोमनाथ से अयोध्या वाले रथयात्रा आंदोलन में अनसुना किया गया.

दुर्भाग्य कि इस मंदिर आंदोलन में हमारे देश-समाज की मध्यमार्गी आत्मा और उसकी अभिव्यक्ति पाते संविधान को दरकिनार ही नहीं किया गया उसके मूल चरित्र को ही खंडित करने की चेष्टा की गई. इस तथ्य को गौण समझा गया कि वेदांत का दर्शन ही नहीं, बुद्ध, महावीर, अशोक, अकबर, कबीर, तुलसी, गांधी और गालिब का ये देश आत्मा से हमेशा ही अतिवाद से दूर रहा है. अति किसी भी रूप में हो, कहीं भी हो – वो जनमानस की आवाज कभी नहीं रही और फिर अति का विनाश तो खुद मर्यादा पुरुषोत्तम के हाथों भी हुआ, और इसी अति की समाप्ति और न्याय की स्थापना के लिए कर्मयोगी कृष्ण को रणक्षेत्र में गीता की राह भी सुझानी पड़ी. यही धारा सूफी-संतों की वाणी बनी और आचार-व्यवहार भी. गांधी भी इसी श्रृंखला की कड़ी थे. समझा जाना चाहिए कि गांधी की मौत भी ऐसे ही अतिवाद की अभिव्यक्ति थी जैसी कि बाबरी मस्जिद की शहादत. लेकिन मर कर भी गांधी की उदार-मानवीय दृष्टि अमर हो गई, क्योंकि वो तो पहले से ही अमर थी, क्योंकि वो तो सुकरात का जहर का प्याला पीना था, जीसस का सलीब पर लटकने जैसा था. यही दृष्टि हमारी थाती है. हमें इस पर गर्व गिरीश मिश्रहै और अयोध्या इसी सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है- अतिवाद से दूर उदार-मानवीयता का प्रतीक. इस विरासत को सलाम!

और अंत में- दैरो-हरम को देखा, अल्लाह रे फुजूली, ये क्या ज़रूर था जब दिल का मकां बनाया.

लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं.

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