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मीडिया मंथन

दरअसल, मीडिया की अपनी समस्या है

[caption id="attachment_2254" align="alignleft"]गिरीश मिश्रगिरीश मिश्र[/caption]अंधी दौड़ : कभी वुड्स की महानता और नायकत्व को बाजार बेच रहा था, आज उसकी ‘नालायकी’ बेचा जा रहा : दुनिया का सफलतम गोल्फर वुड्स इस समय सबसे बड़ा खलनायक बना हुआ है. मीडिया रोज चटकारे ले-लेकर नए-नए खुलासे कर रहा है कि कितनी महिलाओं के साथ वुड्स के संबंध रहे हैं. कहीं कोई जिम्मेदारी का बोध नहीं कि ये कथित खुलासे वाकई सच भी हैं या नहीं. लोगों  की भीड़ चूँकि मजे लेकर ऐसी नमक-मिर्च लगी बातों को पढ़ रही है, इसलिए मीडिया है कि बस वो परोसता ही जा रहा है. हद तो तब हो गई जब शराब परोसने वाली महिला वेटर जेमी ग्रुब्स के इस बयान के बाद कि उसके भी वुड्स से रिश्ते रहे हैं, प्लेब्वाय ने उसे 10 लाख डालर देने की पेशकश सिर्फ इसलिए की है कि वो उसे एक पोज दे दे, जिससे प्लेब्वाय की बाजार में बिक्री बढ़ सके.

गिरीश मिश्र

गिरीश मिश्रअंधी दौड़ : कभी वुड्स की महानता और नायकत्व को बाजार बेच रहा था, आज उसकी ‘नालायकी’ बेचा जा रहा : दुनिया का सफलतम गोल्फर वुड्स इस समय सबसे बड़ा खलनायक बना हुआ है. मीडिया रोज चटकारे ले-लेकर नए-नए खुलासे कर रहा है कि कितनी महिलाओं के साथ वुड्स के संबंध रहे हैं. कहीं कोई जिम्मेदारी का बोध नहीं कि ये कथित खुलासे वाकई सच भी हैं या नहीं. लोगों  की भीड़ चूँकि मजे लेकर ऐसी नमक-मिर्च लगी बातों को पढ़ रही है, इसलिए मीडिया है कि बस वो परोसता ही जा रहा है. हद तो तब हो गई जब शराब परोसने वाली महिला वेटर जेमी ग्रुब्स के इस बयान के बाद कि उसके भी वुड्स से रिश्ते रहे हैं, प्लेब्वाय ने उसे 10 लाख डालर देने की पेशकश सिर्फ इसलिए की है कि वो उसे एक पोज दे दे, जिससे प्लेब्वाय की बाजार में बिक्री बढ़ सके.

तो बाजार बन गया है स्टेडियम, यानी कि खेल का मैदान, और मीडिया के लिए टाइगर वुड्स एक फुटबाल से अधिक कुछ नहीं, जो उसे बस ‘किक’ के लायक समझ रही है. दर्शक दीर्घा में बैठी भीड़ बस संवेदनहीन बनी उस सारे तमाशे को देख रही है, जो मीडिया और बाजार उसे दिखा रहा है. बाजार तो हमेशा से ही संवेदनशून्य रहा है- यही बाजार अभी कल तक वुड्स को सिर माथे पर बिठाते नहीं थक रहा था. सारे मल्टीनेशनल्स उसे साइन करने के लिए उसके आगे-पीछे टहलते थे. आखिर ये अश्वेत अमेरिकी खिलाड़ी 60 करोड़ डालर का स्वामी बनकर फोर्ब्स पत्रिका में ऐसे ही तो जगह बनाने में सफल नहीं हो गया था, लेकिन आज उन सारे अनुबंधों को तोड़ने की दौड़ है, होर्डिंग्स भी हटाए जा रहे हैं. गौरतलब ये है कि कभी वुड्स की महानता और उसके नायकत्व को बाजार बेच रहा था, आज उसकी ‘नालायकी’ को बेचा जा रहा है. उस नालायकी से संबद्ध लोग और बेजान चीजें तक बाजार में हावी हो गई हैं, तभी तो वुड्स से जुड़ाव का हवाला देकर कोई अनजान भी मीडिया का चहेता बन रहा है. तभी तो उस कैडिलैक एस्केलैड्स स्पोट्र्स कार की बिक्री तक कई गुना बढ़ गई है, जिसका प्रयोग वुड्स करते थे और जिसे लेकर घर से भागते हुए वो दुर्घटनाग्रस्त हुए थे. यहाँ तक कि ‘फिजिक’ से संबंधित उस किताब की बिक्री तो कई लाख गुना बढ़ गई, जिसे उस दुर्घटनाग्रस्त कार में पाया गया था और जिसे टीवी कैमरों ने अपने चैनेल के जरिए कार्यक्रमों में प्रदर्शित किया था.

आशय यह है कि बाजार को तो लाभ कमाना है और प्राफिट के लिए वो ये सब हमेशा से करता रहा है, लेकिन सवाल है कि मीडिया उसके हाथ का खिलौना क्यों बनता है? मीडिया वुड्स के जीवन से जुड़ी उन बातों को प्रमुखता से क्यों नहीं उठा रहा कि विवाहेत्तर रिश्तों के लिए गलती मानते हुए वुड्स पत्नी एलिन नार्डेग्रेन और दोनों बच्चों (दो साल की बेटी सैम और 10 महीने के बेटे चार्ली) के साथ पारिवारिक जीवन बचाने के लिए गोल्फ तक छोड़ने को तैयार है? इस बात की अनदेखी क्यों की जा रही कि स्वीडन की मशहूर माडल रही एलिन ने बच्चों और परिवार के लिए उस दस करोड़ डालर को ठुकराने में देर नहीं की, जो एलिन को तलाक लेने पर मिलता? पश्चिम की अतिभौतिकवादी दुनिया में जहाँ परिवार और रिश्ते की डोर वैसे भी इतनी मजबूत न हो, वहाँ एलिन का इतनी बड़ी राशि और तलाक को नकार, वुड्स को माफ करने की बात मीडिया में सुर्खियाँ क्यों नहीं बनती? और, वुड्स का परिवार के लिए गलतियाँ मानना और गोल्फ को कुछ समय के लिए ही सही, छोड़ने की बात सार्वजनिक रूप से कहना क्या किसी तारीफ के काबिल नहीं? क्या मीडिया को इन सारी बातों को भी जिम्मेदारी की भावना से समाज के सामने नहीं रखना चाहिए? क्या नितांत निजी जीवन का छिद्रान्वेषण और उसे उत्पाद या प्रोडक्ट बनाकर बेचना ही मकसद है?

दरअसल, मीडिया की अपनी समस्या है. वो बाजार के इशारे पर बिकने वाले कमाऊ उत्पाद गढ़ता है या फिर उस कमाऊ उत्पाद से संबद्ध हाथोंहाथ बिकने वाली चटखारेदार कहानियाँ. उसे तो बस वो माल तैयार करना है, जो बिक सके. और, प्रतिद्वंद्विता के इस दौर में दूसरे को पछाड़ कर आगे निकल सके. अब मूल्य, गरिमा, पत्रकारीय संस्कार, मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति जैसी बातें धीरे-धीरे अर्थ खोती सी प्रतीत होती हैं. ऐसा नहीं है कि मीडिया ऐसा पहली बार कर रहा हो और बाजार अपनी संवदेनहीनता के साथ पहली बार रंगत दिखा रहा हो. ऐसा ही तब भी हुआ था जब ब्रिटेन की राजकुमारी डायना स्पेंसर की डोडी फयाद के साथ कार दुर्घटना में मौत हुई थी. तब मीडिया ने सारी सीमाएँ लांघ कर डायना के निजी जीवन के बारे में क्या-क्या नहीं टाइगर वुड्स अपनी पत्नी के साथ.लिखा था, वो ये भूल गया था कि डायना ने छोटे से जीवन में भी लैंड माइन्स हटवाने और कुपोषित बच्चों की खुशहाली तथा एड्स की रोकथाम पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कितना काम किया था. आखिर मीडिया की इसी सनसनीखेज तलाश ने ही तो डायना की कार को भी दुर्घटनाग्रस्त कराया था. वो ये भी भूल गया था कि निजी जीवन की इन सतही बिकाऊ कहानियों और वो भी बिना स्पष्टीकरण के, क्योंकि स्पष्टीकरण देने वाला तो रहा ही न था, का क्या असर समाज और खुद डायना के बच्चों और उनके सामाजिक परिवेश पर पड़ेगा. और यहाँ तो मीडिया का पक्षपात भी साफ दिखता है- जैसा वो हाथ धोकर डायना के पीछे पड़ा, वहीं उसने प्रिंस चार्ल्स के तीन बच्चों की माँ पार्कर बाडल्स से रिश्तों पर आँखें भी मूंदें रखीं. क्या ये ब्रितानी मीडिया का राजशाही और उससे सीधे रूप से जुड़े प्रिन्स चार्ल्स के साथ पक्षपात नहीं था?

और फिर इसी मीडिया ने मोनिका बेदी के साथ क्या किया? मीडिया के ‘दुष्प्रचार’ के चलते हालत ये हो गई कि मोनिका को इतनी बड़ी मुंबई में कोई किराए का छोटा-सा मकान देने को भी तैयार नहीं था, जहाँ वो अपने माता-पिता के साथ रह सके. क्या उसे अपनी किसी छोटी सी भूल (यदि उसे भूल कहा जाए तो) से उबरने में इतना लंबा समय सिर्फ इसलिए नहीं लगा कि बाजारप्रेरित मीडिया ने तिल का ताड़ बना दिया था? क्या संजय दत्त के साथ भी कुछ ऐसा ही नहीं हुआ? क्या ये सभी और इनके जैसे लोग अपनी किसी गलती के लिए माफी तक के हकदार नहीं? और यहाँ सवाल क्या ये नहीं उठता कि आखिर मीडिया को किसने ये हक दिया है कि वो हमारी न्यायिक व्यवस्था से भी बड़ी अदालत खुद बन के फतवे देने शुरू कर दे?

गौरतलब है कि किसी भी सभ्य आधुनिक, लोकतांत्रिक समाज में मीडिया को अपनी मर्यादा तय करनी ही चाहिए. सभ्यता सुधार का ही दूसरा नाम है. कोर्ट-कचहरी-व्यवस्था इसीलिए हैं कि गलतियों की पुनरावृत्ति न हो. गलतियाँ न करना जितना महत्वपूर्ण है, उससे कम महत्वपूर्ण ये नहीं है कि गलतियों को दुबारा न किया जाए और इसी समझ का विस्तार किसी भी  सभ्य व्यवस्था की नींव का पत्थर होता है. ऐसे में मीडिया का दायित्व ये भी बनता है कि वो मोनिका बेदी और संजय दत्त की उस जिजीविषा और जीवन-समाज के प्रति सकारात्मक अनछुए पहलुओं को भी उजागर करे, जो कि उसने अपेक्षित रूप से नहीं किया. या फिर नकारात्मक प्रचार की तुलना में तो एकदम नहीं किया. इसी तरह उसने डायना के विषम हालात के बीच उन सकारात्मक पहलुओं को भी नजरअंदाज किया, जिन्हें लोगों के सामने आना चाहिए था. यहाँ मीडियाकर्मी बाजार की जरूरत, उसकी गलाकाट प्रतिद्वंद्विता, क्या बिकाऊ है और क्या नहीं- जैसे घिसे-पिटे तर्क देकर खुद को दोषमुक्त नहीं कर सकते.

और, यही काम फिर से आज वुड्स के मामले में हो रहा है. वुड्स की जगह यदि कोई सामान्य व्यक्ति होता तो शायद ये बात कभी खबर भी न बनती लेकिन ये मामला तो मार्केट में बिकने वाले `हाट उत्पाद´ की खबर का है. गौर करें, पहले प्रसिद्धि की बुलंदियों पर चढ़ाने वाली खबरों को बेच कर फायदा और फिर शिखर से पाताल तक गिराने वाली खबरों (जिनमें अफवाहें भी शामिल हैं) को तिल का ताड़ बनाना. इनमें सबसे ज्यादा अभाव है खबरों में संतुलन का, सामाजिक मूल्य, संवेदनशीलता, जिम्मेदारी और पत्रकारीय सोच का. मीडिया में सापेक्ष नजरिए का भी अभाव दिखता है, तभी तो जिस अमेरिकी समाज में दस में से नौ पुरुष या महिलाएँ अपने साथी के प्रति सामान्यत जब निष्ठा भंग करते हैं तो उन पर उंगली तक नहीं उठती और उसे सहज मान कर आया-गया कर दिया जाता है, लेकिन वहीं वुड्स को माफी तक का हक मीडिया नहीं देता बल्कि पूरे मामले को तूल देकर, उलझा कर उसे सुधरने तक का मौका नहीं देना चाहता. और, बाजार भी बहते पानी में हाथ धोकर उसे विज्ञापनों से दूध की मक्खी की तरह बाहर कर देता है. ऐसा ही कुछ समय पहले भारतीय क्रिकेट टीम के सफलतम कप्तान रहे मोहम्मद अजहरुद्दीन के साथ भी हुआ था. तब जैसे ही मैच फिक्सिंग में नाम आया और मीडिया में ये बात उछली कि अजहरुद्दीन टीम से भी बाहर हुए और इस विज्ञापन बाजार से भी, जहाँ उनकी हनक हुआ करती थी.

बहरहाल, आज वुड्स के मामले के जरिए ही सही मीडिया को अपने रवैये पर पुनर्विचार की जरूरत है. वुड्स की गलती को समग्रता के साथ उसके व्यक्तित्व और महान खिलाड़ी के फ्रेम में देखने की आवश्यकता है. और फिर जब पत्नी एलिन, रिश्तेदार-दोस्तों के साथ ही उसके प्रशंसक तक वुड्स को माफ करने को तैयार हैं तो क्या संवेदनहीन बाजार से कोई सर्टिफिकेट लेना जरूरी रह जाता है? क्या मीडिया को इस बाबत विचार की आवश्यकता नहीं है? क्या अमेरिका जैसे उपभोक्तावादी समाज में एलिन की तारीफ इस आधार पर नहीं होनी चाहिए कि खुद तलाकशुदा महिला की बेटी होने के दर्द वो अपने दोनों बच्चों को विरासत में नहीं देना चाहती थीं? … इसीलिए बच्चों के लिए न तो उसने वुड्स से तलाक लिया और न ही मुआवजे का 10 करोड़ डालर का मोह ही उस पर असर दिखा सका. एलिन ने साफ कहा कि बच्चों के विकास के लिए माता-पिता दोनों की छत्रछाया और मार्गदर्शन जरूरी है. सवाल है कि एलिन के इस साहसिक कदम की मीडिया में तारीफ क्यों नहीं और वुड्स की सुधार की इच्छा के प्रति खामोशी क्यों?

वैसे टाइम्स आनलाइन पर विश्लेषक ले स्टीन बर्ग ने इस बारे में बेहतर टिप्पणी की है कि- ताकतवर लोगों को शिखर से गिराने को अमेरिकी बहुत चाव से देखते हैं. लेकिन दिलचस्प ये है कि शिखर की ओर उनकी वापसी की चाहत को भी वे आशान्वित नजरों से ही देखते हैं. लेकिन इसके लिए जरूरी है प्रायश्चित- यानी कि गलती की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति. पूर्व राष्ट्रपति बिल ‘क्लटन- मोनिका लेविंस्की’ मामले में भी ऐसा ही हुआ था. यहाँ गौरतलब ये है कि वुड्स-एलिन ने आपसी सहमति से फिर से सबकुछ पहले जैसा होने की जो इच्छा जाहिर की है- उस पर मीडिया का रुख क्या होता है, देखना है. क्या वो जिम्मेदारी के साथ पेश आएगा? और, उस बाजार का रुख क्या होगा, …जहाँ मूल्य और संवेदना नहीं, सिर्फ उत्पाद बिकता है …?

और अंत में मीडिया के लिए-

‘जमाने में उसने बड़ी बात कर ली

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खुद से जिसने मुलाकात कर ली.’

लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं. यह आलेख ‘लोकमत समाचार’ से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.

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