केन्द्र में प्रमुख विपक्ष और कई प्रदेशों में सत्ताधारी पार्टी भाजपा में बदलाव का दौर है. आरएसएस यानी कि संघ का असर पार्टी में बढ़ रहा है. संघ की पहल पर ही नितिन गडकरी को भाजपा की कमान सौंपी जा रही है और लालकृष्ण आडवाणी को लोकसभा में नेता विपक्ष के पद से हटा कर सुषमा स्वराज को लाया गया है. लेकिन सवाल यही है कि संघ जितना कुछ चाह रहा था, क्या वो हो पा रहा है? आडवाणी हटे जरूर, लेकिन अब तो वो भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष हो गए हैं और वह भी पार्टी संविधान में संशोधन द्वारा. अरुण जेटली भी राज्यसभा में भाजपा नेता बने ही हुए हैं. इस पूरी स्थिति को स्पष्ट करते हुए सुषमा स्वराज ने ठीक ही कहा है कि ‘मैं नेता विपक्ष की जिम्मेदारी आडवाणीजी की छत्रछाया में निर्वहन करना चाहती हूं.’ दरअसल, हुआ यह है कि केवल पदों के नाम बदले हैं, व्यवस्था तो जस की तस ही चलेगी. उधर, आडवाणी ने भी कह दिया है कि मैं सक्रिय राजनीति से संन्यास नहीं ले रहा और न ही राजनीति छोड़ रहा हूं.
तो इसका अर्थ क्या ये है कि संघ सब कुछ चुपचाप देखता रहेगा? क्या गडकरी के पार्टी अध्यक्ष भर बन जाने से स्थिति उसके वांछित नियंत्रण में आ जाएगी? क्या गडकरी का व्यक्तित्व इतना सक्षम है कि वो पार्टी के ‘घाघ नेताओं’ पर थोड़ी भी लगाम लगा पाएंगे, और संघ की वो आस पूरी हो पाएगी, जिसकी पूर्ति के लिए उन्हें ये जिम्मेदारी सौंपी गई है? दरअसल ये वे सवाल हैं, जिनका जवाब आने वाले वक्त में मिलेगा, लेकिन भविष्य का कुछ संकेत उन घटनाओं से जरूर मिलता है जो हाल में घटित हुई हैं गौर करें.
लिब्रहान आयोग पर संसद में बहस के दौरान भाजपा नेताओं के कई स्वर सुनने को मिले. लोकसभा में राजनाथ सिंह ने जहां स्पष्ट शब्दों में कहा कि अयोध्या में हिन्दुओं की आकांक्षा के अनुरूप भव्य राम मंदिर बन के रहेगा और इस निर्माण को कोई रोक नहीं सकता. वहीं राज्यसभा में अरुण जेटली ने एक कुशल वकील की तरह लेकिन संभल कर आयोग की रिपोर्ट की कमियों की ओर ध्यान केंद्रित किया. तीसरी बात कही वेंकैया नायडू ने. नायडू ने पार्टी और उसके पूर्व नेताओं की विरासत को आगे बढ़ाने पर जोर दिया.
दरअसल, इन तीनों नेताओं के उदगारों को उस द्वंद्व के रूप में समझा जा सकता है, जो भाजपा के अन्दर मौजूद हैं, जो पार्टी और संघ के रिश्तों को प्रभावित कर रहा है और आने वाले महीनों-वर्षों में यह द्वंद्व और प्रभावी होने वाला है. इस द्वंद्व को यदि नाम दिया जाए तो इसे कट्टरता बनाम उदारता भी कह सकते हैं. सिर्फ गडकरी को अध्यक्ष बना देने या फिर पार्टी के अनेक पदों पर संघ की मूल हिन्दुत्व धारा से जुड़े लोगों को बैठा देने भर से स्थितियां बदल जाएंगी, यदि संघ ऐसा सोचता है तो शायद ठीक नहीं. वजह ये है कि जिन्ना की तारीफ करने वाले आडवाणी और उनके विश्वस्त जेटली, सुषमा स्वराज, वेंकया, अनन्त कुमार जैसे लोग अब भी पहले की तरह ही प्रभावी हैं और ये धारा किसी भी दृष्टि से आने वाले समय में कमजोर होने वाली हो, ऐसे संकेत फिलहाल नहीं हैं.
आडवाणी को अभी भाजपा संसदीय दल का अध्यक्ष बनाया गया है. संकेत है कि उन्हें आनेवाले समय में भाजपा नीत एनडीए संसदीय दल का अध्यक्ष बनाया जा सकता है. कुछ उसी तरह जैसे कि यूपीए की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी हैं. अब ऐसे में समझा जाना चाहिए कि एनडीए के घटक दलों को जोड़ने के लिए जरूरी है कि भाजपा को उदारवादी ताने-बाने को मजबूत करना होगा. आखिर एनडीए सरकार के गठन के समय भी भाजपा को अयोध्या, धारा 370 और कॉमन सिविल कोड जैसे मसलों पर समझौता करना ही पड़ा था. तो अब पार्टी के संसदीय दल के अगुवा आडवाणी क्या करेंगे और गडकरी तथा उन पर वरदहस्त रखने वाले संघ की भूमिका क्या होगी? ऐसे में क्या उदारवाद और कट्टर हिन्दुत्व का संघर्ष और तेज नहीं होगा?
दरअसल, यहां भाजपा का अपना द्वंद्व भी है. एक ओर उसके सर्वमान्य नेता अटल बिहारी वाजपेयी हैं, जिनकी स्वीकारोक्ति एनडीए के घटक दलों में तो है ही, लिब्रहान रिपोर्ट में उन पर उंगली उठने पर कांग्रेस भी उन्हें माफ करती-सी प्रतीत होती है. कहने वाले तो समग्रता में, उदारता में अटल को भाजपा का जवाहरलाल नेहरू तक कहते हैं, तो दूसरी ओर पार्टी में संघ परिवार प्रेरित कट्टर हिन्दुत्व की धारा है. भाजपा की मुसीबत ही ये है कि पार्टी में अटल के अलावा कोई दूसरा ‘नेहरू सरीखा’ नहीं है. वैसे नेहरू सरीखा तो दूर पार्टी में कोई दूसरा अटल भी नहीं है, जिसका व्यक्तित्व इतना विशाल हो, जिसमें पार्टी के भीतर ही नहीं, बाहर की अनेक धाराएं भी समाहित हो जाएं. आडवाणी की परेशानी ये है कि एक ओर तो सोमनाथ से अयोध्या की उनकी रथयात्रा और उसके बाद भड़के दंगों का भूत उनका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं है तो दूसरी ओर एनडीए के घटक दलों के बीच अपनी उदारवादी छवि पेश करने की छटपटाहट है. शायद यही आकांक्षा उनसे जिन्ना की तारीफ तक करा डालती है. लेकिन फिर भी वो अटल बिहारी नहीं हो पाते.
यहां आडवाणी का द्वंद्व ये है कि उनकी कार्यशैली हो या व्यक्तित्व, वो अटल जैसा नहीं. उनमें वाजपेयी का कद पाने की अभिलाषा तो है लेकिन मुसीबत ये है कि हिन्दूवादी कट्टरता की ओर मुड़ते हैं तो एनडीए के घटक दल दूर होते हैं. उनका साथ छूटता है और चुनावों में खामियाजा भुगतना पड़ता है सो अलग. और यदि उदारवादी धारा की ओर जाते हैं तो संघ दूर होता है, हिन्दुत्व की कट्टरवादी धारा पीछे छूटती है. यहां गौर करने की बात ये है कि ये द्वंद्व सिर्फ आडवाणी का ही हो, ऐसा नहीं है. ये परेशानी भविष्य में गडकरी समेत दूसरे भाजपा नेताओं की भी होने वाली है.
यहां नरेंद्र मोदी का उल्लेख भी आवश्यक है. उनका भी नाम बीच में अध्यक्ष पद के लिए सुर्खियों में था. लेकिन उन्होंने गुजरात छोड़ के दिल्ली जाना उचित नहीं समझा. जाहिर है सियासी कारण रहे होंगे. लेकिन चर्चा यही थी कि मोदी मुखर हैं, गुजरात के विकास का सकारात्मक पक्ष भी उनके साथ गहराई से जुड़ा था, लेकिन गुजरात के सांप्रदायिक दंगों का स्याह पक्ष उनका पीछा कैसे छोड़ता, और वो उस वाजपेयी की धारा के फ्रेमवर्क में आखिर कैसे फिट बैठते, जिनमें कोशिश के बाद श्री आडवाणी भी नहीं समा पा रहे? वैसे भाजपा का ही एक खेमा गडकरी के खिलाफ मोदी की ये कहकर तारीफ करता है कि मोदी के साथ पूरा गुजरात है जबकि गडकरी के साथ महाराष्ट्र की भाजपा पार्टी भी पूरे तौर पर नहीं. ऐसे में वो राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को नेतृत्व कैसे देंगे? वैसे, ये तर्क देने वाले ये भूल जाते हैं कि गडकरी के साथ संघ की शक्ति है और खास कर संघ प्रमुख मोहन भागवत का हाथ उन पर है. ऐसे में गौरतलब यही है कि भारतीय सियासत की तरह ही भाजपा में भी उदारवाद और कट्टरता की रस्साकसी का दौर रहेगा. कोई आश्चर्य नहीं कि आगामी महीनों में नए राजनीतिक ध्रुवीकरण आकार देते दिखाई दें, कुछ नए खुलासे हो और नई गोलबंदी भी. लेकिन भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती में यकीन करने वालों की आकांक्षा तो यही रहेगी कि भाजपा में फिर से कोई अटल बिहारी वाजपेयी जैसा हो और जो गोविंदाचार्य के शब्दों में ‘सिर्फ मुखौटा’ भर न हो, वाकई उसे नवजीवन और नेतृत्व दे सके.
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं.