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अवाम के ज़ज्बे को सलाम!

[caption id="attachment_2268" align="alignleft"]गिरीश मिश्रगिरीश मिश्र[/caption]‘मेरी बेटी के साथ जो हुआ वो किसी की बेटी के साथ न हो’, ये कहना है रुचिका के पिता सुभाष गिरहोत्रा का. दरअसल, यह वाक्य सिर्फ पिता का दर्द ही बयान नहीं करता. यह पूरी व्यवस्था, तंत्र और उसके ताने-बाने के वजूद पर ही सवालिया निशान है. खुद की पीठ थपथपाने वाले भारतीय लोकतंत्र की कलई को भी यह खोलता  है, जिसे वह हमेशा ही ऐसे हर दर्दनाक हादसे के बाद ढांकता-तोपता है. क्या यह साठ साल की लोकतांत्रिक यात्रा के बाद भी बौराए-मदांध ‘तंत्र’ द्वारा ‘लोक’ को लूटने-बर्बाद करने, यहां तक कि उसकी जान लेने तक की दास्तान नहीं है? व्यवस्था का सड़ना आखिर किसे कहते हैं? क्या कानून सिर्फ प्रभावशाली लोगों और धनिकों की रक्षा के लिए है? राजनेता, अफसर, पुलिस, शिक्षा केंद्र, गुंडे-अपराधी क्या सभी की मिलीभगत का खुलासा यह अकेला रुचिका कांड नहीं करता?

गिरीश मिश्र

गिरीश मिश्र‘मेरी बेटी के साथ जो हुआ वो किसी की बेटी के साथ न हो’, ये कहना है रुचिका के पिता सुभाष गिरहोत्रा का. दरअसल, यह वाक्य सिर्फ पिता का दर्द ही बयान नहीं करता. यह पूरी व्यवस्था, तंत्र और उसके ताने-बाने के वजूद पर ही सवालिया निशान है. खुद की पीठ थपथपाने वाले भारतीय लोकतंत्र की कलई को भी यह खोलता  है, जिसे वह हमेशा ही ऐसे हर दर्दनाक हादसे के बाद ढांकता-तोपता है. क्या यह साठ साल की लोकतांत्रिक यात्रा के बाद भी बौराए-मदांध ‘तंत्र’ द्वारा ‘लोक’ को लूटने-बर्बाद करने, यहां तक कि उसकी जान लेने तक की दास्तान नहीं है? व्यवस्था का सड़ना आखिर किसे कहते हैं? क्या कानून सिर्फ प्रभावशाली लोगों और धनिकों की रक्षा के लिए है? राजनेता, अफसर, पुलिस, शिक्षा केंद्र, गुंडे-अपराधी क्या सभी की मिलीभगत का खुलासा यह अकेला रुचिका कांड नहीं करता?

और, ‘कानून के शासन’ के नाम पर ‘अंधा कानून’ जो दांवपेंचों और चालबाजियों से उपजे उन तर्कों में ज्यादा भरोसा करता है – जहां कोई संवेदना नहीं, मानवीयता नहीं, और जिसके मकड़जाल में वो गरीब, असहाय और पहले से इस ‘क्रूर’ व्यवस्था की मारी वो अभागी ‘रुचिका’ खुदकुशी करती है और फिर परिवार फंसता है एक अंतहीन दुष्चक्र में, वो भी एक-दो महीने नहीं, साल नहीं, पूरे 19 बरस, और फिर भी उसे पूरा न्याय नहीं मिलता, सिर्फ न्याय की आस दिलाती एक छोटी सी रोशनी मिलती है. क्या विडम्बना है? हजारों बरस से भारतीय संस्कृति के नायक रहे भगवान राम को भी 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या वापस मिलती है पर यहां नहीं! यहां बात सिर्फ रुचिका की ही नहीं है, ऐसे मामले रोज हो रहे हैं. अक्सर बात दबी रह जाती है पर व्यवस्था के बेशर्म ठेकेदार रखवालों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती, क्योंकि यही चलन है और यही तंत्र है, जिसमें आम आदमी पिसने को मजबूर है. आखिर जेसिका लाल हत्याकांड, नीतीश कटारा हत्याकांड, प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड, नयना साहनी का तंदूर कांड जैसे अनेक मामलों में क्या हुआ? इन सभी में भी तो प्रभावशाली लोगों की काली करतूतें किसी एस.पी.एस. राठौड़ की हरकतों जैसी ही शामिल थीं? और, सत्ता ताकत के पुलिसिया मद को अभिव्यक्त करता शिवानी भटनागर हत्याकांड और रूपन देवल बजाज कांड को भी लोग भूले तो नहीं हैं.

तो ये है वो जनतंत्र और जन की आकांक्षा पर चलने वाली सरकार जिसमें से ‘जन’ पूरी तरह से गायब हो चुका है और तंत्र में बैठे लोग मध्ययुगीन तानाशाह जैसे ‘राज’ कर रहे हैं और जवाबदेही तथा जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं. 1990 में घटना के बाद से सत्ता में बैठे सभी मुख्यमंत्री इसके जिम्मेदार रहे, चाहे वो ओमप्रकाश चौटाला हों, बंसीलाल या फिर भजनलाल. सभी ने इस मसले पर आंखें मूंदे रखीं. लेकिन जैसा कि रुचिका के पिता सुभाष गिरहोत्रा का कहना है कि चौटाला ने तो हद कर दी. राठौड़ न केवल चौटाला के लगातार दाहिने हाथ बने रहे बल्कि उसके खिलाफ कार्रवाई को भी उन्होंने ही रोका. 1990 में रुचिका के साथ छेड़छाड़ की घटना और प्रताड़ना के बाद हरियाणा के डीजीपी आर.आर. सिंह ने जांच की और राठौड़ पर कार्रवाई की संस्तुति के साथ रिपोर्ट सौंपी, लेकिन चौटाला ने कार्रवाई नहीं की. कायदे से तभी एफ.आई.आर. दर्ज होनी चाहिए थी तत्कालीन आई.जी. राठौड़ के खिलाफ. लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्यों?

आखिर आज भी चौटाला झूठ बोल कर किसे बरगलाना चाह रहे हैं? वो कहते हैं कि उन्होंने राठौड़ का पक्ष नहीं लिया, तो रिपोर्ट दर्ज न करवाना और डीजीपी की रिपोर्ट के बाद भी कार्रवाई न करना आखिर क्या है? चौटाला कहते हैं उन्होंने राठौड़ को निलंबित किया था, लेकिन यहां भी वो लोगों को भ्रम में रखते हैं. उन्होंने  राठौड़ को रुचिका मामले में नहीं, दूसरे मामले में निलंबित किया था.  गौरतलब ये भी है कि चौटाला सरकार ही 1999 में राठौड़ को राष्ट्रपति का पुलिस मेडल दिलाने के लिए प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजती है. यहां चौटाला कहते हैं कि ये तो आईएएस-आईपीएस अफसरों का तय क्राइटेरिया है, मैंने इसमें कुछ नहीं किया. यहां ध्यान देने की बात ये है कि राठौड़ को राष्ट्रपति के पुलिस पदक का प्रस्ताव हरियाणा के तत्कालीन गृह सचिव बीरबल दास ढतिया ने भेजा था, और यही ढतिया बाद में मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव बने और अब उन्हीं चौटाला की पार्टी के संसदीय मामलों की समिति के वरिष्ठ सदस्य हैं. यहां गौर करने का पक्ष ये भी है कि यदि 1990-91 में ही राठौड़ पर चौटाला ने कार्रवाई की होती तो फिर नौ साल बाद कोर्ट के निर्देश पर एफआईआर दर्ज करने की नौबत नहीं आती और न ही कोर्ट को सीबीआई को मामला सौंपना पड़ता और शायद तब रुचिका को भयावह निराशा में खुदकुशी भी न करनी पड़ती.

तो चौटाला के झूठ का पर्दाफाश तो होना ही चाहिए और, चौटाला ही क्यों, बाद की बंसीलाल और भजनलाल सरकारों ने भी कार्रवाई क्यों नहीं की? आखिर रुचिका के 1993 में खुदकुशी के बाद पिता और भाई को करोड़ों का पंचकुला का मकान औने-पौने दामों में बेच कर शिमला और दूसरी जगहों पर दर-दर भटकने को क्यों मजबूर होना पड़ा? आखिर राठौड़ के ही निर्देश पर तो पुलिस ने कार चोरी के मामले में भाई आशु को फंसाया और 1993 में 23 अक्तूबर से 23 दिसंबर यानी दो महीने तक अवैध रूप से हिरासत में रखकर भारी प्रताड़ना दी थी और फिर रुचिका की खुदकुशी के बाद थाने में पिटाई से बेहोश आशु को उसके घर पर फिकवा दिया. क्या यह कम बड़ा हादसा है कि आशु की दस साल की बेटी आज तक स्कूल नहीं जाती, क्योंकि परिवार को इस बेटी के साथ भी रुचिका जैसी किसी अनहोनी की आशंका है? क्या यह आतंक का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के स्थानांतरण का अपने ढंग का नायाब मामला नहीं? जो राठौड़ स्कूल तक से चौदह साल की बच्ची को फीस न देने के झूठे आरोप में निष्कासित करवा देता है, रुचिका के घर गुंडों और पुलिस कर्मियों को प्रताड़ित करने को भेजता है, उसे पुलिस-प्रशासन-व्यवस्था की नियोजित भ्रष्टता का शर्मनाक उदाहरण नहीं तो क्या कहेंगे? तो क्या सभी इस हालत के लिए जिम्मेदार नहीं?

ऐसे में देश भर में उठ रहे सवालों के बीच यदि केंद्र सरकार और हरियाणा सरकार फिर से पूरे मामले पर पुनर्विचार और कोर्ट में जाने की बात कर रही है तो यह स्वागतयोग्य कदम है. राठौड़ की पुलिस मेडल की वापसी और पेंशन में कटौती की प्रक्रिया भी ठीक है, लेकिन अच्छा होता कि सरकार खुद ये पहल काफी पहले करती,  अकर्मण्य `तंत्र´ का शिकार होकर बहरेपन का सबूत न देती. यहां यह भी तय होना चाहिए कि राठौड़ के गलत कामों में `मदद´ करने वाले कौन-कौन लोग थे. यह खुलासा होना जरूरी इसलिए है, क्योंकि जनता को यह जानने का हक है कि उसके नाम पर राज करने वाले जनप्रतिनिधि और अफसर कितना सफेद-स्याह कर रहे हैं. कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का यह कदम भी स्वागतयोग्य है कि अगली जनवरी से फास्ट ट्रैक कोर्ट अपना काम शुरू कर देंगी, जिसमें महिलाओं-विकलांगों से संबंधित ऐसे मसलों को तुरंत उठाया जाएगा, जो 15 साल से अधिक समय से लंबित हैं.

एक और बात, हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री  और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री शांता कुमार का कहना है कि उन्होंने रुचिका मामले पर राठौड़ के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के लिए चौटाला को पत्र लिखा था और वो पत्र उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी को भी दिखाया था, जिस पर वाजपेयी भी शांता कुमार की तरह ही रो पड़े थे. लेकिन इस पत्र पर चौटाला ने राठौड़ के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. उन्होंने खुद माना है कि अनेक लोग इस पत्र को इसलिए दबाना चाहते थे कि केंद्र और हरियाणा दोनों ही जगह एनडीए सरकार थी और इस पत्र का लोग फायदा उठाने की कोशिश करते. लेकिन यहां सवाल शांता कुमार और वाजपेयी की संवेदना-सदभावना का नहीं, जनता के हित में संवैधानिक आचरण-समर्पण और न्याय-भावना के साथ दृढ़ शासन का है. जाहिर है कि यहां कानून के शासन के संदर्भ में सियासी लाभ-हानि के चक्कर में चूक हुई. निश्चित रूप से ऐसी चूक फिर न हो, इस पर लगाम लगा सकती है – सिर्फ और सिर्फ जनता की जागरूकता. आखिर यह जागरूकता ही तो है, जिसने रुचिका की दोस्त आराधना और उसके माता-पिता मधु और आनंद प्रकाश को न्याय के लिए 19 साल तक लड़ने का जज्बा दिया, उस व्यवस्था से टकराने का बुलंद हौसला दिया, जिसने आज देश में न केवल एक नई वैचारिक बहस की शुरुआत की, बल्कि सभी के सामने सड़ रही व्यवस्था के ताने-बाने की पोल भी खोल दी. निश्चित रूप से इस मामले में आम लोगों के साथ ही मीडिया की भूमिका भी प्रशंसनीय रही… इस ज़ज्बे, इस हौसले को सलाम! और ये दिली आकांक्षा भी कि काश! ये दिलेरी, ये जिजीविषा हमारी जम्हूरियत के हर कोने में फले-फूले और अवाम को कैक्टस के कांटों से बचाते हुए बेहतरी की ओर ले चले. (लोकमत से साभार)

लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. वे इन दिनों लोकमत, नागपुर के संपादक पद पर कार्यरत हैं.

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