नेहरू-गांधी परिवार के साथ दशकों से संबद्ध रहा क्षेत्र अमेठी सुर्खियों में है. वजह है अमेठी का नाम बदलकर अब छत्रपति शाहूजी महाराज नगर कर दिया गया है. आगामी चुनावों, खासकर कुछ समय बाद होने वाले विधानसभाई चुनावों के संदर्भ में मायावती सरकार का इसे बड़ा राजनीतिक कदम माना जा रहा है. मजे की बात तो ये है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी न तो इसका विरोध कर पा रही है, और न ही इसे पचा पा रही है. यह ठीक है कि दलितों और अन्य कमजोर तबकों के बीच प्रभाव विस्तार और उन्हें नया सियासी संदेश देने के लिए मायावती पहले भी समतावादी समाज में यकीन रखने वाले महापुरुषों के नाम पर जिलों और संस्थाओं का नामकरण करती रही हैं, लेकिन इस बार उनका निशाना कहीं ज्यादा गहरा है.
अब अमेठी का न केवल नया नाम होगा, बल्कि बगल का गौरीगंज क्षेत्र उसका मुख्यालय भी होगा. वहां की विकास गतिविधियों को भी जिला परिषद के अधीन लाकर उसे नए तरीके से नियंत्रित करने की योजना है. दरअसल, माया ने अमेठी का नामकरण सिर्फ छत्रपति शाहूजी महाराज नगर ही नहीं किया है. पूरे देश के कमजोर तबकों को भी ये संदेश दिया है कि जो काम शाहूजी महाराज के गृह राज्य महाराष्ट्र में न हो सका, उसे मायावती ने उत्तर प्रदेश में कर दिखाया. सभी जानते हैं कि कोल्हापुर राज्य के छत्रपति शाहूजी महाराज ने न केवल कमजोर तबकों के लिए, बल्कि समग्र रूप से विकास के लिए आजादी से काफी पूर्व अनेक कल्याणकारी कदम उठाए थे. उन्होंने आंबेडकर की विचारधारा का भी खुलकर समर्थन किया था. सोचा जा सकता है कि उन्होंने 1902 में ही कोल्हापुर राज्य में पचास प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था जब की थी, तो वो कितना क्रांतिकारी कदम रहा होगा. और उनके इस कदम के सौवें साल पर बसपा ने उसका शताब्दी वर्ष भी मनाया था. लेकिन इसी के साथ सच ये भी है कि सर्वसमाज में स्वीकृत छत्रपति शाहूजी महाराज के परिवार से संबद्ध लोग आज महाराष्ट्र की सियासत में या तो कांग्रेस से संबद्ध हैं या फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस से. ऐसे में कांग्रेस न तो नए नामकरण का विरोध कर सकती है और न ही समर्थन.
ऐसा भी नहीं है कि मायावती सरकार ने पहली बार शाहूजी महाराज के नाम पर नामकरण किया हो. अमेठी के पहले कानपुर विश्वविद्यालय और लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज का नया नामकरण भी शाहूजी महाराज के नाम पर किया जा चुका है. दरअसल, बसपा के संस्थापक कांशीराम जब दलितों-पिछडों और कमजोर तबकों को संगठित कर रहे थे और पुणे में थे तो उन्होंने डॉ. आंबेडकर, महात्मा फुले और शाहूजी महाराज, तीनों समाज सुधारकों के विचारों से अपने आंदोलन को जोड़ा था, और आज माया उसी अवधारणा के तहत न केवल पार्टी कार्यकर्ताओं, बल्कि अपने वोट बैंक को नई गोलबंदी का संदेश देना चाहती हैं. माया ये भी चाहती हैं कि जो अमेठी दशकों से नेहरू-गांधी परिवार से संबद्ध रही है और उस परिवार से जुडे लोगों को ही अपनी नुमाइंदगी देती रही है, उसे नया नाम और कलेवर देकर न केवल सियासत की धारा को बदला जाए, बल्कि इसके जरिए आगामी राजनीतिक जंग की नई व्यूह रचना भी रची जाए.
माया की इस सोच के पीछे कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के तेजी से बढते सियासी कद का भय स्पष्ट रूप से दिखता है. वैसे भी राहुल ने पिछले चुनावों में जिस तरीके से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पुनर्प्रतिष्ठित करने का काम किया है और जैसी सक्रियता उनकी यात्राओं और रैलियों के जरिए इस बीच बढी है, उससे विरोधियों का परेशान होना स्वाभाविक ही है. ठीक है कि मायावती ने न केवल उत्तर प्रदेश के कमजोर तबकों और दलितों को इस तरह एकजुट करना चाहा है, बल्कि दूसरे प्रदेशों में भी इस बाबत अपने कद को बढाने की कोशिश की है और निश्चित रूप से माया को इसका फायदा भी मिलेगा ही, लेकिन सच ये भी है शाहूजी महाराज सरीखे महापुरुष कभी किसी एक तबके के नेता नहीं रहे. उनकी क्रांतिकारी और कल्याणकारी सोच पूरे समाज के विकास की धारा से हमेशा ही संबद्ध रही, तभी तो उन्होंने अपने 48 वर्ष के सीमित जीवनकाल में ही हर तबके के कल्याण और विकास के साथ कोल्हापुर को तो जोड़ा ही, वैचारिक स्तर पर जो लौ जलाई वो अनवरत समाज के हर तबके के लिए नई ऊर्जा और प्रकाश का प्रतीक भी रही.
यह दुर्भाग्य की बात है कि देश के कुछ बड़े अंग्रेजी और अन्य भाषायी अखबारों ने शाहूजी महाराज को एक दलित नेता के रूप में चित्रित करने की कोशिश की है, और ऐसा शायद उन्होंने मायावती की राजनीति और वोट बैंक को एक खांचे में समेटने के प्रयास के तहत किया हो, लेकिन सच यही है कि दिल्ली के बगल में नोएडा का नामकरण गौतम बुद्ध नगर या फिर अमेठी का नामकरण शाहूजी महाराज के नाम पर करके सूरज की रोशनी को सीमित तो नहीं किया जा सकता. कौन नहीं जानता कि बुद्धम् शरणं गच्छामि का संदेश हो या फिर शाहूजी महाराज की कल्याणकारी दृष्टि, वो हर तबके और वर्ग से संबद्ध रही, उसकी विशालता जहां हिमालय सरीखी है तो सहज निर्मलता सर्वसुलभ बहती भागीरथी जैसी.
शायद इसीलिए कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में माया-मुलायम की जातिवादी सियासत का जवाब समाज की गंगा-जमुनी तहजीब पर आधारित आपसी भाईचारे और इतिहास की साझी विरासत के जरिए देने की कोशिश की है. 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में लखनऊ की बेगम हजरत महल की अगुवाई में जनसंघर्ष हो या मंगल पांडे की क्रांतिकारी पहल या फिर फैजाबाद में मौलवी अहमदउल्ला का योगदान, सभी हिन्दुस्तानी एकजुटता की मिसाल हैं. 20वीं सदी में भी आजादी का संघर्ष तो ऐसी ही मिसालों से भरा पडा है, जाहिर है सदभाव, सहिष्णुता और एकता के जरिए जातीय-सांप्रदायिक घृणा और विभेद को जवाब देने के ऐसे प्रयास सिर्फ सियासत के स्तर पर ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी होने चाहिए. राहुल गांधी के स्तर पर कांग्रेस की ये पहल जहां बेहतर प्रयास है, वहीं इसके दायरे को और व्यापक बनाए जाने की भी आवश्यकता है.
सपा, बसपा की जातिवादी राजनीति हो या फिर किसी बडे उद्देश्य के लिए जाति, मजहब, धर्म आधारित गोलबंदी या मंदिर-मस्जिद की सांप्रदायिक सियासत, इन सभी का जवाब है सहिष्णुता, उदार दृष्टि और आपसी सदभाव. यह समझा जाना चाहिए कि जिस अयोध्या के नाम पर घृणा की सियासत की जाती है, उसी अयोध्या में मंदिर में चढाए जाने वाले फूलों की खेती पुश्तों से मुस्लिम परिवार के लोग करते आ रहे हैं और आज भी अयोध्या में कई मंदिर-मस्जिद ऐसे हैं, जहां पूजा और नमाज साथ होती है, और कुछ मंदिरों के केयरटेकर मुसलमान भी रहे हैं. तो ये है हमारी साझी विरासत, साझी संस्कृति, न कि घृणा और आपसी द्वेष. और, इसी क्रम में ये भी समझा जाना चाहिए कि राम-कृष्ण की परंपरा में ही बुद्ध, महावीर, कबीर, तुलसी, खुसरो, नानक, महात्मा फुले और छत्रपति शाहूजी महाराज भी आते हैं. ये सभी हमारी धरोहर की वे श्रृंखलाबद्ध कड़ियां हैं, जो हर युग की भारतीयता और उसके शाश्वत मूल्यों का बोध ही नहीं कराते, हर क्षण हर भारतीय को प्रेरणा और संबल भी प्रदान करते हैं.
यह अच्छा प्रयास होगा कि कीचड़ को कीचड़ से साफ करने के बजाय उसे साफ पानी से धोया जाए, आजादी के आंदोलन के मूल्य हों या फिर धर्म, मजहब, जाति की कट्टरता से अलग उत्तर प्रदेश की धरती पर नेहरू, बाबा रामचन्दर और आचार्य नरेंद्रदेव की अगुवाई के किसान आंदोलन से निकली विरासत और संदेश, कि हम हिन्दुस्तानी हैं और हमारे देश का नाम है भारत. संभवतः यही वो आधार वाक्य है, जिसकी हमें आज भी उतनी ही जरूरत है, जितनी तब थी जब गांधी की अगुवाई में पूरा देश इससे सराबोर था.
वरिष्ठ पत्रकार गिरीश मिश्रा का यह आलेख ‘लोकमत’ से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.