अरे! आखिर कहीं तो शर्म करो! : नहीं जानता कि उन्हें अपनी हरकतों पर शर्म आती है या नहीं, पर हर विवेकशील, लोकतांत्रिक और देश के सबसे बड़े कानून यानी कि संविधान में निष्ठा रखने वाले को शर्मसार करने के लिए जो कुछ हुआ, वो काफी है। आईबीएन-लोकमत पर हमला कोई अकेली घटना नहीं है, जिसे अनदेखा करके कोई निकल जाए। यह खतरनाक प्रवृत्ति के ‘कैक्टस’ के चुभते हुए कांटे हैं। यह लोकतंत्र की अस्मिता ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ पर हमला है। विचारों की हत्या का फासिस्टी कारनामा है। देश-समाज के बौद्धिक प्रवाह को कुंद करने का हिटलरी हथकंडा है। तब भी यह सवाल उठा कि आखिर क्या गुनाह किया था सचिन ने? … लेकिन राष्ट्रीय एकता की बात कहने वाले को धमकी मिली। गौरतलब ये है कि सचिन तेंदुलकर को धमकी किसी व्यक्ति को दी गई धमकी नहीं है, यह राष्ट्रीय अस्मिता को धमकाने जैसा है, देश-समाज की लाख विभिन्नताओं के बीच उन सुनहरे एकता के सूत्रों को खंडित करने जैसा है, जो हमारी थाती हैं।
आजादी के आंदोलन के मूल्यों और उससे उपजे संस्कारों से निर्मित संविधान को बर्बर-तानाशाही अंदाज में धूल धूसरित करने जैसा है। अरे! आखिर कहीं तो शर्म करो! चंद दिनों में ही पहले हमारी एकता पर हमला और फिर हमारी जम्हूरियत की रगों में लहू बन कर दौड़ते विचारों की आजादी और प्रेस की स्वतंत्रता को लज्जित करने वाला आक्रमण। यदि लोकतंत्र और मानवीय सहिष्णुता में थोड़ा भी यकीन होता तो शिवसेना ये जरूर सोचती कि आखिर ऐसा क्या है, कि पिछले चुनावों में हमारा ग्राफ लगातार नीचे ही जा रहा है? अपनी खोट और कमियों पर विचार करती, न कि ऐसे हमले करके खुद को ही कठघरे में खड़ा करती। अगर पानी मरा न हो, तो अब भी देर नहीं हुई है, उसे पुनर्विचार जरूर करना चाहिए। आखिर लोकतंत्र में सुधार की गुंजाइश हमेशा ही रहती है, और सबेरे का भूला शाम घर वापस आ जाए, तो उसे भूला नहीं कहते। समझा जाना चाहिए कि यदि हमलों के जरिए लोकतंत्र में लोक को जीता जा सकता तो हर तानाशाह और तलवार की ताकत में यकीन रखने वाला क्रूर-दुर्दान्त जनता का चहेता होता। लेकिन ऐसा नहीं है।
सभ्य-शिष्ट-आधुनिक समाज की मर्यादाएं हैं। कोई जंगल राज नहीं। हमारे देश समाज के लिए यह शर्म के साथ ही क्षोभ का भी विषय है। कलम पर हमला कोई सामान्य घटना नहीं है, जो कलम संस्कारवश-धर्मवश न्याय के पाले में खड़ी होती आई है, उस पर हमला – लोकतंत्र की मूल अवधारणा और उसकी संस्कृति पर हमले जैसा ही तो है। पहले भी ऐसे होते रहे हमलों पर हमारे सभ्य आचरण को हमारे धैर्य की परीक्षा के तौर पर ही देखा गया। हम सभ्य और शालीन आचरण आज भी करेंगे, क्योंकि ये हमारे लोकतांत्रिक संस्कार हैं। लेकिन इन बीमार मनोवृत्तियों पर अंकुश जरूरी है। मुख्यमंत्री चव्हाण की कठोर कार्रवाई का आश्वासन स्वागत योग्य है। लेकिन लोकतंत्र में जनता को भी कभी-कभी ‘निर्णायक’ पहल करनी ही होती है। ब्रेख्त ने ऐसे ही ‘कांटों’ को चिन्हित करते हुए लिखा था-
‘…जब कैथोलिकों पर हमला हुआ, हम चुप थे.
जब यहूदियों पर हमला हुआ, हम चुप थे.
जब बौद्धिकों पर हमला हुआ, हम चुप थे.
….क्योंकि हमला हम पर नहीं था.
और जब हम पर हमला हुआ तो.
मुड़ कर देखा वहां कोई नहीं था।’
तो इस क्षोभ मे भी उस समवेत आवाज और जन प्रयास की अपेक्षा है- जो जम्हूरी हो और लोक का सम्मान करना जानती हो। और जहां तक विचारों और कलम को हमले से दफन करने की ‘हिमाकत’ की बात है, तो वे समझ लें…
‘…गर देखना हो मेरे पंखों की परवाज तो,
आसमां से कह दो कि थोड़ा और ऊंचा हो जाए।’
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं. उनका यह लिखा ‘लोकमत समाचार’ के पहले पेज पर विशेष संपादकीय के रूप में प्रकाशित हुआ है. इसे वहीं से साभार लिया गया है.