चरित्र खोता देश! : गांव के स्कूल में सुना. धोती-कुर्ता वाले मास्टर से. भावार्थ था. अगर जीवन में धन चला जाये, कोई चिंता नहीं. मान लो कुछ नहीं खोया. स्वास्थ्य गिरा, तो समझो नुकसान हुआ. पर चरित्र गिरा, तो समझो सब कुछ खत्म. उस अध्यापक की कही यह बात आज (24-4-10) याद आयी. कई खबरें पढ़ कर. यह कथन जैसे एक व्यक्ति पर लागू है, वैसे ही देश पर भी. पिछले कुछेक दिनों की घटनाएं प़ढ़ कर लगता है, इस मुल्क ने चरित्र लगभग खो दिया है. सार्वजनिक जीवन में, नैतिक मूल्य, आत्म नियंत्रण, शर्म, लोक-लाज की जगह ही नहीं बची. गौर करें, 24 अप्रैल के अखबारों में छपी कुछ खबरें :-
केंद्र सरकार ने देश के चार बड़े नेताओं के फ़ोन टैप कराये. शरद पवार, दिग्विजय सिंह (मध्यप्रदेश), नीतीश कुमार व प्रकाश करात.
मंत्री प्रफ़ुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा पटेल ने दिल्ली-कोयंबटूर फ्लाइट (एयर इंडिया फ्लाइट आइसी 7603) को रद्द करा कर आइपीएल खिलाड़ियों के लिए और खुद के लिए चार्टर्ड कराया. निर्धारित समय से ठीक 12 घंटे पहले यह उड़ान अचानक रद्द हुई.
शरद पवार की पुत्री के पति यानी शरद पवार के दामाद के आइपीएल के लाभार्थियों में होने की खबर.
यह भी खबर आयी है कि आइपीएल-2 के मैच फ़िक्स थे. इसमें 27 खिलाड़ी शामिल हैं.
यह सिर्फ़ एक दिन की चार प्रमुख खबरें हैं. चारों, देश के सार्वजनिक जीवन की सच्चाई उजागर करती हुई. कोई पूछे, इस देश को खतरा किनसे है? क्या नीतीश कुमार से है? कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह से है? अपने ही मंत्री शरद पवार से है? या प्रकाश करात से है? यह सामान्य समझ है कि फ़ोन की मॉनिटरिंग या टैपिंग उन्हीं लोगों की होनी चाहिए, जो देश के लिए खतरा हैं. या उग्रवादी हैं. या देश के दुश्मन हैं. या देश के खिलाफ़ जासूसी में लगे हैं. उग्रवादियों या माओवादियों के खिलाफ़ सरकार बहादुरी नहीं दिखा पाती, तो अपने देश के नेताओं के ही फ़ोन टैपिंग में बहादुरी दिखा रही है. सार्वजनिक जीवन में यह अक्षम्य अपराध है.
कांग्रेस का पुराना रिकार्ड रहा है, नेताओं के फ़ोन टैप कराने में. 80-90 के दशकों में चंद्रशेखर से लेकर अन्य नेताओं के फ़ोन टैपिंग के प्रकरण सामने आये थे. यह काम राजमहलों के षडयंत्र की याद दिलाता है. जब राजा अपने संभावित उत्तराधिकारियों के या परिवार के लोगों के खिलाफ़ जासूसी कराता था. ऐसी परिस्थितियों में ही बाहरी आक्रमणकारी कामयाब रहे. इधर राजा अपनों के खिलाफ जंग में लगे रहते, उधर देश गुलाम होता गया. आज चीन भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है. भारत के दरवाजे पर (सीमा) उसकी चौड़ी सड़कें हैं. ट्रेन लाइनें बिछ रही हैं. अन्य चीजों में भी आगे है. पाकिस्तान ने पिछले 30-40 वर्षो से कश्मीर में नाकोंदम कर रखा है. प्रधानमंत्री बार-बार कह रहे हैं कि नक्सली आजादी के बाद देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं. हजारों करोड़ रुपये कश्मीर संभालने और नक्सलियों को नियंत्रित करने में खर्च हो रहे हैं. पर, भारत की सरकार अपने नेताओं को ही इनसे बड़ा खतरा मान रही है.सार्वजनिक जीवन में लोक-लाज बचा ही नहीं.
पिता जिस विभाग के मंत्री हैं, बेटी को उसी विभाग से आपत्तिजनक फ़ेवर मिलता है. मंत्री या मंत्रालय को जरा भी भय नहीं. संकोच नहीं. इंडियन एयरलाइंस का जहाज जो रोज यात्रियों को लेकर दिल्ली से कोयंबटूर जाता था, 12 घंटे पहले अचानक कैंसिल कर दिया गया. कारण, उस विमान को उसी विभाग के मंत्री प्रफ़ुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा पटेल ने चार्टर्ड कराया. चंड़ीगढ़ से चेन्नई के लिए. जिसमें वह खुद थीं और कुछ आइपीएल खिलाड़ी. सामान्य यात्री जिनके टिकट पहले बुक किये गये, क्यों उनके साथ ऐसा बरताव हुआ? आइपीएल में भी प्रफ़ुल्ल पटेल की बेटी के नाम की चर्चा है. उधर, शरद पवार की सांसद बेटी भी अपने पति को बेदाग बता रही हैं. आइपीएल प्रकरण में ही यशवंत सिन्हा, शरद पवार से इस्तीफ़ा मांग चुके हैं. उड्डयन मंत्री प्रफ़ुल्ल पटेल से भी. एक मंत्री शशि थरूर पहले ही इस प्रकरण में इस्तीफ़ा दे चुके हैं. सुनंदा पुष्कर और शशि थरूर के रिश्ते अब तक स्पष्ट नहीं हुए हैं? क्या कारण है कि जहां बड़े पैसे का खेल होता है, वहां राजनीतिज्ञ, उद्योगपति, अभिनेता, अभिनेत्री सब एक साथ खड़े दिखाई देते हैं. 1991 के उदारीकरण के बाद के ये नये आइकॉन्स (नायक) हैं. समाज व युवा इन्हीं को फॉलो कर रहे हैं.
इन्हीं के पदचिन्हों पर चलने की होड़ लगी है. एक अंगरेजी अखबार में आइपीएल क्रिकेट मैच के ठीक बाद एक जश्न पार्टी की तसवीर छपी है. मैच के बाद कपड़ा उतारते-फ़ाड़ते उत्तेजक दृश्य. क्रिकेट खिलाड़ी समाज के नये हीरो हैं. नायक हैं. पर ये सभी खिलाड़ी, उद्योगपति, नेता, अभिनेता, अभिनेत्रियां एक ही मंच पर खड़े हैं. जहां न कोई नैतिक आग्रह है, न मर्यादा, न संकोच, न लोक-लाज. सभी धन के भूख हैं. पैसे और भोग के नाम इनकी आत्मा गिरवी है. ये धन की ही पूजा करते हैं. धन को ही सब कुछ मानते हैं. नेहरू युग में मूंदड़ा कांड हुआ, जिसमें कुछेक लाख रुपयों के मामले थे. मंत्री को तुरंत जाना पड़ा.
एक मंत्री केशव देव मालवीय को चेक से दस हजार रुपये चंदा लेने पर इस्तीफ़ा देना पड़ा. बिहार में छोआ कांड हुआ था. जेपी आंदोलन के दौरान एक सांसद तुलमोहन राम पर एकाध लाख रुपये फ़ेवर लेने का आरोप लगा था. 1985-89 के बीच 65 करोड़ काबोफ़ोर्स मामला, देश में बड़ा मुद्दा बना और सार्वजनिक जीवन में भी. आज तो जिला स्तर पर अरबों के घोटाले हो रहे हैं, पर सवाल नहीं उठ रहे, क्यों? 1990-91 के उदारीकरण के गर्भ से जो मूल्य और संस्कृति पनपे हैं, वे सिर्फ़ लोभ और लालच से जुड़े हैं.
आज ललित मोदी खलनायक नजर आ रहे हैं. पर, मीडिया से लेकर हर जगह उनके गुणगान हो रहे थे. हर्षद मेहता, केतन पारीख, एमएस शूज स्कैम, दमानिया एयरवेज प्रकरण, बैलाडीला आयरन मुद्दा, सांख्यवाहिनी की पहेली से लेकर सेज प्रकरण. स्विस बैंकों में जमा भारतीय धन के उजागर हुए ब्योरे. ये सब मुद्दे आज सार्वजनिक जीवन में सवाल नहीं हैं. जबकि ऐसे ही सवालों ने भारत के भविष्य को घेर रखा है. क्यों पहले सार्वजनिक जीवन में छोटे सवालों पर भी देश की आत्मा झंकृत होती थी. समाज और सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और मूल्यों से जुड़े सवाल निर्णायक बन जाते थे. पर, आज नहीं?
1991 की अर्थनीति से जो सांस्कृतिक मूल्य निकले, वे भिन्न हैं. ऐरीक फ्रॉम ने ‘मार्केटिंग कैरेक्टर’ (बाजारू चरित्र) की चर्चा की है. यह चरित्र पूरी तरह से पिछलग्गू होता है. बाजार की मांग और चरित्र के अनुसार इस व्यवस्था में लोग खुद को ढालते हैं. बाजारू व्यक्तित्व के धनी लोगों के पास अपना इगो (अहम), अपना आत्मसम्मान नहीं होता. कोई सिद्धांत नहीं होता. सही या गलत के बीच फ़र्क का विवेक नहीं होता. यही हालत भारतीय समाज का है. मुख्य धारा हो गयी है, धन की भूख. धन पाने की, हड़पने की, चुराने की, घूस खाने की. इसी होड़ में फ़ंसा है देश-समाज. इसके लिए आत्मसम्मान, विवेक, चरित्र सब कुछ दावं पर लगाने के लिए लोग तैयार हैं. क्या कहीं आवाज उठी कि आइपीएल क्रिकेट मैचों को दिखाने में कितनी बिजली की खपत हो रही है? और देश में कितने इलाके घुट-घुट कर अंधेरे में जी रहे हैं.
इन खिलाड़ियों की सुरक्षा में कितनी पुलिस और सुरक्षा व्यवस्था लगी है? क्या ये जवान और सुरक्षा सामान्य जनता को आतंकियों और अपराधियों से बचाने के लिए नहीं लगाये जा सकते? दरअसल आइपीएल प्रतीक है, नवधनाढय़ों की लूट और भोग की संस्कृति का. योजना आयोग ने हाल में माना है कि 37 फ़ीसदी भारतीय गरीबी रेखा से नीचे हैं. यानी 43 करोड़ लोग. भारत की प्राथमिकता यह गरीबी है या देश के नव कुबेरों के मनोरंजन के लिए हो रहे आइपीएल जैसे खेल?.आइपीएल, क्रिकेट, बॉलीवुड, राजनीतिज्ञों और उद्यमियों की सांठगांठ का प्रतिफ़ल है. जहां तेजी से धन कमाने की भूख है. एक किस्म का जुआ और सट्टेबाजी. जहां क्रिकेट खिलाड़ियों की नीलामी होती है. और जहां धन है, वहां समाज के सभी ताकतवर अंग एकजुट हैं. वहां क्यों नहीं सही ढंग से खातों की जांच होती थी? लेन-देन का खुलासा होता था? क्यों अब करोड़ों-अरबों के धन की हेरा-फ़ेरी या मॉरीशस की संदेहास्पद कंपनियों से धन आने की बातें खुल रही हैं. क्यों लगातार भारत के धनी और ताकतवर कानून से बाहर जा रहे हैं? क्यों इस देश का कानून सिर्फ़ उनके लिए रह गया है, जो संविधान में यकीन करते हैं?
लेखक हरिवंश प्रभात खबर अखबार के प्रधान संपादक हैं.