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समाज-सरोकार

….तो सिर्फ जाट ही बदनाम क्यों हैं?

मैंने बुजुर्गों को बचपन ही से शादी ब्याह के वक्त गोत्र, उसमें भी उपजाति, परिवार के मूल स्थान और रीति रिवाज से लेकर वधु की चूड़ियों के रंग तक का अता पता करते देखा है. ये तय करने के लिए कि शादी मिलते जुलते खानदान के साथ तो हो लेकिन गलती से भी अपनी ही उपजाति के लड़के या लड़की से न हो जाए. खासकर पंजाबियों में ये मान कर चला गया है कि खुराना, कक्कड़, मक्कड़, सलूजा, सुखीजा, कपूर या चावला लड़का और लड़की कभी कोई पुरानी जान पहचान न हो तो भी आपस में भाई-बहन होते हैं.

<p>मैंने बुजुर्गों को बचपन ही से शादी ब्याह के वक्त गोत्र, उसमें भी उपजाति, परिवार के मूल स्थान और रीति रिवाज से लेकर वधु की चूड़ियों के रंग तक का अता पता करते देखा है. ये तय करने के लिए कि शादी मिलते जुलते खानदान के साथ तो हो लेकिन गलती से भी अपनी ही उपजाति के लड़के या लड़की से न हो जाए. खासकर पंजाबियों में ये मान कर चला गया है कि खुराना, कक्कड़, मक्कड़, सलूजा, सुखीजा, कपूर या चावला लड़का और लड़की कभी कोई पुरानी जान पहचान न हो तो भी आपस में भाई-बहन होते हैं.</p>

मैंने बुजुर्गों को बचपन ही से शादी ब्याह के वक्त गोत्र, उसमें भी उपजाति, परिवार के मूल स्थान और रीति रिवाज से लेकर वधु की चूड़ियों के रंग तक का अता पता करते देखा है. ये तय करने के लिए कि शादी मिलते जुलते खानदान के साथ तो हो लेकिन गलती से भी अपनी ही उपजाति के लड़के या लड़की से न हो जाए. खासकर पंजाबियों में ये मान कर चला गया है कि खुराना, कक्कड़, मक्कड़, सलूजा, सुखीजा, कपूर या चावला लड़का और लड़की कभी कोई पुरानी जान पहचान न हो तो भी आपस में भाई-बहन होते हैं.

पुराने ज़माने में संपर्क और सुविधाओं से वंचित समाज में मामा या मौसी के बेटे बेटी के साथ तो शादी जायज़ थी. किसी हद तक आज भी है. लेकिन चाचा या अपनी उपजाति के किसी, कहीं के भी लड़के लड़की की शादी पे पाबंदी थी. आज भी है. एक फर्क के साथ ये पाबंदी मुस्लिम समाज में भी थी. आज भी है. मुसलमानों में दूध के रिश्ते की शादी नाजायज़ है. यानी चाचा के लड़के या लड़की से तो शादी हो सकती है. लेकिन मामा या मौसी के बच्चे से शादी कतई नहीं हो सकती. इस्लाम में ऐसी शादियों को शरीअत के खिलाफ माना गया है. इस तरह की पाबंदियां आप समाज के हर तबके में पायेंगे. मैं भारत की बात कर रहा हूँ. जहां जाट भी रहते हैं. शादी के मामले में कुछ पाबंदियों की परंपरा अपने पूर्वजों से उन्हें भी मिली है शिष्टाचार के तमाम संस्कारों के साथ. और वे लागू भी रही हैं अब से महज़ कुछ महीने पहले तक. स्वभाव से दबंग होने के बावजूद जाट कभी उग्र नहीं हुए. इसलिए कि इसकी नौबत ही नहीं आई.   

अब आई है तो वे आपे से बाहर हुए हैं, हिंसक भी. और आप गौर करें इस हिंसा के पीछे भी परिवार की भूमिका कुछ कम, खाप की ज्यादा है. खाप भीड़ होती है. पर लोकतंत्र में भीड़ की भी एक भाषा होती है. अहमियत भी. हिंसा गलत है. कोई भी दलील किसी हत्या को जायज़ नहीं ठहरा सकती. कानून अपना काम करेगा. उसने किया. यहाँ टकराव दिखा. जो खापों को परंपरा में मिले वो संस्कार कानून की किताब में दर्ज नहीं थे. मनोज, बबली की गयी जान और कोई आधा दर्जन लोगों को फांसी के ऐलान के बाद ही सही समाज के संस्कारों और संविधान का सही मेल हो पाए तो ये बड़े पुण्य का काम होगा. मैं मीडिया में अपने मित्रों से उम्मीद करूँगा कि वे खापों को तालिबान बताने की बजाय एक बार अपने भी गिरेबान में झाँक कर देखें. जब खुद उनके परिवारों में फर्स्ट कजिन के साथ शादी नहीं हो सकती तो फिर इसका विरोध करने के लिए जाट ही बदनाम क्यों हैं? कुछ चिंतन मनन अपने अंतःकरण में जाटों और उनकी खापों को भी करना पड़ेगा. पंजाबियों और मुसलमानों ने तो शादी के लिए ददिहाल और ननिहाल में से एक रास्ता बंद किया है. खापों पे इलज़ाम है कि उनने इन दो के अलावा तीसरे और चौथे रास्ते पे भी नाका सा लगा रखा है.

ये ज़रूरी है देश की संसद खापों की हिन्दू मैरिज एक्ट में संशोधन की मांग पर विचार करे. शादी के लिए छत्तीसगढ़ और झारखण्ड से कुछ नज़दीक रास्ते जाटों की नई पीढी को भी दिखने चाहिए. वर्ना बेमेल शादियाँ होंगी. फतवे, खतरे होंगे. अदालतों में फ़रियाद होगी तो सुरक्षा मुहय्या कराने के आदेश भी दिए ही जायेंगे. खापों और पुलिस के बीच टकराव हमेशा रहेगा. इससे मुश्किलें बढेंगी. मतभेद मनभेद में बदले तो सरकार के लिए भी गोली डंडा चलाना दुश्वार हो जाएगा. हम सब अस्थायी असहमति के स्थायी अशांति में बदलने का इंतज़ार क्यों करें? ….मान के चलिए कि चौटाला और नवीन जिन्दलों के बाद “भाई-बहनों” की शादियों के खिलाफ तो जाटों के साथ कल दूसरी बिरादरियां भी होंगी.

लेखक जगमोहन फुटेला चंडीगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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