: हममें-उनमें फर्क होना ही चाहिए : पिछली छह अप्रैल को दंतेवाड़ा के चिंतलनार में जब 76 सुरक्षाकर्मियों की नृशंस हत्या माओवादियों ने की थी, तो देशभर में इसकी जबरदस्त निन्दा हुई थी. यह घात लगाकर किया गया नियोजित हमला था. इस हमले में लगभग आधा दर्जन सुरक्षाकर्मी जिंदा बचे थे. उन्होंने बताया था कि किस क्रूर तरीके से नक्सलियों ने हत्याकांड को अंजाम दिया था, जिसमें कई घायल सुरक्षाकर्मियों के गले को रेतना भी शामिल था. कोई भी संवेदनशील व्यक्ति ऐसा सुन कर सिहर सकता था.
फिर कुछ समय बाद दंतेवाड़ा में ही बारूदी सुरंग से उस यात्री बस को उड़ा दिया गया जिसमें निर्दोष आम लोगों के साथ लगभग 20 विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) भी सवार थे. इसमें भी घात लगाकर जिस तरह से लगभग 40 लोग मारे गए, उसकी भारी निन्दा हुई थी – लेकिन पिछली 16 जून को पश्चिम बंगाल के सालबोनी के रंझा जंगलों में 3 महिलाओं समेत 12 माओवादियों के मारे जाने की जो तस्वीरें मीडिया में प्रकाशित हुई हैं, वो भी काफी कुछ सोचने को विवश करती हैं.
आखिर संविधान सम्मत सरकार, उसके सुरक्षा बल, कानून, मानवाधिकार में यकीन करनेवालों के प्रतिनिधि सुरक्षाकर्मी ऐसा आचरण कैसे कर सकते हैं, जिसमें जंगली जानवरों की तरह मृतकों के शवों को बांस के डंडों पर बांध कर ले जाया जाए? क्या इसे किसी जनता की सरकार का लोकतांत्रिक आचरण कहा जा सकता है? आखिर नक्सलियों से लड़ने में हम अपनी मर्यादा कैसे भूल जाते हैं? क्या हम यह भूल गए कि हम उनके जैसे नहीं हो सकते? वे तो संविधान-कानून-व्यवस्था में विश्वास नहीं रखते, लेकिन हम तो रखते हैं, फिर ऐसा कैसे हो गया? हम खुद नक्सलियों को देश और उसके कानून में यकीन न रखनेवाला मानते हैं और इसी बिना पर उनके खिलाफ संघर्ष भी होता है, लेकिन हम अपनी सीमाओं को कैसे भूल गए?
गौर करने की बात तो ये है कि युद्धभूमि में भी शवों के साथ ऐसा व्यवहार देखने-सुनने को नहीं मिलता, कश्मीर में आए दिन आतंकियों से होनेवाली मुठभेड़ों के बाद मृत आतंकियों के शवों को इस तरह अपमानजनक तरीके से कभी ले जाया गया हो, याद नहीं पड़ता. कम से कम मीडिया में तो ऐसे चित्र कभी नहीं छपे. पश्चिम बंगाल पुलिस के मुखिया के इस तर्क पर गौर किया जाना चाहिए कि सालबोनी के जिन रंझा जंगलों में माओवादियों से मुठभेड़ हुई, वहां से सड़क की दूरी लगभग तीन किलोमीटर थी और सड़क तक शवों को ले जाने का सुरक्षाबलों को कोई और रास्ता संभवत नहीं सूझा.
पुलिस प्रमुख का ये भी कहना है कि कमरों में बैठकर नीति बनाने और बहस करने से बहुत अलग स्थिति गोलियों का सामना करनेवाले सुरक्षाबलों को झेलनी पड़ती है, और फिर सिद्धांत और व्यवहार में थोड़ा अंतर तो होता ही है. पश्चिम बंगाल पुलिस के इन तर्कों को यदि मान भी लिया जाए तो सवाल ये उठता है कि आम पुलिसकर्मियों को निर्देशित करनेवाले और इस कार्रवाई का नेतृत्व करनेवाले अधिकारी क्या कर रहे थे? क्या उन्हें इस बात का अन्दाजा था कि जंगल की सीमा के बाहर गांवों-कस्बों की बस्ती से जब इस हालत में शवों को लेकर सुरक्षाकर्मी गुजरेंगे तो देखनेवालों की स्वाभाविक सहानुभूति किसके साथ होगी? हो सकता है वीभत्स दृश्य से पैदा हुई दहशत को कोई ‘विजयी मानसिकता’ का पुरस्कार मान ले, लेकिन इसकी सहज प्रतिक्रिया में अमानवीय-घृणा के ज्वार का भी अंदाजा लगाया जा सकता है.
निश्चित रूप से यहां न केवल विश्लेषण और विचार की आवश्यकता है, बल्कि भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए जरूरी है कि विवेकजनित फैसले हों. शव किसी का भी हो, उसके साथ किसी के भी द्वारा ऐसा आचरण कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता. असामाजिक तत्वों, अपराधियों, आतंकियों या फिर माओवादियों द्वारा भी यदि आम नागरिकों या सुरक्षाकर्मियों के साथ ऐसा दुराचरण किया जाता है तब भी ये उतना ही निंदनीय है, लेकिन कानून में यकीन करनेवाले को तो अपनी ओर से और भी संयमित और मर्यादित आचरण करना ही चाहिए. आखिर इसी अंतर के चलते तो कोई राष्ट्रविरोधी और उसके कानूनों को तोड़नेवाला है, तो कोई संविधान और व्यवस्था में यकीन रखनेवाला सुरक्षाकर्मी या आम नागरिक. ऐसे ही मौकों पर जरूरत होती है फोर्स का नेतृत्व कर रहे विवेकी अधिकारियों और जागृत नागरिकों की.
निश्चित रूप से केन्द्रीय गृह मंत्रालय की ओर से यह बेहतर पहल हुई है कि माओवादियों के शवों को इस तरह ले जाने के मामले की पूरी जांच हो और ऐसा कैसे हुआ, इसकी जिम्मेदारी भी तय हो. इस कार्रवाई से कम से कम इतना तो सुनिश्चित होना ही चाहिए कि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो. साथ ही बंदूक और गोली-बारूद में यकीन रखनेवाले हर तबके को ये संदेश जाना चाहिए कि देश, उसकी रक्षा में मुस्तैद सुरक्षाबल, जनता द्वारा निर्वाचित सरकार और सबसे ज्यादा राष्ट्र की आम जनता ‘तुम्हें बहका हुआ और अवैध कामों में लिप्त शख्स ही मानती है. संविधान और कानून से खिलवाड़ की इजाजत किसी को नहीं है और राष्ट्र से बढ़कर कुछ नहीं ’. लेकिन इसके लिए हमारा खुद का आचरण भी मर्यादित और संयमित होना चाहिए. अभी तक की जांच से जो तथ्य सामने आए हैं उसमें सीआरपीएफ के महानिदेशक की ओर से ये कहा गया है कि केंद्रीय बलों की ओर से ऐसा नहीं किया गया है और न ही केंद्रीय बल इस तरह का आचरण किसी के भी साथ करते हैं. ये काम राज्य पुलिस का है.
फिलहाल ऐसा जिस भी स्तर पर हुआ हो, उससे भविष्य के लिए सीख लेने की जरूरत है. माओवादियों के संदर्भ में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा तैयार उस रिपोर्ट को भी नकार कर उचित ही किया है, जिसमें छत्तीसगढ़ के नक्सलियों को सुरक्षा बलों से ‘सशत्र संघर्ष’ में लिप्त रहने की बात कही गई है. रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के कार्यालय द्वारा तैयार की गई है और इसे सुरक्षा परिषद को सौंपा गया है. भारत सरकार ने रिपोर्ट में लिखित इस दावे को भी नकार दिया है कि इस ‘सशत्र संघर्ष’ को अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के दायरे में लाया जाए.
भारत का उचित ही मानना है कि यह अंदरूनी मामला है और कानून-व्यवस्था की सुदृढ़ता और विकास कार्यों द्वारा ही इससे निपटा जा सकता है. और, सरकार के साथ ही अवाम के स्तर पर, जिसमें बंदूक की ताकत में यकीन करनेवाले भी शामिल हैं, समझा जाना चाहिए कि यह देश हमेशा सहिष्णु, उदारवादी, मध्यमार्गी और भाईचारे की भावना में यकीन करनेवाली धारा से सम्बद्ध रहा है. अतिवाद से दूर मानवीय- लोकतांत्रिक .ष्टि ही इसकी थाती है, पूंजी है. हिंसा, जोर-दबाव और अमानवीयता और नृशंसता को कभी भी दीर्घकालिक स्वीकार्यता नहीं मिली. और, ये सिर्फ किसी गांधी का आजमाया हुआ फार्मूला ही नहीं है, बल्कि आम लोगों की धड़कन की आवाज भी है कि जितना बड़ा लक्ष्य और आदर्श हो, हमारे आचरण और तौर-तरीके भी उतने ही बड़े होने चाहिए. इसे जितनी जल्दी हो सके- समझने और स्वीकारने की जरूरत है.
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. वे इन दिनों लोकमत, नागपुर में संपादक पद पर कार्यरत हैं. उनका यह लिखा ‘लोकमत’ से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.