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कुछ महीनों में हिन्दुत्ववादी ताक़तें री-ग्रुप होने जा रहीं

सुषमा स्वराज के बयान में बगावत की बू : गांधियन विरासत की निशानी हिंद स्वराज की हिन्दुत्ववादी व्याख्या की तैयारी : देश के ज़्यादातर गांधीवादी संगठनों पर आरएसएस का कब्जा : बीजेपी को एक बंटा हुआ घर कहकर नए संघ प्रमुख  ने इस बात का ऐलान कर दिया है कि बीजेपी में किसी भी गुट की मनमानी नहीं चलेगी. आरएसएस ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि देश में हिंदुत्व की राजनीति पर केवल उसी का कण्ट्रोल है. दिल्ली में बैठे कॉकटेल सर्किल वालों की किसी भी राय का संघ के फैसलों पर कोई असर नहीं पड़ता. पिछले कई महीनों से चल रहे आतंरिक विवाद का जब कोई हल नहीं निकला तो संघ के मुखिया, मोहन भागवत ने बाकायदा एक न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू दिया. इस इंटरव्यू में जो कुछ उन्होंने कहा, उसका भावार्थ यह है कि बीजेपी में अब तक सक्रिय अडवाणी और राजनाथ गुटों को किनारे करने का फैसला हो चुका है. दिल्ली में सक्रिय मौजूदा बीजेपी नेताओं की ऐसी ताक़त है कि वे किसी  भी नेता के सांकेतिक भाषा में दिए गए बयान को अपने हिसाब से मीडिया में व्याख्या करवा देते हैं. लगता है कि नागपुर वालों को भी इस ताक़त का अंदाज़ लग गया है. इसीलिये अबकी बार मोहन भागवत ने हिन्दी के सबसे बड़े टीवी न्यूज़ चैनल को अपनी बात कहने के लिए चुना.

शेष नारायण सिंह

सुषमा स्वराज के बयान में बगावत की बू : गांधियन विरासत की निशानी हिंद स्वराज की हिन्दुत्ववादी व्याख्या की तैयारी : देश के ज़्यादातर गांधीवादी संगठनों पर आरएसएस का कब्जा : बीजेपी को एक बंटा हुआ घर कहकर नए संघ प्रमुख  ने इस बात का ऐलान कर दिया है कि बीजेपी में किसी भी गुट की मनमानी नहीं चलेगी. आरएसएस ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि देश में हिंदुत्व की राजनीति पर केवल उसी का कण्ट्रोल है. दिल्ली में बैठे कॉकटेल सर्किल वालों की किसी भी राय का संघ के फैसलों पर कोई असर नहीं पड़ता. पिछले कई महीनों से चल रहे आतंरिक विवाद का जब कोई हल नहीं निकला तो संघ के मुखिया, मोहन भागवत ने बाकायदा एक न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू दिया. इस इंटरव्यू में जो कुछ उन्होंने कहा, उसका भावार्थ यह है कि बीजेपी में अब तक सक्रिय अडवाणी और राजनाथ गुटों को किनारे करने का फैसला हो चुका है. दिल्ली में सक्रिय मौजूदा बीजेपी नेताओं की ऐसी ताक़त है कि वे किसी  भी नेता के सांकेतिक भाषा में दिए गए बयान को अपने हिसाब से मीडिया में व्याख्या करवा देते हैं. लगता है कि नागपुर वालों को भी इस ताक़त का अंदाज़ लग गया है. इसीलिये अबकी बार मोहन भागवत ने हिन्दी के सबसे बड़े टीवी न्यूज़ चैनल को अपनी बात कहने के लिए चुना.

कहीं कोई शक न रह जाए इसलिए उन्होंने अडवाणी के करीबी चार बड़े नेताओं का नाम लेकर उन्हें अध्यक्ष पद की दावेदारी से बाहर कर  दिया. जब अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और वेंकैया नायडू बीजेपी संगठन से बाहर हो जायेंगें, तो एक तरह से अडवाणी की ताक़त ख़त्म हो जायेगी क्योंकि लोकसभा में पार्टी के नेता पद से अडवाणी को हटाने का फैसला पहले ही किया जा चुका है. उस फैसले को लागू करने में थोड़ी मोहलत दे दी गयी है लेकिन हिंदुत्व की राजनीति की बारीकियां समझने वाले जानते हैं कि अडवाणी के लिए अब लोकसभा में नेता बने रहना असंभव है. इसी तरह तो उनके  जिन्नाह वाले भाषण के बाद  अडवाणी को अध्यक्ष पद से हटाया गया था. उस वक़्त भी कुछ दिन तक दिल्ली के सत्ता के गलियारों में और मीडिया में प्लांट की गयी ख़बरों के ज़रिये फैसले को टालने की कोशिश की गयी थी लेकिन आखिर में जाना ही पड़ा था. इस बार भी मामला लेट लतीफ़ तो हो  सकता है  लेकिन अडवाणी और राजनाथ के ख़ास बन्दों के कब्जे से संघ के आला नेता अपनी  पार्टी को निकाल  लेने का मन बना चुके हैं. यह भी एक सच है कि दिल्ली में जमे हुए अमीर-उमरा आसानी से सत्ता नहीं छोड़ते लेकिन नागपुर की ताक़त को भी कम करके नहीं आँका जा सकता. नागपुर को भी मालूम है कि  दिल्ली वाले पूरी कोशिश करेंगें लेकिन आर एस एस का काम भी पूरी प्लानिंग के साथ होता है. १९९८ में सत्ता में आने के बाद जिस तरह से बीजेपी के नेताओं और मंत्रियों ने कांग्रेसियों  की तरह घूस और बे-ईमान्री का आचरण शुरू किया था, उससे आरएसएस के नेताओं को बहुत निराशा हुई थी. उसी दौर में उन्होंने अपने सबसे काबिल संगठनकर्ता, गोविन्दाचार्य को बीजेपी से अलग कर दिया था और उन्हें बीजेपी का विकल्प तलाशने और राजनीतिक हस्तक्षेप की अन्य संभावनाओं को तलाशने का काम सौंप दिया था. राष्ट्र निर्माण जैसे नारों के साथ गोविन्दाचार्य तभी से इस काम में जुटे हुए हैं. उनकी कोशिश है कि आरएसएस के बाहर से भी लोगों को लाकर जोड़ा जाए. देश के ज़्यादातर गांधीवादी संगठनों पर आरएसएस का कब्जा हो ही चुका है. कोशिश की जा रही है कि हिंद स्वराज जैसी गाँधी की विरासत की निशानियों की भी हिन्दुत्ववादी व्याख्या कर ली जाये और जल्द से जल्द बीजेपी का विकल्प तैयार कर लिया जाए. अभी तक की प्रगति को देखने के बाद लगता है कि उसमें अभी कुछ और टाइम लगेगा. शायद इसीलिये संघ ने फैसला किया है कि तब तक दिल्ली में जमे हुए नेताओं के कब्जे से बाहर लाकर अपनी राजनीतिक शाखा को अपने ख़ास बन्दों के हवाले कर दिया आये. जिससे अगर बहुत ज़रूरी न हो तो नयी पार्टी बनाने की झंझट से बचा जा सके.

महाराष्ट्र के बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी की ताजपोशी की तैयारी, शायद इसी योजना का हिस्सा है. नितिन गडकरी एक कुशाग्रबुद्धि इंसान हैं. पेशे से इंजीनियर नितिन गडकरी ने मुंबई वालों को बहुत ही राहत दी थी जब पीडब्ल्यूडी मंत्री के रूप में शहर में बहुत सारे काम किये थे. वे नागपुर के हैं और वर्तमान संघ प्रमुख के ख़ास बन्दे के रूप में उनकी पहचान होती है. उनके खिलाफ स्थापित सत्ता वालों का जो अभियान चल रहा है उसमें यह कहा जा रहा है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कोई काम नहीं किया है. जो लोग यह कुतर्क चला रहे हैं उनको  भी मालूम है कि यह बात चलने वाली नहीं है. मुंबई जैसे नगर में जहां दुनिया भर की गतिविधियाँ चलती रहती हैं, वहां नितिन गडकरी की इज्ज़त है, वे राज्य में मंत्री रह चुके हैं, उनके पीछे  आरएसएस का पूरा संगठन खडा है तो उनकी सफलता की संभावनाएं अपने आप बढ़ जाती हैं. और इस बात को तो हमेशा के लिए दफन कर दिया जाना चाहिए कि दिल्ली में ही राष्ट्रीय अनुभव होते हैं . मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद आदि शहरों में भी राष्ट्रीय अनुभव हो सकते हैं. 

बहरहाल अब लग रहा  है कि नितिन गडकरी ही बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जायेंगे और दिल्ली में रहने वाले नेताओं को एक बार फिर एक प्रादेशिक नेता के मातहत काम करने को मजबूर होना पड़ेगा. राजनाथ सिंह  की तैनाती के बाद भी दिल्ली वाली जमात को इसी दौर से गुज़रना पड़ा था. यह बात भी सच है कि दिल्ली वाले नेता नागपुर की मनमानी को आसानी से मानने वाले नहीं है. आडवाणी गुट की एक प्रमुख नेता सुषमा  स्वराज ने बयान दिया है कि आडवाणी पांच साल के लिए लोकसभा में बीजेपी के  नेता चुने गए हैं और वे अपना  कार्यकाल पूरा करेंगे. राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि इस बयान में बगावत की बू आ रही है. हो सकता है सच भी हो लेकिन हिंदुत्व की राजनीति में बड़े बड़े लोगों की बगावत को कुचल दिया गया है. सुषमा स्वराज की बीजेपी में रहते हुए संघ के खिलाफ झंडा बुलंद करने की वैसे भी हैसियत नहीं है क्योंकि वे मूल रूप से समाजवादी राजनीति के रास्ते सत्ता की राजनीति में आई हैं. जिस उम्र में लोग संघ की राजनीति में शामिल होते हैं उस दौर में वे अम्बाला में रह कर आरएसएस को एक फासिस्ट संगठन कहती थीं. बाद में जनता पार्टी बनने पर मंत्री बनीं और जब बीजेपी वाले जनता पार्टी से अलग हुए तो हिन्दुत्ववादी बनीं. इसलिए संघ की राजनीति में उनकी पोजीशन दूसरे स्तर की है.

शेष नारायण सिंहअब इस बात में कोई शक नहीं है कि हिन्दुत्व की राजनीति इस देश में करवट ले रही है और आने वाले कुछ महीनों में हिन्दुत्ववादी ताक़तें री-ग्रुप होने जा रही हैं.

लेखक शेष नारायण सिंह पिछले कई वर्षों से हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इतिहास के छात्र रहे शेष रेडियो, टीवी और प्रिंट सभी माध्यमों में काम कर चुके हैं। करीब तीन साल तक दैनिक जागरण समूह के मीडिया स्कूल में अध्यापन करने के बाद इन दिनों उर्दू दैनिक सहाफत के साथ एसोसिएट एडिटर के रूप में जुड़े हुए हैं। वे दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिंदी डेली अवाम-ए-हिंद के एडिटोरियल एडवाइजर भी हैं। शेष से संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं।

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