मौर्य टीवी के मुकेश कुमार का आलेख बिहार की छवि से जुड़े कुछ सवाल पढ़कर मुझे अपना यह आलेख मौजूं लगने लगा है। मैंने इसे काफी पहले लिखा था और बिहार-झारखंड के अखबारों में प्रकाशन के लिए भेज दिया था। छपने की कोई सूचना तो नहीं ही मिली, पारिश्रमिक का कोई चेक भी हाथ नहीं लगा। इसलिए यही मान रहा हूं कि अप्रकाशित है। चूंकि आलेख बिहार की छवि खराब करने में योगदान करने वाला है इसलिए किसी ब्लॉग पर प्रतिक्रिया स्वरूप पेस्ट करने के बाद मैंने इसका सदुपयोग करने का इरादा छोड़ दिया था। लेकिन मुकेश कुमार का आलेख पढ़ने के बाद पाठकों को यह बताने के लिए कि बिहार की छवि यूं ही खराब नहीं है, मुझे लगता है इसकी भी पठनीयता है। आलेख पुराना है इसलिए मुमकिन हैं स्थितियां बदल गई हों पर इससे अंदाजा तो लगता ही है।
मेरा मानना है कि बरसों से पिछड़े बिहार के लिए जो कोई भी थोड़ा बहुत कर सकता था उसने पहले तो अपने बच्चों को बाहर पढ़ाया और वे सब अब अनिवासी बिहारी हो गए हैं। इन अनिवासी बिहारियों के साथ उनके माता-पिता भी बिहार से बाहर सारी दुनिया में फैल गए हैं। इनमें से ज्यादातर को न पहले बिहार की परवाह थी और न अब है। जो लोग अब भी बिहार में रह रहे हैं वे या तो घोर मजबूरी में हैं या फिर आकंठ सुविधाओं में डूबे होने के कारण हैं और जाहिर है ऐसे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता और वे आम बिहारी नहीं हैं। कुछेक अपवाद हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता और इसीलिए कुछ काम हो रहा है। सामान्य नौकरी पेशा लोगों को मैं इस श्रेणी में नहीं रखता। पर बिहार में रह गए आम मजदूर जैसे, बिजली मिस्त्री, ड्राइवर, रिक्शा वाले आदि काम कम बातें बनाने में ज्यादा विश्वास करते हैं। ऐसे तमाम लोग जो सामान्य पढ़े लिखे हैं और छोटा-मोटा काम करके रोजी रोटी चला सकते हैं, सिर्फ सरकारी नौकरी के फेर में रहते हैं और इंतजार करते- कइयों की उम्र निकल गई। कुल मिलाकर, सुधरने या सुधर सकने वाले बिहारी बिहार में हैं ही नहीं। उनकी ओर से कहूं तो – काहे के लिए सुधरना।
वर्षों से बिहार से बाहर रह रहा बिहारी हूं, आना-जाना लगा रहता है। इस दौरान मैंने महसूस किया है कि काम करके पैसे लेने में विश्वास करने वाले वहां आमतौर पर नहीं मिलते। मोबाइल फोन शुरू होने से पहले की बात है और अब भी लगभग जारी है, कोई भी टैक्सी वाला हो, कहीं से भी लिया हो, जिस भी दर पर लिया हो, पटना में जहां कहीं रहूं, रात नौ बजते-बजते ड्राइवर के किसी करीबी की तबियत अचानक खराब हो जाने की खबर आ जाती है और उसका जाना जरूरी हो जाता है। पाठकों को शायद विश्वास न हो पर ऐसा कई बार हुआ है। मोबाइल आने के बाद से तो यह समस्या और बढ़ गई है।
यह तो हुई छोटे-मोटे काम करने वाले सामान्य जन मानस की। अब आते हैं बिहार सरकार पर। बिहार की हालत खराब है। नए रोजगार नहीं बन रहे, कल कारखाने नहीं खुल रहे, पुराने बंद हैं, निजी निवेश आने में दिक्कत (नीतीश सरकार द्वारा किए गए प्रयासों और उसके सकारात्मक परिणामों को छोड़कर) है। ऐसे में पर्यटन कम खर्च में रोजगार और राज्य के लोगों की कमाई बढ़ाने का अच्छा साधन हो सकता है। राजस्थान, हरियाणा और गोवा इसके उदाहरण हैं। राजस्थान और गोवा में तो घूमने-देखने लायक चीजें हैं भी लेकिन हरियाणा भी पर्यटन से अच्छी कमाई कर रहा है। पर बिहार अनुकूल स्थितियां होने के बावजूद कुछ नहीं कर रहा है। बिहार में बाहर रहने वाले लोग भिन्न कारणों से अपने बच्चों की शादी बिहार जाकर करना पसंद करते हैं। यह वहां के लोगों के लिए कमाई का अच्छा जरिया है पर बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम इसका लाभ उठाने की बजाय ऐसे लोगों का उत्साह चूर करने में ही लगा हुआ है।
बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम का होटल कौटिल्य भिन्न कारणों से दूसरे शहरों से पटना जाकर शादी करने वालों में लोकप्रिय है। यहां बारात ठहराने से लेकर शादी के मंडप आदि की सुविधा मुहैया कराई जाती है और लोग-बाग इसे शादी के लिए बुक करते रहे हैं। यह सब सालों से चला आ रहा है और मांग बढ़ने के साथ-साथ इसका किराया भी बढ़ता जा रहा है पर सुविधाएं न के बराबर हैं। हालत यही रही तो इसकी बदनामी बढ़ती जाएगी और बिहार में पर्यटकों के लिए उपलब्ध सुविधा का अंदाजा इसी से लगाने वाले लोग बिहार घूमने जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे।
नवंबर 2008 में यहां दो शादियों में शामिल होने का मौका मिला। एक में मैं बाराती था और दूसरे में सराती। पहले में सिर्फ बारात यहां ठहराई गई थी और दूसरे में इसके विस्तार वातायन में लड़की की शादी हुई और कौटिल्य में सरातियों को ठहराया गया। पहली दफा दिल्ली से हम बाराती सुबह करीब छह बजे होटल कौटिल्य पहुंचे तो इस सरकारी होटल की दुर्दशा देखकर दंग रह गए। सुविधा के नाम पर यहां कुछ भी नहीं था। हमारा इरादा दो-तीन घंटे सोकर शादी के लिए तैयार हो जाने का था पर नौ बजे तक बाथरूम साफ नहीं हो पाया। एक कमरे का तो फ्लश काम नहीं कर रहा था पर उसे भी बुक कर दिया गया था। किसी भी कमरे के गीजर प्वाइंट में बिजली नहीं थी।
बाथरूम की सफाई और गीजर ऑन कराने की हमारी मांग पर कोई कार्रवाई नहीं हुई और जब हममें से ज्यादातर लोगों की गर्म पानी की आवश्यकता खत्म हो गई तो थोड़ी देर गीजर चले और शाम में फिर बंद हो गए। कर्मचारियों के रुख का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाथरूम साफ कराने के लिए कहने पर एक ने पूछा, ढेरे गंदा है का। कमरे में साबुन, तौलिया कुछ भी नहीं मिला। चौथी मंजिल के हमारे कमरों के इंटरकॉम काम नहीं कर रहे थे और शिकायत करने पर भी ये हमारे रहने तक ठीक नहीं हो पाए। दूसरी बार गया तब भी काम नहीं कर रहे थे।
होटल कौटिल्य के कर्मचारी / अधिकारी शायद यह भांप चुके थे कि हम लड़की वालों से कौटिल्य की सेवा के संबंध में शिकायत करके लड़की वालों पर बोझ नहीं बनना चाहते थे (इसका सीधा मतलब होता हमें किसी दूसरे अच्छे या महंगे होटल में ठहराया जाता)। इसका लाभ उठाते हुए एक सज्जन ने नाराजगी जताते हुए कहा कि पहले तो लोग कहते हैं कि इज्जत बचा लीजिए, लड़की की शादी है कहकर कमरा बुक करा लेते हैं और जब हमने मरम्मत के इंतजार में बंद कर दिए गए कमरे बुक कर दिए तो आप लोग हमपर नाराज हो रहे हैं। होटल के एक कर्मचारी की इस बात पर यकीन नहीं करने का कोई कारण नहीं था क्योंकि कमरे वाकई रहने लायक नहीं थे और पैसे देकर शायद ही कोई इनमें रहे। होटल कर्मचारी की बात सुनकर कमरा बुक कराने वाले और ठहरने का इंतजाम होने का दावा करके बारात ले जाने वाले लोगों पर गुस्सा आना स्वाभाविक था। पर परंपरागत किस्म के बाराती नहीं होने के कारण हम मन मसोस कर रह गए।
होटल कर्मचारी की चाल का पता अगली शादी में लगा। हालांकि दूसरी बार जब मुझे पता चला कि सरातियों के रहने का प्रबंध होटल कौटिल्य के उन्हीं कमरों में है तो मैंने जेब से पैसे खर्च कर दूसरे होटल में ठहरने में ही भलाई समझी। हालांकि यहां ठहरे दूसरे लोगों से मिलने कई बार जाना पड़ा और सुविधाएं यहां इस बार भी नहीं थीं। हालांकि इस दफा पैसे देने वाला भी वहीं रह रहा था। ऐसे में यह बात साफ हो गई कि पिछली बार होटल कर्मचारी ने कमरा बुक कर अहसान करने का नाटक अपनी खाल (या नौकरी बचाने) के लिए किया था। पता चला कि घटिया और सुविधाहीन कमरे खूब बुक किए जा रहे हैं तीन-चार महीने पहले ही बुक कर दिए गए थे। लगन (शादियों के मौसम) के दिनों की बुकिंग दूने किराए पर की गई थी सो अलग।
इसके बावजूद होटल कौटिल्य के कर्ता-धर्ता कमरों में बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने की भी जरूरत नहीं समझते। होटल में सुविधाएं नदारद हैं। कमरे में पर्दे नहीं हैं, खराब हैं या अपर्याप्त हैं, खिड़कियों के शीशे टूटे हैं, मच्छरों की भरमार है (इनसे मुकाबले के लिए एक मच्छर अगरबत्ती जरूर मिली थी) पर एक कमरे का ट्यूब खराब था और आग्रह करने के बावजूद न तो ट्यूब बदली गई और न बल्ब लगाया गया। दीवारों पर सीलन, घिस और गिर चुके रंग – कुल मिलाकर देखने लायक हैं ये कमरे जिनसे बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम पैसे कमाता जा रहा है। कर्मचारियों की कर्तव्य निष्ठा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि रेस्त्रां में एक ही कमरे से दुबारा ऑर्डर देने पर कहा गया कि जो भी मंगाना है एक साथ मंगा लिया जाए !
होटल कौटिल्य की दशा-दिशा का चित्रण करने के बाद यह बताना भी वाजिब होगा कि हमारे पूरे प्रवास के दौरान किसी ने भी बिहार में पर्यटन को बेचने की कोई कोशिश नहीं की। हमें आस-पास की जगहों के बारे में बताने या उन जगहों तक जाने के लिए बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली सुविधाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई जबकि दिल्ली से परिवार के साथ पहली बार पटना गए कई लोग आस-पास की जगहें घूमने के इच्छुक थे। ऐसी हालत में बिहार की सकारात्मक छवि बनना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है।
बिहार में जो कुछ सकारात्मक हो रहा है उसकी सूचना बाहर वालों को है ही। मीडिया और राजनीतिज्ञों के पूर्वग्रह के बावजूद नीतिश के मुख्यमंत्री बनने के बाद पटना में रात में निकलना संभव हुआ है वरना पहले रात में निकलना भी संभव नहीं था। बिजली, सड़क और शहर की साफ-सफाई के संबंध में जो कुछ अच्छा हुआ है वह छपता ही है और वहां से आने वाले लोग बताते भी हैं पर जो छवि वर्षों में बिगड़ी है उसे सुधरने में समय तो लगेगा ही। दिल्ली में मेट्रो से लेकर मोहल्ले का निरूलाज और मैकडोनल्ड्स भी विकलांगों, बुजुर्गों का ख्याल रखता है उनके लिए रैम्प है। व्हीलचेयर से जाने का बंदोबस्त है पर पटना में मौर्या और चाणक्य जैसे होटलों में भी ऐसा नहीं है। यह सब कोई बड़ी चीज तो है नहीं, कानून के डंडे से ही हो यह भी जरूरी नहीं है। पर इससे सोच का पता चलता है। मुझे तो लगता है, सब चलता है वाले अंदाज में चल रहा है पूरा बिहार।
लेखक संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं.