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राजनीति-सरकार

पोल खुलने पर बुरे फंसे चौधरी अजित सिंह

चीनी मिल के शीरे में भी किसान को हिस्सा दो : अजित सिंह बुरे फंस गए हैं. दिल्ली में गन्ना किसानों के बहुत ही बड़े जमावड़े के बाद उनकी राजनीति में कुछ चमक आनी शुरू हुई थी लेकिन अब वह धुन्धलाना शुरू हो गयी है. दिल्ली में आकर किसानों ने सरकार से वह पूंजीपति परस्त गन्ना अध्यादेश तो वापस करवा दिया था जिसे पता नहीं कितनी रिश्वत देकर मिल मालिकों ने बनवाया था. लेकिन गन्ने की प्रति कुंतल कीमत के सवाल पर अजित सिंह गड़बड़ा गए. किसानों की मांग तो २८० रूपये प्रति कुंतल की थी लेकिन सब को पता था कि वह होने वाला नहीं है लेकिन यह उम्मीद सबको थी कि कृषि मंत्री शरद पवार के राज्य के बराबर तो यूपी वालों को मिल ही जाएगा या पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के बराबर तो मानकर चल रहे थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.  २०० से भी कम मिल मालिकों के प्रस्ताव को चौधरी साहब ने मान लिया. अजित सिंह ने हुक्म जारी कर दिया कि गन्ना देना शुरू कर दिया जाए.

चीनी मिल के शीरे में भी किसान को हिस्सा दो : अजित सिंह बुरे फंस गए हैं. दिल्ली में गन्ना किसानों के बहुत ही बड़े जमावड़े के बाद उनकी राजनीति में कुछ चमक आनी शुरू हुई थी लेकिन अब वह धुन्धलाना शुरू हो गयी है. दिल्ली में आकर किसानों ने सरकार से वह पूंजीपति परस्त गन्ना अध्यादेश तो वापस करवा दिया था जिसे पता नहीं कितनी रिश्वत देकर मिल मालिकों ने बनवाया था. लेकिन गन्ने की प्रति कुंतल कीमत के सवाल पर अजित सिंह गड़बड़ा गए. किसानों की मांग तो २८० रूपये प्रति कुंतल की थी लेकिन सब को पता था कि वह होने वाला नहीं है लेकिन यह उम्मीद सबको थी कि कृषि मंत्री शरद पवार के राज्य के बराबर तो यूपी वालों को मिल ही जाएगा या पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के बराबर तो मानकर चल रहे थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.  २०० से भी कम मिल मालिकों के प्रस्ताव को चौधरी साहब ने मान लिया. अजित सिंह ने हुक्म जारी कर दिया कि गन्ना देना शुरू कर दिया जाए.

लेकिन किसानों ने उनकी बात नहीं मानी. इस बीच खबर आई कि किसी चीनी मिल में अजित सिंह का कुछ स्वार्थ है. बस फिर क्या था, गन्ना किसानों में गुस्से की लहर दौड़ गयी. फिर किसानों की एक पंचायत बुलाई गयी जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़ी संख्या में किसान जमा हुए. अजित सिंह खुद तो इस पंचायत में नहीं गए लेकिन अपने ख़ास मित्र और विधायक सत्येन्द्र सोलंकी को भेज दिया. सोलंकी पारदर्शी राजनीति में विश्वास करते हैं और पार्टी के बड़े नेताओं के आशीर्वाद के बिना भी राजनीति में सफल हैं और जनता की मदद से चुनाव जीतते हैं. गन्ना किसानों की पंचायत में जो बातें सामने आयीं वे किसी भी किसान के आत्म गौरव को झकझोर सकती थीं. बहरहाल अपने समर्थकों को समझाने बुझाने में सोलंकी सफल रहे लेकिन पंचायत की मंशा से अब कोई भी बड़ा नेता अनभिज्ञ नहीं है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता अब जान गयी है कि दिल्ली में किसानों की ताक़त की वजह से सेठों के समर्थन वाला अध्यादेश वापस लिया गया था, उसमें उन नेताओं का कोई योगदान नहीं था जो वोटों की लालच में जंतर मंतर की भीड़ में आकर शामिल हो गए थे. अजित सिंह की राजनीति की मुश्किल यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के ऐसे कई नेता है जिनका क़द उनसे बड़ा है. वे सभी लोग चौधरी चरण सिंह का पुत्र होने की वजह से चौधरी अजित सिंह की इज्ज़त करते हैं. इस सारे खेल में अजित सिंह से उम्मीद की जाती है कि वे स्वर्गीय चौधरी साहेब जितने बड़े तो नहीं बन पायेंगे लेकिन कोशिश तो करते रहेंगे. उस महान किसान नेता ने किसानों के हित के लिए हमेशा संघर्ष किया था और अपने बड़े से बड़े निजी स्वार्थ को किसानों के आत्म सम्मान की लड़ाई में आड़े नहीं आने दिया था. लेकिन जब अजित सिंह किसी मिल मालिक के लाभ के लिए किसानों की बात को हल्का करने की कोशिश करेंगे तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी.

संतोष की बात यह है कि मिल मालिकों की समझ में आ गया है कि अजित सिंह के फरमान का कोई मतलब नहीं है और उन्होंने किसानों से सीधी बात शुरू कर दी है. कुछ मिलों ने तो २२० रूपये के रेट पर गन्ना खरीदना शुरू भी कर दिया है. राजनीति में किसी नेता की विश्वस्नीयता पर सवाल उठना बहुत बुरा होता है. आज अजित सिंह उसी दौर से गुज़र रहे हैं. अगर उन्होंने फ़ौरन से भी पहले अपनी साख को फिर से न संभाल लिया तो इतिहास के गर्त में ऐसे पंहुच जायेगें जैसे कहीं कभी थे ही नहीं.

गन्ना किसानों की राजनीति में इस तरह से पोल खुलने के बाद अजित सिंह क्या करेंगें, यह तो वे ही जानें लेकिन सूचना क्रान्ति की वजह से मीडिया में आये बदलाव के कारण डर के मारे ही सही, राजनेता ज्यादा धंध फंद से बचने की कोशिश कर रहे हैं. पहले जहां नेता लोग रुपये पैसे लेकर हजम करने में कोई संकोच नहीं करते थे, अब बीस बार सोचने लगे हैं. राजनीतिक शिक्षा और सूचना की उपलब्धता के चलते अब जनता भी पहले से जादा चौकन्ना हो गयी है. अब उसे मालूम है कि गन्ना किसान को उसकी प्रति कुंतल कीमत देने के बाद मिल मालिक अपने फायदे की बात शुरू करता है. वह लेवी की चीनी के नाम पर सरकार से सुविधा लेता है और इस तरह से बात की जाती है जैसे बस सब कुछ उसी चीनी तक सीमित रहता है.

हर चीनी मिल में बहुत बड़ी मात्र में शीरा निकलता है जिससे अल्कोहल जैसी महंगी चीज़ें बनती हैं जिससे मिल मालिक को असली फायदा होता है जबकि गन्ने की खेती और चीनी मिल मालिक के बीच बातचीत केवल चीनी की होती है. जागरूकता का तकाज़ा है कि चीनी के साथ साथ शीरे को भी मिल और गन्ना किसान की कीमतों के अध्ययन में शामिल किया जाए. शेष नारायण सिंहलेकिन यह तभी संभव होगा जब गन्ना किसानों का भी एक ऐसा संगठन बने जो मिल मालिकों से सारे मोलभाव को किसानों के हित में लाने की कोशिश करे क्योंकि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं पर अब किसानों के हित की बात को सही तरीके से प्रस्तुत करने के मामले में विश्वास नहीं किया जा सकता.

लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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