बातों बातों में
पता नहीं, हम जो हैं, उसे स्वीकारते क्यों नहीं हैं? जैसे, मान लीजिए मैं एक चोर हूं, लेकिर मैं यह कभी स्वीकार नहीं करूंगा...
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पता नहीं, हम जो हैं, उसे स्वीकारते क्यों नहीं हैं? जैसे, मान लीजिए मैं एक चोर हूं, लेकिर मैं यह कभी स्वीकार नहीं करूंगा...
सेवा में, श्री नीलाभ मिश्र, संपादक 'आउटलुक' नई दिल्ली 110029 श्रद्धेय! 'आउटलुक' के फरवरी 2010 के अंक में मनीषा भल्ला की रिपोर्ट एकांगी है....
इन दिनों 'मीडिया' को संयम बरतने की हिदायतें खूब दी जा रही हैं। मीडिया को हद में रहने की सलाह देने वालों की कमी...