सुना है कि एसपीजी (प्रधानमंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री एवं उनके परिवार की सुरक्षा में तैनात हाई-प्रोफाइल सुरक्षा दस्ता) और ब्लैक-कैट कमांडो के घेरे में रहने वालों से, आम-आदमी बड़ा खौफ़ खाता है। खौफ़ क्या भीगी बिल्ली बन जाता है। लेकिन अरविन्द केजरीवाल नाम के शख्स को, आये-दिन, कोई कभी थप्पड़ तो कभी घूंसा मार देता है। आम आदमी इस कदर उस से उम्मीद लगा बैठा था, मानो अरविन्द नाम के आदमी ने उनकी उम्मीदों पे पानी फेर दिया। पानी किस तरह फ़िरा, इस पर बात करने के लिए कोई भी तैयार नहीं। कोई भी ठोस तर्क़ नहीं दे पा रहा कि अरविन्द का गुनाह क्या है?
मैं खुद भी अरविन्द की नीतियों से पूर्ण सहमत नहीं हूँ और न ही किसी भी नेता से सभी कोई सहमत हो सकता है। मगर, इतना ज़रूर है कि अरविन्द ने अपनी पहचान एक दिलेर और नंगे (जो किसी भी अवसरवादी समझौते के ख़िलाफ़ हो) नेता के रूप में ज़रूर बना ली थी और आज भी एक तबका इस बात से सहमत है। उधर कांग्रेस की नाकामियों की उपज नरेंद्र मोदी की रैलियों का खर्च ही अरबों में जा पहुंचा है मगर नरेंद्र मोदी के अंधभक्त समर्थक कभी नहीं बताते कि ये अरबों रुपये किसी गरीब के घर से आ रहे हैं या गरीबों का पसीना निचोड़ने वाले तथाकथित उद्योगपतियों की पॉकेट से। गुजरात में आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या का मामला हो या गरीब आदमी की अपेक्षा उद्योगपतियों की आमदनी में बढ़ोतरी का या फिर किसानों की आत्महत्या का। ये सारे मामले दबा दिए गए।
आम-आदमी से जुड़े इन संवेदनशील मुद्दों से आम आदमी को खुद इत्तेफ़ाक़ नहीं। ना ही आम आदमी इन मुद्दों पर नरेंद्र मोदी से पूछने का साहस कर पा रहा है। नरेंद्र मोदी को छींक भी आ गयी तो समझो मीडिया की ब्रेकिंग खबर हो गयी और मोदी-भक्त परेशान हो जाते हैं। थप्पड़ मारने का मामला तो दूर की बात है। अरे, ताक़त दिखाना है तो ताक़तवर के ख़िलाफ़ दिखाओ, निहत्थे के ख़िलाफ़ थप्पड़ तो किन्नर भी नहीं लगाने की सोचते। केजरीवाल को बदनाम करने के लिए संकल्पित, दीपक चौरसिया जैसे कुछ "बदनाम" पत्रकारों व् कुटिल मीडिया मैनेजमेंट के भरोसे नरेंद्र मोदी ने अपना जलवा ज़रूर बना लिया है मगर विज्ञापन और पत्रकारिता की दुनिया से जुड़े लोगों को खूब मालूम है कि केजरीवाल को बदनाम करने के लिए बड़ी पार्टियों (विशेषकर भाजपा) ने किस कदर पैसा बहाया है।
अब जब बात काली पत्रकारिता और विज्ञापन से भी नहीं बनी तो थप्पड़ लगवाने का नया तरीक़ा ईज़ाद कर एक निहत्थे का हौसला पस्त करने की नीति अपनाई जा रही है। आज जो लोग भाजपा को कॉंग्रेस के ख़िलाफ़ एक बेहतर विकल्प मानते हैं, उन्हें अंदर का सच मालूम हो जाने के बाद लगेगा कि खरीदे हुए पत्रकार और विज्ञापन की दुनिया ने आम आदमी को किस क़दर गुमराह करने की कोशिश की है। लोकतंत्र में थप्पड़ और लात-घूंसों का हिमायती कोई नहीं होता, मगर भाजपा के कुछ नेताओं के बयान सुन लेंगें तो लगेगा कि अरविन्द केजरीवाल को थप्पड़ मारने की घटना को इस पार्टी के नेता महज़ एक लाइन में सलटा दे रहे हैं और थप्पड़ मारने वाले की कूटनीतिक हौसलाफ़ज़ाई खूब कर रहे हैं। भाजपा और कांग्रेस के नेताओं को लगता है कि हज़ारों करोड़ में टीवी चैनल्स-प्रिंट मीडिया या विज्ञापन जगत के "महानुभावों" के ज़मीर को खरीद कर ही सत्ता पर क़ाबिज़ हुआ जा सकता है।
ये सच नहीं है। जम्हूरियत में आम आदमी को बरगलाया जा सकता है मगर लम्बे समय तक उसकी रहनुमाई नहीं की जा सकती। मोदी ये बात अक्सर कॉंग्रेस के खिलाफ बोलते हैं। मगर खुद भाजपा कांग्रेस की राह पर है। कांग्रेस या भाजपा में आज उसी का बोलबाला है, जो ताक़तवर है, पैसे वाला है और दबंग है या फिर ग्लैमर की दुनिया का जाना-पहचाना चेहरा है। आम आदमी को इस पार्टी का टिकट मिलना दूर की कौड़ी है। ऐसे में आम आदमी, केजरीवाल को थप्पड़ मार कर बहुत जागरूकता का परिचय नहीं दे रहा और ये थप्पड़ मारने वाला, गर, आम आदमी नहीं बल्कि भाड़े का टट्टू है तो ऐसे में सवाल ये उठता है कि अरविन्द केजरीवाल जैसे "असहाय" नेता से किसे खौफ़ है? सालों की बर्बादी को महज़ 6 महीने में दुरूस्त करने का दावा तो राष्ट्रीय जनाधार वाली पार्टियों के मोदी और राहुल भी नहीं कर सकते, फिर, केजरीवाल से ऐसी उम्मीद क्यों? और अगर नाउम्मीदी हुई तो किस बात पर?
केजरीवाल ने ऐसा कौन गुनाह किया है कि उन्हें थप्पड़-घूंसे-गालियां मिल रही है? लोकतंत्र में जनता-जनार्दन, माई-बाप होती है पर माँ-बाप अपने बच्चों के साथ दो-आँख नहीं करते। जो योग्य होता है उसे अपना वारिस घोषित करते हैं। ऐसे में सवाल ये उठता है कि माई-बाप बनी जनता-जनार्दन को केजरीवाल में क्या अयोग्यता नज़र आ गयी? किसी बच्चे को परीक्षा के प्रश्नों का जवाब देने के लिए 3 घंटे दीजिये और किसी को 30 मिनट। और 30 मिनट में 15 नंबर लाने वाले को अयोग्य घोषित कर दें और 3 घंटे वाले को 50 नंबर लाने की एवज़ में शाबाशी दें। ये कहाँ का न्याय है? ये कौन सी सोच है या समझ है, जो आम आदमी अपनी समझदारी के सबूत के रूप में पेश कर रहा है? ना वक़्त-ना समर्थन, सिर्फ आँख-मूँद कर अंध-भक्ति? रईसों के हवाई महल में उड़ कर, गरीबों के लिए ज़मीनी वादे करने वालों को चांदी का छप्पर और "आम-आदमी" को थप्पड़। चोलबे ना।
नीरज… 'लीक से हटकर।' संपर्कः [email protected]