लिक्खाड़ों और कट-पेस्टरों के लिए कभी हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक, कवि-कथाकार राजेन्द्र कुमार ने ये लाइनें लिखी थीं- हम जो लिखते हैं, दवातों को लहू देते हैं/कौन कहता है लिखने को बस कलम काफी है… कट-पेस्टरों के लिए लेखन हंसी-मजाक हो सकता है लेकिन गंभीरता से लिखने वालों के लिए यह किसी तपस्या या अपनी जान निकाल देने जैसा होता है। ऐसे लोगों की जा कलम चलती है तो हजारों-लाखों को प्रेरणा देती है, उनकी जिंदगियां बदलती है और एक इतिहास भी रचती है।
ऐसे ही एक लेखक थे कमलेश्वर। हिन्दी साहित्य के पुरोधा व कालजयी कृति ‘कितने पाकिस्तान’ लिखने वाले कमलेश्वर ने एक बार दैनिक हिन्दुस्तान में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने मंदिरों-मठों के पुजारियों-मठाधीशों से अपील की कि अगर वे दान एक बड़ा हिस्सा जनहित में दान कर दें तो इस देश की बहुत-सी समस्याएं हल हो जाएं। इस लेख का असर यह हुआ कि दक्षिण भारत के एक पुजारी ने वास्तव में बड़ी संपत्ति दान कर दी। मीडिया में इसकी खूब चर्चा भी हुई। कमलेश्वर अब हमारे बीच नहीं रहे लेकिन हाल ही में युवा पत्रकार रवि प्रकाश मौर्य के एक लेख ने इस कारनामे को फिर से दुहराया है।
जनसंदेश टाइम्स इलाहाबाद में वरिष्ठ पद कार्यरत रवि प्रकाश मौर्य ने कुछ दिन पहले जनसंदेश टाइम्स के सम्पादकीय पेज पर एक लेख लिखा था- ‘दाह संस्कार बनाम देहदान का पुण्य’। लेख छपने के बाद ही लोगों में इसका असर दिखने लगा और लोग देहदान का संकल्प लेने लगे। स्थिति यहां तक पहुंच गई कि देहदान के लिए संकल्प पत्र भरवाने वाली संस्था ‘सद्धम्म देहदान अभियान’ के पास फार्म तक कम पड़ गए। जानकारी के अनुसार अब तक 30 से अधिक लोग देहदान का संकल्प ले चुके हैं। रवि प्रकाश मौर्य इससे पूर्व दैनिक जागरण में कार्यरत थे और उस समय चर्चा में आ गए थे जब मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिश के खिलाफ जागरण द्वारा चलाए गए हस्ताक्षर अभियान का खुल्लमखुल्ला विरोध किया। इससे पूर्व ‘रवि’ संभव पत्रिका, संग्रह टाइम्स व शब्दार्थ मैगजीन का सम्पादन कर चुके हैं। 2003 में उनकी किताब ‘सप्त शिखरों से साक्षात्कार’ भी प्रकाशित हो चुकी है। नीचे पढ़े जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित रवि प्रकाश मौर्य का लेख। रवि से संपर्क 8953400308 के जरिए किया जा सकता है।
दाह संस्कार बनाम देहदान का पुण्य
देश में किसी हादसे, बीमारी या फिर स्वाभाविक कारण से हर रोज न जाने कितने लोग मरते हैं। इन सा घटनाओं में मृतक के परिजनों-करीबियों में कम-ज्यादा या बहुत अधिक शोक व्याप्त होना भी एक सामान्य बात है लेकिन कुछ दिन पूर्व घटी एक घटना ने मेरे मन को झकझोर दिया। आस्था ग्रुप एवं फ्रेस्को के सीएमडी आरआर मौर्य के युवा पुत्र संजय मौर्य (29) की मुंबई में मौत हो गई। आरआर मौर्य ने अपने पूरे परिवार के साथ चिकित्सीय अनुसंधान के लिए देहदान करने का संकल्प लिया था। ऐसे समय में जब जान से प्यारे बेटे की मौत के बाद उनके दुख का पारावार नहीं था, वह अपने बेटे की देह को दान करने के बारे में सोच रहे थे ताकि चिकित्सा जगत की तरक्की में उनके बेटे की मृत देह काम आ सके। जिंदगी के सबसे भारी दुख के बीच उनका ऐसा सोचना उन्हें विशेष व्यक्ति बनाता है। इसके बाद सधम्म देहदान अभियान के तहत संजय मौर्य की मृत देह पूरे रीति-रिवाज के साथ इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज को दान कर दी गई। इससे पूर्व इसी तरह कॉलेज को हरिहर प्रसाद कुशवाहा की देह दान की जा चुकी थी। वह इस शहर के पहले देहदानी थे। इसके बाद बौद्ध कम्यून (इंटरनेशनल) के प्रयास से एक महीने के अंदर करीब 200 लोगों ने देहदान का संकल्प ले लिया। यह शायद पूरे देश में एक रिकॉर्ड होगा। इस घटना ने मुझे यह सोचने के लिए मजबूर किया अब समय आ गया है कि हमें दाह संस्कार के नफा-नुकसान और देहदान के पुण्य के बारे में बात करनी चाहिए।
देखा जाये तो देहदान कोई नई बात नहीं है। यह पुरातन काल से है। विश्व का प्रथम देहदानी महर्षि दधीचि को माना जाता है जिन्होंने मानव कल्याण के लिए अपनी देह दान कर दी थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवासुर संग्राम में असुरों के राजा वृत्रासुर ने राजा इंद्र को पराजित कर जा उन्हें स्वर्ग से निष्कासित कर दिया तो भगवान विष्णु के बताए रास्ते के अनुसार देवताओं ने दधीचि से देहदान और अस्थिदान की अभ्यर्थना की। दधीचि ने देवताओं के राजा उस इंद्र को भी अपनी देह दान में दे दी, जिसने एक बार उनकी तपस्या की शक्ति से भयभीत होकर उनका गला तक काट दिया था। हालांकि अश्विनी कुमारों की चतुराई से वह पुन: जीवित हो उठे थे। यह कथा यह बताने के लिए पर्याप्त है कि देहदान कितना पुण्य कार्य है। वर्तमान में देहदान का महत्व कम नहीं हुआ है, बल्कि और भी बढ़ा है क्योंकि इसके जरिए देश को और तरक्की की राह पर ले जाया जा सकता है। दधीचि के बाद 1932 में चिन्तक जेरेम बोन्हॉम ने चिकित्सा विज्ञान की उन्नति के लिए मरणोपरांत अपनी देह दान कर इस परंपरा को फिर से जीवित किया। भारत में मरणोपरांत देहदान करने वाले प्रथम व्यक्ति थे महाराष्ट्र के पूना में शिक्षक पाण्डुरंग आप्टे।
वर्तमान देखा जाए तो ब्रिटिशवासी देहदान का सासे अधिक महत्व समझते हैं। इंग्लैंड में हर वर्ष 800 से अधिक लोग मेडिकल शोध के लिए देहदान करते हैं। धीरे-धीरे यह परंपरा आ हमारे यहां भी आगे बढ़ रही है। देश के तमाम हिस्सों से जब-तब यह खबरें आती रहती हैं कि अमुक ने अपनी देह या नेत्र दान कर दी। कुछ उसमें प्रसिद्ध शख्सियतें होती हैं तो कुछ बिल्कुल आम व्यक्ति। पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री व माकपा नेता ज्योति बसु ने भी मौत से पहले अपनी देहदान का संकल्प लिया था। उनकी इच्छा के अनुरूप उनका शव सरकारी एसएसकेएम अस्पताल को सौंप दिया गया। करीब चार माह पूर्व नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज में ऑफिसर रह चुकी स्वतंत्रता सेनानी कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने भी कानपुर मेडिकल कॉलेज को अपनी देह व नेत्र दान कर दिए। स्त्री अधिकारों की चैम्पियन व जनता की डॉक्टर कही जाने वाली कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी का यह कदम अन्य लोगों के लिए एक प्रेरणा ही है। इसी तरह ‘रामायण’ धारावाहिक में लक्ष्मण का रोल अदा करने वाले अभिनेता सुनील लहरी के पिता एवं भोपाल के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. शिखरचन्द्र लहरी ने भी चिकित्सा जगत के लिए अपनी देह दान कर दी। उन्होंने दस साल पूर्व देहदान का संकल्प लिया था और उनके निधन के बाद उनकी इच्छा सुनील लहरी सहित परिजनों ने पूरी कर दी।
अब बात करते हैं दाह संस्कार व उनके नफा-नुकसान के बारे में। हर देश और संस्कृति में अलग-अलग तरीके से दाह संस्कार किया जाता है। कुछ धर्मों में मानव की मृत्यु के बाद शव को दफनाया जाता है तो कुछ धर्मों में शव को जलाने की परंपरा है। इनमें से दाह संस्कार के कई नियम पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। उदाहरणस्वरूप, शव को जलाने पर प्रतिदिन लाखों क्विंटल लकड़ी नष्ट हो जाती है। साथ ही घी, हवन सामग्री भी इसमें स्वाहा हो जाती है। आधुनिक तरीका विद्युत शवदाह गृह है जहां बहुत अधिक तापक्रम में शवों को खाक कर दिया जाता है जाकि कुछ लोग शव को सीधे गंगा में प्रवाहित कर देते हैं। शवदाह गृहों की चिमनी से निकलने वाला बदबूदार धुआं आसपास के कई कस्बों का जीना तक मुश्किल कर देता है। यही नहीं, इसके बाद ‘पवित्र राख’ को पवित्र स्थलों या नदियों में छोड़ने की भी परंपरा है जिससे नदियां प्रदूषित होती हैं। इस प्रक्रिया में कार्बन डाई आक्साइड की बड़ी मात्रा नि:सृत होती है जो प्रदूषण का एक बड़ा कारक है।
इसके उलट कुछ धर्मों के लोग मानव हित के लिहाज से शवों का निपटारा दूसरे तरीके से करते हैं। शव को दफनाने से जमीन की उत्पादन शक्ति बढ़ती है। इन दिनों अमेरिका में शवों के द्रवीय निस्तारण का तरीका खूब चर्चित है। इसके अंतर्गत पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड द्रव में हल्के तापक्रम पर शव को द्रव और दबाव के सहारे विघटन के लिए छोड़ दिया जाता है। शव द्रव में पूरी तरह घुल जाता है और पर्यावरण के लिए हानिकारक भी नहीं रहता। बाद में इसका निस्तारण निरापद तरीके से कर दिया जाता है। अमेरिका में हरित शव निस्तारण की पद्धति भी चलन में है, जिसमें शव को जैव विघटनीय डब्बों में जमीन के अन्दर पूरी तरह कुदरती अवयवों में तब्दील होने के लिए छोड़ दिया जाता है। प्रोमेसा नाम की स्वीडिश कम्पनी ने फ्रीज ड्राइंग विधि ईजाद की है जिसमें लिक्विड नाइट्रोजन में शरीर से द्रव का शोषण कर लिया जाता है और शरीर पाउडर में तदील हो जाता है। फिर इसे जमीन के भीतर गहरे दबा दिया जाता है। ऐसे स्थानों पर स्मृति-वृक्ष उगाया जा सकता है। दाह संस्कार के इन तमाम तरीकों के बाद आप स्वयं सोचिए कि कौन-सा रास्ता अपनाना ज्यादा बेहतर है- लोक कल्याण के लिए देहदान कर पुण्य कमाना या सिर्फ शव के लिए निपटारे के लिए सोचना। गंभीरता से सोचें तो देहदान एक मायने में स्मृति वृक्ष से श्रेष्ठ तरीका है। आइये हम सब मरने से पूर्व इस पर एक बार अवश्य विचार करें क्योंकि एक दिन सबको मरना ही है।