सदियों से ऊंच-नीच की घृणा पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में बदलाव का चक्र पूर्ण हुए बिना देश का सुचारु तरीके से आधुनिक लोकतांत्रिक प्रशासन की ओर अग्रसर होना संभव नहीं है। पिछले कई चुनाव से सामाजिक न्याय का एजेण्डा सर्वोपरि बना हुआ है। हालांकि जातिवादी वर्चस्व के दिन फिर लौटने का दिवास्वप्न देखने वाले मोदी को लेकर कुछ और ही राग अलाप रहे थे। उग्र हिन्दुत्व के संवाहक के रूप में मोदी की छवि को देखने की वजह से उन्हें यह मुगालता था कि इससे उनके दो मकसद हल होंगे। एक तो ऊंच नीच से मुक्त और भाईचारे पर आधारित होने के कारण पूरी दुनिया में बढ़त बनाने वाले इस्लाम को मोदी हिन्दुस्तान की सरजमीं पर शिकस्त देकर सैकड़ों वर्ष पहले उनसे परास्त होकर अपमानित हुए पूर्वजों का बदला पूरा होगा। दूसरे शोषित समाज में बराबरी के लिये जो कसमसाहट पैदा हुई है उसे भी कालीन के नीचे दबाया जा सकेगा लेकिन प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित होने के बाद मोदी ने अपनी पुरानी केंचुल धीरे-धीरे उतार फेंकी और शोषित समाज में नव अंकुरित स्वाभिमान को आक्रामक चेतना में बदलते हुए नये हिन्दुस्तान की जरूरत के मुताबिक अपने को ढालना शुरू कर दिया। अम्बेडकर जयंती पर मोदी का भाषण इस कवायद का चरमोत्कर्ष था जिसके बाद से यथास्थितिवादियों में खलबली मची हुई है। वे हतप्रभ हैं और समझ नहीं पा रहे कि जिस वर्ण व्यवस्था के पुनरुत्थान के लिये उन्होंने मोदी का कंधा इस्तेमाल करने की योजना बनायी थी। मोदी की नई सोच की वजह से वह कहीं इतिहास की कब्र में हमेशा के लिये दफन न हो जाये।
आधुनिक भारत में वास्तविक बदलाव की शुरूआत वीपी सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में हुई। उनके द्वारा बाबा साहब अम्बेडकर को भारत रत्न दिया जाना व मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू किया जाना देश में वांछित सामाजिक क्रांति का प्रस्थान बिन्दु कहा जा सकता है। इसका वृत्त अधूरा रहता अगर वीपी सिंह ने उतनी ही शिद्दत के साथ सामाजिक बराबरी का सूत्रपात करने वाले इस्लाम को इस आंदोलन में अपनी कटिबद्घ धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्घता के जरिये न जोड़ा होता। दरअसल वर्ण व्यवस्था विरोधी आंदोलन और इस्लामी उसूलों में चोली दामन का रिश्ता है जिसे वीपी सिंह ने भरपूर समझा और अपने नये राजनैतिक आगाज का वैचारिक हथियार बनाया।
इसी से खार खाये वर्ण व्यवस्था वादियों ने जवाबी कार्रवाई के तहत अयोध्या में मस्जिद को ढहाया और अपनी इस विध्वंसक योजना में उन पिछड़ों को हरावल दस्ता बनाया जिनके अधिकारों के लिये सामाजिक न्याय की जद्दोजहद अस्तित्व में आयी थी। क्रान्तियों के क्रम में कई अंतरिम चरण आते हैं। जिनमें न्याय की लड़ाई लड़ने वाले पहले शिकस्त खाते नजर आने लगते हैं। वीपी सिंह के आंदोलन के साथ भी यही हुआ लेकिन जब इस्लाम के मान मर्दन के नायक घोषित किये गये कल्याण सिंह और उमा भारती आदि को मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं की तर्ज पर अर्श से फर्श पर लाकर पटक दिया गया तो भाजपा वर्ण व्यवस्था को लेकर तीखी द्वंद्वात्मकता से घिर गयी। भाजपा को भान नहीं था कि मण्डल का आंदोलन उसके हिन्दुत्व को संक्रमित कर चुका है। इसी के चलते कल्याण सिंह के मुंह से वीपी सिंह के लिये तारीफ के शब्द निकलने लगे तो उमा दहाड़ उठीं कि पिछड़ी जाति के नेताओं का वर्चस्व भाजपा में बर्दाश्त नहीं किया जाता।
लेकिन द्वंद्वात्मकता की अंतिम परिणति यह है कि एक पिछड़े समाज के नेता नरेन्द्र मोदी को भाजपा को अपना तारणहार बनाना पड़ा। इसके बावजूद भाजपा के दिशा निर्देशक यह भ्रम पाले बैठे थे कि मोदी सुग्रीव की दास परम्परा को निभायेंगे लेकिन अब मोदी तो अपने को बालि साबित करने में लग गये हैं जो उनके लिये परेशानी का सबब बन चुका है। अम्बेडकर जयंती पर मोदी ने डंके की चोट पर कहा कि शोषित समाज से आया हुआ मोदी आज देश के सर्वोच्च राजनैतिक पद का दावेदार बन सका तो इसका श्रेय बाबा साहब के बनाये संविधान को है। ध्यान देने वाली बात यह है कि बाबरी मस्जिद को शहीद करने की तारीख संघ परिवार ने जानबूझकर बाबा साहब की निर्वाण तिथि के दिन चुनी थी और भाजपा जब पहली बार केन्द्र की सत्ता में आयी थी तो उसने पहला काम संविधान समीक्षा समिति बनाने के माध्यम से बाबा साहब के बनाये समतावादी संविधान को बदलकर वर्ण व्यवस्थावादी संविधान की भूमिका रचने का किया था लेकिन जब उसे पता चल गया कि संविधान का मूलभूत ढांचा अपरिवर्तनीय है और ऐसे दुस्साहस से उसके खिलाफ देश में बगावत हो सकती है तो भाजपा नेतृत्व को बैकफुट पर जाना पड़ा। मोदी राजनीति की नजाकत के कारण वीपी सिंह का नाम लेकर तो उनकी लाइन के लिये कोई स्वीकारोक्ति नहीं कर सकते थे लेकिन यह कहकर कि भाजपा समर्थित केन्द्र सरकार ने ही बाबा साहब को भारत रत्न दिया था बहुत कुछ कह दिया।
तथापि हमारा उद्देश्य यह नहीं है कि गुजरात में मोदी के कार्यकाल में हुए मुसलमानों के कत्लेआम के दामन को कलंक मुक्त घोषित कर दिया जाये लेकिन यह विचारणीय है कि जो श्रेय धर्मनिरपेक्षतावादी शूद्र नेताओं को मिलना चाहिये था वे उसमें कामयाब क्यों नहीं हुए और सामाजिक न्याय के संघर्ष की फसल सांप्रदायिकता की कोख से उपजा शूद्र नेता कैसे काटने जा रहा है। दरअसल वर्ण व्यवस्था बुनियादी नैतिकता और प्राकृतिक न्याय के खिलाफ है जिसकी वजह से समाज में बड़े वर्ग का भारी उत्पीडऩ हुआ और भ्रष्टाचार व अनाचार पनपा। इसलिये सहज अनुमानित था कि जिन्होंने वर्ण व्यवस्था के दंश को भोगा है अगर सत्ता उनके हाथ में आ जायेगी तो भारतीय समाज को नैतिक समाज में बदला जा सकेगा।
सम्राट अशोक के समय का स्वर्ण युग भारत वर्ष में फिर वापस लाया जा सकेगा लेकिन शोषित समाज से आये मुलायम सिंह जैसे नेताओं ने अपराधीकरण, परिवारवाद और भ्रष्टाचार की इंतहा करके पूरे आंदोलन की साख का बेड़ा गर्क कर दिया। अगर उन्होंने साफ सुथरी राजनीति की होती तो आज धर्मनिरपेक्षतावादी शोषित समाज के नेताओं में से ही कोई मजबूत प्रधानमंत्री बनता। बहरहाल मोदी अगर प्रधानमंत्री बनने में सफल होते भी हैं तो शायद यह बदलाव का एक अल्पकालीन पड़ाव भर होगा। राजनाथ सिंह जैसे लोग तैयारी किये हुए बैठे हैं कि मोदी निष्कंटक होकर राजकाज न चला सकें। भाजपा के शूद्र नेताओं ने एकजुट होकर केन्द्र में अपनी सत्ता आने पर उत्तरप्रदेश सरकार को अपदस्थ कर देने का ऐलान किया था लेकिन राजनाथ सिंह इसके प्रतिवाद के लिये आगे आ गये जो भाजपा के अन्दर आगे चलकर होने वाले महाभारत का संकेत है।
वैसे तो मुलायम सिंह और राजनाथ सिंह के बीच पुरानी साठगांठ है लेकिन राजनाथ सिंह की सुविधा के लिये समाजवादी पार्टी द्वारा लखनऊ में अपना उम्मीदवार बदले जाने से आम लोगों तक दोनों की दुरभिसंधि जाहिर हो चुकी है। सामाजिक क्रांति को पलीता लगाने का मुलायम सिंह का इतिहास पहले से ही सर्वविदित है। दिसम्बर 1992 में दो बड़ी घटनायें हुई थीं। एक तो बाबरी मस्जिद शहीद की गयी थी दूसरी घटना इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मण्डल आयोग की रिपोर्ट को सही ठहराने का फैसला सुनाया गया था। इसके बाद धर्मनिरपेक्ष सामाजिक न्याय आंदोलनवादियों का मनोबल इतना ऊंचाई पर पहुंच गया था कि उसके ज्वार में नरसिंहराव सरकार का जहाज डूबता नजर आने लगा था। मुलायम सिंह ही थे जिन्होंने सदन से वाक आउट के माध्यम से नरसिंहराव सरकार को बचाया और इसके बाद धर्म निरपेक्ष सामाजिक क्रांति की लड़ाई लड़ रहे रामोवामो को ध्वस्त करने के लिये उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव में बसपा के साथ बेमेल गठजोड़ करना मंजूर किया। मुलायम सिंह की इसी कारस्तानी से नरसिंहराव की छद्म धर्मनिरपेक्ष सरकार अल्पमत में होते हुए भी अपना कार्यकाल पूरा कर सकी। न केवल इतना बल्कि नरसिंहराव की सरकार ने ही केन्द्र में संघ परिवार की साम्प्रदायिक सरकार के पदारूढ़ होने की प्रस्तावना लिखी। प्रतिगामी शक्तियों को निर्णायक मौके पर शक्ति प्रदान करने का मुलायम सिंह का इतिहास पुराना है और अपने को दोहराना इतिहास की जानी-मानी फितरत है। अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री बनने पर मोदी का अंजाम क्या होगा।
लेखक केपी सिंह, उरई(जालौन) के वरिष्ठ पत्रकार हैं। संपर्कः 9415187850